उत्तराखंड का जोशीमठ शहर अब तक की सबसे बड़ी त्रासदी झेल रहा है। यहां के मकानों और सड़कों में बड़ी-बड़ी दरारें आने से सीवेज का पानी लगातार बह रहा है। जोशीमठ को बचाने के लिए जोशीमठ बचाओ आंदोलन लगातार तेजी पकड़ता जा रहा है। जिसकी गूंज देहरादून राजधानी से लेकर दिल्ली के सत्ता तक जा पहुंची है, लेकिन पूरा सरकारी तंत्र इतनी बड़ी घटना पर खामोश है। पर्यावरणविद्व हमेशा से पहाड़ों पर होते विकास को विनाश की वजह बताते आए हैं, तो इसका मतलब क्या यही निकाला जाए कि उत्तराखंड में विकास होने का मतलब ही विनाशलीला का सामना करना होता है? दरअसल, वर्ष 1991 में विदेशी कंपनियों के लिए भारत में जब दरवाजे खुले, तो उसी वक़्त बाजार ने यह तय करना शुरू कर दिया था कि कौनसे हिस्से का उपयोग किस ढंग से और किस रूप में करना है। साथ ही बाजार ने यह भी तय करना शुरू किया था कि किस हिस्से में कितनी कमाई होनी है।
जोशीमठ के अतीत को आज से 60 बरस पहले जाकर थोड़ा अध्ययन करके देखें तो कुछ ऐसे तथ्य सामने आते है, जो बताते है कि वहां 1960 में कुल 30 दुकानें हुआ करती थीं और आज यहां बारह सौ दुकानें हैं, लगभग 400 परिवार 1960 में रहते थे आज करीब चार हजार परिवार रहते हैं। 1960 में 12 हजार लोगों की रिहाइश थी, लेकिन आज उनकी संख्या 38 से 40 हजार तक पहुंच गई है।
वर्ष 1960 में छह सौ आवासीय मकान निमार्णाधीन थे आज तीन हजार आठ सौ मकान निर्माण हो गए हैं।
इस इलाके में अब तक 60 से ज्यादा टनल बना दी गई और 58 से ज्यादा ब्रिज बनकर तैयार हैं। साथ ही बड़ी-बड़ी इमारतों का निर्माण कार्य एक-एक करके यहां होता चला गया, ताकि चार धाम यात्रा को सरल और सुगम बनाया जा सके। लेकिन जोशीमठ की जनता के साथ होता खिलवाड़ उनकी जिंदगी को खतरे में डालता जा रहा है।
यह किसी ने नहीं सोचा कि अगर पहाड़ लगातार इस तरह की त्रासदी का शिकार होते रहे तो चार धाम परियोजना को सुगम बनाने का क्या फायदा और लोग वहां तक पहुंचेंगे कैसे? वर्ष 1976 में विष्णु प्रयाग में शिकिंग के चलते धोली और अलकनंदा नदी के भीतर जो स्थिति पैदा हुई उसी को आधार मानकर मिश्रा कमेटी का गठन किया गया, जिसमें यह बताया गया था कि जोशीमठ में निर्माण कार्य नहीं किए जाने चाहिए।
अक्टूबर 2022 को चमोली जिले के माना गांव में तीन हजार करोड़ के प्रोजेक्ट का ऐलान किया गया, जिनमें दो रोपवे प्रोजेक्ट बनाने का ऐलान हुआ। साथ ही गौरीकुंड से केदारनाथ और गोविंदघाट से हेमकुंड साहिब तक एक हजार करोड़ रुपए के प्रोजेक्ट का ऐलान सड़क चौड़ीकरण निर्माण के लिए किया गया। पर्वतमाला स्कीम के तहत पहाड़ी क्षेत्रों में सड़क निर्माण का काम तेजी से किया जा रहा है।
जिससे लगता हैं कि पहाड़ों पर जीवन बिताने का समय अब और भी सरल होने वाला है। तीस अक्टूबर 2021 को सड़क, सिंचाई, बिजली, घर, स्वास्थ्य, ड्रिंकिंग वॉटर और उद्योग आदि की योजनाओं पर 17 हजार 500 करोड़ रुपए की योजनाओं का जिक्र किया गया है। जिसमें राज्य सरकार इंफ्रास्ट्रक्चर पर सड़क, पुल, टनल और रेलवे लाइन बिछाने के लिए दो हजार करोड रुपए खर्च करेगी।
इनके अलावा सड़कों का चौड़ीकरण करना, हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट (पिथौरागढ़) लगाना, सीवेज इंप्रूवमेंट प्रोजेक्ट (नैनीताल) पर काम होना यानी कुल मिलाकर 5,750 करोड़ रूपया इन्हीं प्रोजेक्ट पर खर्च होगा। केंद्र सरकार गढ़वाल, कुमायूं और टिहरी के जरिए भारत-नेपाल कनेक्टिविटी को और आसान करना चाहती है। इसलिए सरकार 1157 किमी. लंबी 113 ग्रामीण सड़कों के निर्माण कार्य की दिशा में आगे बढ़ रही है।
साथ ही 151 छोटे-बड़े पुलों को बनाने का काम भी बड़ी तेजी से शुरू हो चुका है। यानी हिमालय पर अरबों खरबों की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के तहत सरकार, धर्म और आस्था के नाम पर जितने भी प्रोजेक्ट शुरू कर चुकी है, वे सीधे उत्तराखंड की मानवता पर सीधा प्रहार है, जिससे एक भीषण त्रासदी पैदा हो सकती है। इसलिए हिमालय में जिस तरह की अप्राकृतिक घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं, उनसे बचने के लिए जनता का जागरूक होना और पर्यावरण के प्रति सजग होना उनकी एक बड़ी जिम्मेदारी बनती है।
जोशीमठ धंसाव पर वैज्ञानिकों को कुछ चौंकाने वाले तथ्य बताते हैं कि जोशीमठ की जमीन मौजूदा भार संभाल पाने की स्थिति में नहीं है। अगर विकास परियोजना कार्यों को जल्द से जल्द बंद नहीं किया गया तो यहां स्थिति और भी भयावह हो सकती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि यहां की जमीन कमजोर ही नहीं, बल्कि हिमालय की उत्पत्ति के समय से ही अस्तित्व में आया ऐतिहासिक फाल्ट मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी) भी गुजर रहा है, जिस वजह से पृथ्वी के अंदर हलचल पैदा होती रहती है।
जोशीमठ के ऊपर जितने भी निर्माण कार्य चलाए जा रहे हैं, वे अब ज्यादा भार संभाल पाने की स्थिति में नहीं हैं। यही वजह है कि जोशीमठ की जमीन धंस रही है। पर्यावरणविद हमेशा से ही पहाड़ों पर होने वाले निर्माण कार्यों का विरोध करते आए है। वे कहते हैं कि पहाड़ों की धड़कन को जितना पहाड़ी व्यक्ति समझ सकता है, उतना कोई नहीं समझ सकता। इसलिए सतर्क होने की जरूरत है और हमें पहाड़ों को बचाना है। हिमालय पर बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के तहत सरकार, धर्म और आस्था के नाम पर जितने भी प्रोजेक्ट शुरू कर चुकी है, वह सीधे उत्तराखंड की मानवता पर सीधा प्रहार है।