दुनिया के एक बहुत बड़े हिस्से में भूख या कुपोषण की समस्या को नए सिरे से देखना पड़ रहा है। भले ही कोरोना महामारी इस समस्या को पैदा करने की जिम्मेदार न हो लेकिन इसने दशकों से चले आ रहे इस संकट को और गंभीर जरूर कर दिया है। इसलिए नया सोच विचार यह है कि भूख और कुपोषण का भयावह संकट अस्थाई है या इसका असर लम्बे वक्त तक रहने वाला है? दुनिया के तमाम हिस्सों में कुपोषण को लेकर चिंता लंबे समय से जताई जा रही थी और इससे निपटने के लिए जो कोशिशें हो रही थीं उन्हें नाकाफी माना जा रहा था। संयुक्त राष्ट्र की एक दो नहीं बल्कि चार एजेंसियों ने खासतौर पर एशिया प्रशांत क्षेत्र में भूख और कुपोषण की स्थिति का जो आकलन किया है वह भयावह है।
संयुक्त राष्ट्र ने बहुत पहले से अपने सदस्य देशों से अपील की हुई है कि 2030 तक अपने-अपने देशों में भुखमरी को खत्म करने का इंतजाम करें। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र ने सभी देशों से साफ- साफ कह रखा था कि बच्चों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए पोषण पर पर्याप्त खर्च करें। इसी वैश्विक अभियान के लिए यह विश्व संस्था समय-समय पर सभी देशों को याद दिलाती रहती है और अपनी तरफ से भी कार्यक्रम चलाती है। लेकिन अब जब भुखमरी के खात्मे का लक्ष्य सिर्फ सात साल दूर रह गया है तो संयुक्त राष्ट्र की चिंता स्वाभाविक है। 2019 की स्थिति के मुताबिक एशिया प्रशांत क्षेत्र में एक सौ नब्बे करोड़ व्यक्ति अपने लिए न्यूनतम पोषक भोजन खरीदने लायक भी पैसा नहीं कमा पा रहे हैं। इधर कोरोना ने कमजोर अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों को माली तौर पर और ज्यादा तहस-नहस कर दिया। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि तमाम देशों में भूख व कुपोषण की मौजूदा हालत आज दिन तक कैसी बन चुकी होगी?
भारत के लिए भुखमरी कुपोषण जैसी समस्याओं का जिक्र पहले भी होता रहा है। ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ में भारत पिछले साल तक 121 देशों में 107वें नंबर पर था। हालांकि ऐसे तुलनात्मक सूचकांक से वास्तविक स्थिति का जरा भी पता नहीं चलता, लेकिन एक अंदाजा जरूर लगता है कि पोषण के मामले में दुनिया में हमारी स्थिति कैसी है। ‘वैश्विक भुखमरी सूचकांक’ पर गौर करें तो हम दुनिया के 107 देशों के बीच सबसे बदहाल 15 देशों में शामिल हैं। पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के नाते आंकड़ा दुखद ही कहा जाएगा।
हालांकि इस तरफ ध्यान देने के लिए समय-समय पर देश में कार्यक्रम बनते रहे हैं। लेकिन इस वक्त संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट इस कारण से ज्यादा महत्वपूर्ण है। वैसे दुनिया में कुपोषण की यह समस्या सीधे-सीधे नागरिकों की कम आमदनी का नतीजा मानी जाती है। संयुक्त राष्ट्र की इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि एक व्यक्ति को एक दिन का न्यूनतम पोषक भोजन लेने के लिए लगभग एक अमेरिकी डॉलर यानी लगभग 72 रुपये रोजाना चाहिए। यह न्यूनतम पोषक आहार सिर्फ पर्याप्त कैलोरी वाला भोजन है। अगर सभी प्रकार के आवश्यक पोषक तत्वों के लिहाज से देखा जाए तो उस भोजन का खर्चा सवा दो डॉलर यानी पौने दो सौ रुपए रोज बैठता है।
इस तरह से बिल्कुल साफ है कि अगर अपने देश में भुखमरी व कुपोषण की समस्या को समाप्त करने के लिए कोई कदम उठाना हो या योजना बनानी हो तो हमें अपने निम्न आय वाली आबादी के बारे में गहराई से सोचना पड़ेगा, खासतौर पर कोरोना काल में जिस तरह से मजदूर और अर्धकुशल कामगारों के रोजगार खत्म हुए हैं उसके बाद तो यह चुनौती बहुत ही बड़ी हो गई है। यह एक अलग बात है कि अगर गरीबों की आमदनी बढ़ने का इंतजाम न हो पा रहा हो तो उन तक सीधे ही पोषक तत्वों से भरपूर भोजन पहुंचाने के दूसरे इंतजाम करने पड़ेंगे।
बरहाल इस बात में कोई शक नहीं है कि दुनिया की तमाम सरकारें इस समय महामारी से तबाह अपनी तमाम व्यवस्थाओं को फिर से पटरी पर लाने की कोशिश में जुटी है। हम भी उन देशों में शामिल माने जा सकते हैं। लेकिन सबसे ज्यादा गौर करने की बात यह है कि अर्थव्यवस्था को संभालने के उपक्रम में आपातकालीन जरूरतों पर कितना ध्यान दिया गया। किसी देश में उद्योग धंधों या दूसरी उत्पाद गतिविधियों पर ध्यान देने के साथ ही नागरिकों की न्यूनतम आवश्यकताओं पर ध्यान देना भी उतना ही जरूरी माना जाता है।
इसीलिए एशिया प्रशांत में अगर सबसे बुनियादी जरूरतों में भी पहली आवश्यकता यानी भोजन के संकट पर संयुक्त राष्ट्र गौर करवा रहा है तो इसे गंभीरता से लिया ही जाना चाहिए और सिर्फ अपने देश की ही बात करें तो सरकार के दावों के आधार पर कहा जा सकता है कि अपनी अर्थव्यवस्था ज्यादा चिंतनीय स्थिति में नहीं है। यानी हमारे लिए अपने देश में भूख या कुपोषण के खात्मे के लिए अलग से कार्यक्रम चलाना कोई मुश्किल काम होना नहीं चाहिए, बस ध्यान देने की कोई बात हो सकती है तो यही हो सकती है कि हम अपनी प्राथमिकताएं तय कर लें।
संयुक्त राष्ट्र की प्रमुख एजेंसी ‘विश्व खाद्य कार्यक्रम’ ने अनुमान लगाया है कि वर्ष 2020 के मुकाबले 2025 में 83 देशों के लगभग 27 करोड़ अतिरिक्त व्यक्तियों तक खाद्य सहायता पहुंचाने की जरूरत पड़ेगी। कुल मिलाकर कुपोषण और भुखमरी से जूझ रहे देशों की सरकारों को अपना खाद्य तंत्र ऐसा बनाना पड़ेगा। जिससे कि पोषक पोषक तत्व युक्त फल, सब्जी और प्रोटीन से भरपूर खाद्य उत्पाद उगाने के लिए किसान प्रोत्साहित हों। इस काम से कोई भी देश अपने नागरिकों के लिए पौष्टिक आहार की व्यवस्था अपने दम पर कर सकता है।