आजाद हिंद फौज किसने बनाई थी?

 

Samvad 23


Pankaj Chaturvadi jpg 1यह जानना जरुरी है कि सैन्य शक्ति से भारत पर पहली बार तिरंगा फहराने वाले सुभाष चंद बोस को आजाद हिन्द फौज पहले से गठित और प्रेरित मिली थी। यह चौंकाने वाला तथ्य है कि आजाद हिंद फौज की संकल्पना, गठन और उद्देश्य के पीछे सुभाष चंद बोस नहीं थे। हां, नेताजी की दिशा और मार्गदर्शन ने उसे जोश दिया था। दूसरे विश्व युद्ध में बंदी बनाए गए सैनिकों को एकत्र कर जापानी मदद से ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ जंग छेड़ने की योजना पंजाब के जनरल मोहन सिंह की थी। मोहन सिंह में यह विचार पंजाब के गदर आंदोलन से आया था, जिसमें विदेश में रहने वाले हजारों लोग हथियार के बल पर अंग्रेजों को देश से भगाने का सपना सन 1910 में देख रहे थे। उन्होंने 15 दिसंबर 1941 को आजाद हिंद फौज की स्थापना की और बाद में 21 अक्तूबर 1943 को उन्होंने इस फौज का नेतृत्व सुभाष चंद्र बोस को सौंप दिया।

सरदार मोहन सिंह का जन्म आज के पाकिस्तान के पंजाब के सियालकोट में तीन जनवरी 1909 में हुआ था। वे सन 1927 में ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय सेना यानि ब्रिटिश इंडियन आर्मी में भर्ती हुए थे। उनकी भर्ती 14 पंजाब रेजिमेंट में हुई और ट्रेनिंग के बाद रेजिमेंट की दूसरी बटालियन में तैनात किए गए थे। 1931 में वे अफसर बन गए और उसके बाद छ: महीने की ट्रेनिंग के लिए मध्य प्रदेश स्थित किचनर कॉलेज भेजा गया। इसके बाद ढाई साल देहरादून स्थित इंडियन मिलिटरी अकेडमी (आईएमए) में ट्रेनिंग और पढ़ाई के बाद 1 फरवरी 1935 को कमीशन प्राप्त किया। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान मार्च 1941 में उनकी तैनाती मलाया (वर्तमान मलेयशिया) में थी। जापान की फौज ने ब्रितानी सेना को हरा कर उनकी यूनिट को बंदी बना लिया था। तभी एक जापानी सैनिक अधिकारी मेजर फुजिवारा ने, विदेश में रहकर भारत की आजादी के लिए काम कर रहे ज्ञानी प्रीतम सिंह से संपर्क साधा और मोहन सिंह को इस बात के लिए राजी किया कि वह भारत से अंग्रेजों को बाहर निकालने के लिए काम करेंगे। इस तरह बंधक बनाये हजारों सैनिक, जिनमें बड़ी तादाद में भारतीय भी थे, मोहन सिंह को सौंप दिए गए और इस तरह इंडियन नेशनल आर्मी के गठन की शुरुआत हुई।

जान लें उस समय दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में बीस लाख से ज्यादा भारतीय थे। आठ लाख मलाया में, साढ़े पांच लाख थाईलैंड, एक लाख बर्मा में, दो लाख सत्तर हजार इंडोनेशिया में, हांगकांग में भी। जापान ने भले ही ब्रितानी फौज को हरा दिया था लेकिन स्थानीय शासन के लिए उनकी बोली-भाषा आड़े आ रही थी। तब सिंगापुर में 17 फरवरी 1942 को; फुजीमोरा और मोहन सिंह ने पराजित भारतीय बटालियनों (1/14 पंजाब और 5/14 पंजाब) के जवानों की विशाल सभा को खुले मैदान संबोधित किया। जनरल फुजीमोरा ने भारत की मुक्ति के लिए सेना में शामिल होने के लिए भारतीय सैनिकों को स्वेच्छा से आमंत्रित किया; उन्हें वादा किया गया की उन्हें युद्धबंदी (पीओडब्ल्यू) नहीं माना जाएगा, अपितु जापान के दोस्त के रूप में देखा जाएगा।

अप्रैल 1942 में जनरल मोहन सिंह ने अपने अधिकारियों के एक समूह की एक बैठक बुलाई, जिसे अब बिडादरी रिजॉल्यूशन कहा जाता है। इस प्रस्ताव ने घोषणा की कि भारतीय जाति, समुदाय या धर्म के सभी मतभेदों से ऊपर हैं एवं स्वतंत्रता हर भारतीय का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसके लिए लड़ने के लिए एक भारतीय राष्ट्रीय सेना को उठाया जाएगा। संकल्प ने आगे कहा कि आजाद हिंद फौज केवल तभी युद्ध करेगी जब कांग्रेस और भारत के लोग इसे समर्थन देंगे।
रास बिहारी बोस के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता लीग (इंडियन इंडिपेंडेंस लीग) ने मई 1942 में आयोजित सम्मेलन में मोहन सिंह को आमंत्रित किया; जहां भारतीय स्वतंत्रता लीग को सर्वोच्च निकाय बनाया गया था और आजाद हिंद फौज को इसके मातहत रखा गया था। एक सितंबर 1942 को मोहन सिंह इस फौज के जनरल बने। 1915 में ब्रिटिश शिकंजे से बचकर जापान जा बसे। रास बिहारी बोस के नेतृत्व में बनी इंडियन इंडिपेंडेंस लीग इन सारी गतिविधि में शामिल थी। उन्होंने बैंकाक में 15 -23 जून के बीच एक सभा का आयोजन किया, जिसमें 35 प्रस्ताव पारित किए गए जिनमें से एक के मुताबिक मोहन सिंह को आर्मी आॅफ लिबरेशन फॉर इंडिया यानि इंडियन नेशनल आर्मी का कमांडर इन चीफ बना दिया।

जनरल मोहन सिंह के तहत आईएनए ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ कई जासूसी और विध्वंसक गतिविधियों का आयोजन किया और लगातार ब्रिटिश सैनिकों से भारतीय सैनिकों की भर्ती की। नियमित रूप से लोगों को प्रशिक्षित किया गया एवं कमांड की परिचालन श्रृंखला स्थापित की गयी। कुछ ही दिनों में मोहन सिंह का जापानी प्रशासन से एस बात पर मतभेद हुआ कि आजाद हिंद फौज को जापानी सेना की एक रेजिमेंट में आकर एक स्वतंत्र इकाई की मान्यता दी जाए। जनरल फुजीमोरी से बढ़ते टकराव के कारण दिसंबर 1942 में मोहन सिंह को जापानी सैन्य पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेजा एवं आईएनए को जापान का समर्थन वापस ले लिया गया। जापानी सेना द्वारा आजाद हिंद फौज के दुरुपयोग के संशय से मोहन सिंह ने गिरफ्तारी पश्चात सेना के विघटन का आदेश पारित किया।

जनरल मोहन सिंह की गिरफ्तारी के बाद भारतीय स्वतंत्रता लीग के नेता के रूप में रास बिहारी बोस ने 1942 और फरवरी 1943 के बीच आजाद हिंद फौज को विघटित नहीं होने दिया एवं उसे जोड़ के रखने के लिए जापानियों से वार्तालाप कर 15 फरवरी 1943 को सेना को लेफ्टिनेंट कर्नल किआनी की कमान में जीवित रखा। हिटलर के जर्मनी के साथ जापानी के समझौते के तहत; सुभाष चंद्र बोस को जर्मनी से सिंगापुर भेजकर रास बिहारी बोस से भारतीय राष्ट्रीय सेना का प्रभार लेने के लिए भेजा गया था। मोहन सिंह को इस नई सेना के पहले सत्र को संबोधित करने के लिए बुलाया गया था लेकिन जापानी निर्देशों के अनुरूप उन्हें फौज की कमान से दूर रखा गया। नेताजी सुभाष चंद बोस के कमान संभालने के बाद मोहन सिंह न केवल रिहा हुए , बल्कि आजाद हिंद फौज के अग्रणी रहे। देश को जब आजादी मिली तो सरदार मोहन सिंह को यह दु:ख रहा कि विभाजन में उनका पुश्तैनी पिंड सरहद के पार हो गया और उन्हें एक शरणार्थी के रूप में आना पड़ा।

26 दिसम्बर 1989 को अस्सी साल की उम्र में उनका निधन अपने गांव में हुआ। आज का इतिहास उन पर कुछ बोलता नहीं, लेकिन नेशनल यूनिवर्सिटी आॅफ सिंगापुर में इस विषय पर ढेर सारा काम हुआ है। ह्यूज तोये नामक एक शोधकर्ता का परचा फर्स्ट इंडियन नेशनल आर्र्मी, 1941-1942 इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डालता है। हम केवल प्रतिमा लगाने या किसी अन्य नेता को नीचा दिखाने के लिए अपने राष्ट्रिय गौरवों का इस्तेमाल करते हैं।


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