वर्ष 1907 में आज के ही दिन जन्मे और होश संभालने के बाद से ही देश की आजादी के लिए तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ युद्धरत रहकर 1931 में 23 मार्च को लाहौर सेंट्रल जेल में शहीद हुए और शहीद-ए-आजम कहलाए भगत सिंह के 24 साल से भी कम के जीवन में संघर्ष, जीवट और बहादुरी के इतने आयाम हैं कि उनकी चर्चा में तय करना मुश्किल हो जाता है कि बात कहां से शुरू की जाये। आइये, आज इस मुश्किल से निपटते हुए उनकी शहादत से पहले उनके विरुद्ध चली लंबी अदालती कार्रवाई के एक अपेक्षाकृत बहुत कम चर्चित प्रसंग से शुरू करें। ऐतिहासिक लाहौर षडयंत्र केस में जिरह कर रहे सरकारी वकील ने एक दिन कोई ऐसी बात कह दी जो भगत सिंह की निगाह में मूर्खतापूर्ण भी थी और नागवार भी। उसे सुनकर वे बेसाख्ता हंसने लगे तो वकील की त्यौरियां चढ़ गर्इं। उसने जज से मुखातिब होकर कहा, ‘योरआनर, अभियुक्त का इस तरह हंसना मेरी ही नहीं अदालत की और आपकी भी तौहीन है और इसके विरुद्ध सख्ती की जानी चाहिए।’ इस पर जज साहब तो तत्काल कुछ नहीं बोले, लेकिन भगत सिंह ने कहा, ‘वकील साहब, मैं तमाम जिन्दगी हंसता रहा हूं और आगे भी हंसता रहूंगा।…फांसी के तख्ते पर भी मैं आपको हंसता हुआ ही मिलूंगा।…इस वक्त तो आप मेरे हंसने तर जज साहब से शिकायत कर रहे हैं, तब किससे करेंगे?’
वकील को समझ में नहीं आया कि इसके बाद वह क्या कहे, लेकिन भगत सिंह ने शहादत के दिन भी अपनी कही इस बात को याद रखा और सही सिद्ध कर दिखाया। अंग्रेज अचानक उन्हें 24 मार्च की निर्धारित तिथि से एक दिन पहले 23 मार्च की शाम ही शहीद कर देने पर तुल गए और इसके लिए अपने बनाए नियम-कायदों को भी सूली पर लटकाने लगे तो उन्हें अपनी कालकोठरी से फांसीघर की ओर चलने को कहा गया। उस वक्त वे ब्लादिमिर लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे, जो उन्हें बहुत अनुरोध करने पर अपने वकील प्राणनाथ मेहता की मार्फत एक दिन पहले ही मिल पाई थी। उन्होंने किंचित भी विचलित हुए बिना कहा, ‘ठहरो, अभी एक क्रांतिकारी की दूसरे से मुलाकात हो रही है। इसे हो लेने दो।’ फिर हंसते हुए सुखदेव व राजगुरु के बीच जाकर अपने दोनों हाथ उन दोनों के क्रमश: दाहिने व बायें हाथों में डाल दिए और ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद मुदार्बाद’ के नारे लगाने लगे।
फिर मिलकर शायर लालचन्द फलक की ये पंक्तियां गायीं: दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत, मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वफा आएगी। शहादत से एक दिन पहले साथी कैदियों को लिखे अपने अंतिम पत्र में उन्होंने लिखा था कि उनका नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांति के आदर्शों व बलिदानों से जोड़कर उन्हें बहुत ऊंचा कर दिया है। हालांकि उनके मन में देश व मानवता के लिए जितना करने की हसरत थी, वे उसका हजारवां हिस्सा भी नहीं कर पाये हैं और जिन्दा रहते तो शायद यह हसरत पूरी कर पाते। इसी पत्र में उन्होंने आगे लिखा था कि यह हसरत पूरी करने के सिवा उनके दिल में फांसी से बचकर जिन्दा रहने का और कोई लालच कभी नहीं आया।
दरअसल, अपनी शहादत के निर्णायक असर को लेकर वे बहुत आश्वस्त थे। उन्हीं के शब्दों में: ‘मेरे दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते फांसी चढ़ जाने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए बलिदान होने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि साम्राज्यवाद की सारी शैतानी शक्तियों के लिए मिलकर भी इंकलाब को रोकना संभव नहीं होगा।’ प्रसंगवश, पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में भी उनकी इस आश्वस्ति की ताईद की थी। उन्होंने लिखा था: भगत सिंह एक प्रतीक बन गए थे। उनका कार्य भुला दिया गया था, लेकिन प्रतीक याद था।…शहादत के कुछ ही महीनों के अंदर उन पर अनेक गीत रचे गए और उन्हें जो लोकप्रियता मिली, वह अद्वितीय थी। भगत सिंह की शहादत से पहले 12 अक्टूबर, 1930 को अपने एक भाषण में नेहरू ने यह भी कहा था कि मैं उनसे (भगत सिंह से) सहमत होऊं या नहीं, मेरे मन में उनके दुर्लभ साहस व बलिदान के लिए श्रद्धा भरी है। …अगर वायसराय उम्मीद करते हैं कि वे हमें इस आश्चर्यजनक साहस और उसके पीछे के उच्च उद्देश्य की प्रशंसा करने से रोक देंगे तो गलत समझते हैं। उन्हें अपने दिल से पूछना चाहिए कि अगर भगत सिंह अंग्रेज होते और उन्होंने इंग्लैंड के लिए ऐसा किया होता तो उन्हें कैसा अनुभव होता?
इससे पहले असेम्बली बम कांड में जनवरी, 1930 में अपने बयान में भगत सिंह ने कहा था कि पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी जो हम ऐसे बमों के धमाके से प्रकट करना चाहते थे, जो मानव जीवन के लिए कतई घातक नहीं थे। लेकिन उनके बचपन की एक घटना बताती है कि तब वे अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए बन्दूक बोने चल पड़े थे। दरअसल, उनके चाचा ने उन्हें बताया कि अंग्रेजों को भगाने के उपायों के लिए बंदूकें बड़े काम की चीज हैं, तो वे उनकी बन्दूक उठा लाए और खेत में गड्ढा खोदकर उसे उसमें ‘बोने’ लगे। ताकि वह उगे, उसमें ढेर सारी बन्दूकें फलें और उनकी मदद से अंग्रेजों को भगाया जा सके। नादानी के इस दौर के बाद सयाने होकर वे स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय हुए तो किसी ने उनको हतोत्साहित करते हुए कहा कि आजादी उतनी आसानी से तो नहीं ही मिलने वाली, जितनी आसानी से वे और उनके साथी क्रांतिकारी समझते हैं। इस पर उनका उत्तर था, ‘अभी आप हमें समझ नहीं पाए हैं। हम आजादी की प्राप्ति की राह आसान करने में ही लगे हैं और किसी भी कठिनाई से जूझने से मुंह नहीं मोड़ने वाले।’
शहादत से पहले वे अपनी माता विद्यावती से मिले तो उनसे कह दिया कि फांसी हो जाए तो वे उनका पार्थिव शरीर लेने न आएं, बल्कि छोटे भाई को भेज दें। कारण? उन्हीं के शब्दों में ‘आप आएंगी तो रो देंगी और मैं नहीं चाहता कि आपको रोती देखकर लोग कहें कि भगत सिंह की मां रो रही हैं।’ वे इससे पहले भी कई बार अपनी मां को ताकीद कर चुके थे कि वे धीरज से काम लें और व्यर्थ रो-रोकर उनकी शहादत का मान न घटाएं।