सम्राट सिकंदर को भारत में आकर अपने विश्व को जीतने के अभियान को रोकना पड़ा और अपने सैनिकों के इच्छा अनुरूप अपने देश वापिस जाने का निर्णय लेना पड़ा। अपने देश वापसी के मार्ग में ही सिकंदर बीमार पड़ गया। हकीमों के सभी प्रयास विफल हो गए। सिकंदर अपनी मृत्यु शैय्या पर पहुंच गया। मरने से पहले वो अपनी मां से मिलना चाहता था, पर अब उसकी उम्मीद क्षीण हो चली थी, स्वास्थ्य उसका साथ नहीं दे रहा था। सिकंदर को मृत्यु शैय्या पर देख, उसके सेनापति बहुत दुखी थे। सेनापति ने सिकंदर से पूछा, मैं शायद वापिस अपने देश नही पहुंच सकता। मैंने कई देशों को अपने अधीन किया, खूब धन, हीरे जवाहरात एकत्रित किए …परंतु आज ये सब मेरे किसी काम नहीं आ रहे हैं…ये मुझे स्वस्थ्य नही कर सकते, ये मेरी जान नहीं बचा सकते।
मैं चाहता हूं की लोग मेरी मौत से सीख लें। मेरी मौत के बाद मेरे ताबूत को मेरा इलाज करने वाले हकीम ही कब्रिस्तान तक ले कर जाएं ताकि लोग जान सकें कि व्यक्ति को मृत्यु से चिकित्सक भी नहीं बचा सकते। जब मेरे ताबूत को कब्रिस्तान तक लेकर जाया जाए, पूरे मार्ग पर मेरे द्वारा एकत्रित धन, हीरे-जवाहरात को बिखेरा जाए और मेरे हाथ ताबूत से बाहर लटकाए जाए, ताकि लोग देख सकें कि आदमी के मरने के बाद कोई भी चीज उसके साथ नही जाती। सेनापति ने अपने सम्राट की अंतिम इच्छाओं को पूरा करने के समर्थन में सिर झुका कर, अपने सम्राट के आदेश को स्वीकार किया। उपरोक्त प्रसंग हमें बताता है की मनुष्य अपने जीवन की वास्तविक धन संपदा अर्थात आत्मिक शांति को छोड़ कर भौतिक और नश्वर चीजों के पीछे, पूरे जीवन भागता रहता है, लेकिन साथ कुछ लेकर नहीं जाता।
-प्रस्तुति : राजेंद्र कुमार शर्मा