राजा परीक्षित शृंगी ऋषि के अभिशाप से ग्रसित थे। राजा परीक्षित का मृत्यु का भय कम ही नहीं हो रहा था। तब शुकदेवजी ने राजा को एक कहानी सुनाई-राजन, एक राजा जंगल में शिकार के दौरान रास्ता भटक गया। रात्रि होने पर वह सिर छिपाने के लिए कोई स्थान ढूंढ़ने लगा। थोड़ी दूर चलने पर उसे एक झोपड़ी नजर आई। उसमें एक बीमार बहेलिया रहता था। उसने झोपड़ी में ही एक ओर मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था। उसे देखकर राजा को बहुत बुरा लगा, पर कोई और आश्रय न देख उसने विवशतावश बहेलिए से झोपड़ी में रातभर ठहरा लेने की प्रार्थना की। बहेलिया बोला-मैं भटके हुए राहगीरों को अकसर ठहराता रहा हूं। लेकिन अगले दिन जाते समय वे बहुत बहसबाजी करते हैं। वे इस झोपड़ी को छोड़ना ही नहीं चाहते। मैं अब इस झंझट में नहीं पड़ना चाहता, इसलिए आपको नहीं ठहरा सकता। राजा ने उसे वचन दिया कि वह ऐसा नहीं करेगा। इसके बाद वह झोपड़ी में ठहर गया। किंतु सुबह उठते तक तो राजा को वो ही गंध अच्छी लगने लगी और वो वहीं रहने का मन बनाने लगा। इसी कारण उसकी बहेलिए झगड़ा हो गया।
राजा को झोपड़ी छोड़ने का बहुत दुख होने लगा। यह कथा सुनाकर शुकदेव ने परीक्षित से पूछा-क्या उस राजा के लिए यह झगड़ा उचित था? परीक्षित ने कहा- वह तो बड़ा मूर्ख था, जो अपने दिए हुए वचन को तोड़ते हुए अधिक समय तक झोपड़ी में रहना चाहता था। आखिर वह राजा कौन था? तब शुकदेव ने कहा- परीक्षित, वह और कोई नहीं, तुम स्वयं हो। इस मल-मूत्र की झोपड़ी देह में जितने समय तुम्हारी आत्मा को रहना जरूरी था, वह अवधि पूरी हो गई। अब इसे दूसरे लोक को जाना है। मरने का शोक कर रहे हैं। क्या यह उचित है? यह सुनकर परीक्षित ने मृत्यु के भय को भुलाते हुए मानसिक रूप से निर्वाण की तैयारी कर ली।
प्रस्तुति : राजेंद्र कुमार शर्मा