मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकताएं हैं, आहार आवास और आवरण (वस्त्र)। इन तीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही मानव प्रकृति का दोहन करता है। जब तक वह इन जरूरतों तक सीमित उपभोग, संयमपूर्वक करता है, तब तक प्रकृति उसकी सहयोगी रहती है। लेकिन जब वह आवश्यकताओं का अतिक्रमण करने लगता है, उपयोग कम और वेस्ट ज्यादा करने लगता है, तृष्णाधीन होकर संग्रह करके वस्तुओं को अनावश्यक सड़न-गलन में झोंक देता है। संयम और अनुशासन को भूल, अनियंत्रित और स्वछंद भोग-उपभोग करता है, तब प्रकृति अपना सहयोग गुण त्याग देती है। और मानव की स्वयं की प्रकृति, विकृति में रूपांतर हो जाती है। मनुष्य सर्वाधिक हिंसा और प्रकृति का विनाश अपनी आहार जरूरतों के लिए करता है। अपने आहार-चुनाव में ही उसे संयम और अनुशासन की आवश्यकता है। दुखद पहलू यह है कि कथित प्रगतिशील, इन तीनों (आहार आवास और आवरण) में स्वतंत्रता-स्वच्छंदता के पक्षधर होते हैं। संयम के घोर विरोधी। वे मानवीय तृष्णा की अगनज्वाला को प्रदिप्त रखने का कार्य करते हैं। ऐसे लोगों को काईयां प्रकृति-द्रोही कहना सही होगा। प्रकृति के अति दोहन के नतीजे हमारे सामने अक्सर आते रहते हैं। कभी भयंकर बर्फीले तूफान के रूप में, तो कभी अति वर्षा के रूप में, जिसकी वजह से बाढ़ की विभीषिका कहर बरपा कर देती है। दुख की बात यह है कि सब कुछ देखते हुए भी हम लगातार प्रकृति का दोहन करने से बाज नहीं आ रहे हैं।