असमानता हमेशा से एक भावनात्मक मुद्दा रहा है। इसको आधार बनाकर राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन होते रहे हैं। एक सभ्य समाज में असमानता का कोई भी रूप स्वीकार्य नहीं है। यह एक अनुभवजन्य मुद्दा भी है, क्योंकि इसकी परिभाषा और माप, उपयोग किए गए पैमानों और आंकड़ों पर निर्भर करती है। आमतौर पर आय को आर्थिक विकास का मानदंड माना गया है, हालांकि विकास की यह संकुचित परिभाषा है। आय का स्तर और वितरण किसी देश या समाज में समानता के दर्जे को बताते हैं।
पिछले 6 दशकों में भारत ने आर्थिक विकास और संवृद्धि के कई आयाम तय किए हैं। यह सिक्के का एक पक्ष है। दूसरा रूख यह भी है कि कई राज्य अभी भी विकास की दौड़ में पीछे रह गए हैं । राज्यों के बीच विकास के स्तर में असमानता है। विकास का प्रतिफल चुनिंदा शहरी क्षेत्रों में सीमित हो जा रहा है। पिछले वर्ष प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी-पीएम) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ‘रिलेटिव इकनॉमिक परफॉर्मेंस आॅफ इंडियन स्टेट्स : 1960-61 टू 2023-24’ में राज्यों के बीच सापेक्षिक विकास के स्तर की गहराई से पड़ताल की गई है। सापेक्षिक विकास के स्तर को मापने के लिए दो पैमाने प्रयोग किए गए हैं। पहला, सूबों के विकास का पैमाना उनके राज्य सकल घरेलू पैदावार (एसडीपी) को माना गया है। देश के सकल घरेलू पैदावार (जीडीपी) में राज्य की हिस्सेदारी को खुशहाली का सूचकहै। दूसरे पैमाने में व्यक्ति के स्तर पर तुलना की गई है झ्र प्रदेशों के प्रति व्यक्ति आय की तुलना औसत प्रति व्यक्ति आय से तुलना की गई है।
दोनों ही पैमानें पर राज्यों के बीच व्याप्त घोर विषमता का पता देते हैं। आंकड़े बताते हैं कि बीते छह दशकों में पश्चिम और दक्षिण भारत ने देश के अन्य हिस्सों को पीछे छोड़ दिया है। दक्षिण के पाँच राज्यों—आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना—का देश की कुल जीडीपी में करीब 30 फीसदी योगदान है।
प्रतिव्यक्ति आय के स्तर पर महाराष्ट्र और गुजरात ऐतिहासिक तौर पर आगे थे और वर्तमान में भी आगे हैं। इन दोनों राज्यों में प्रति व्यक्ति आय का स्तर लगातार 1960 के दशक से राष्ट्रीय औसत से अधिक है। वर्ष 2023-24 में गुजरात की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत की160.7 फीसदी और महाराष्ट्र की 150.7 फीसदी रही। आंकड़ों से यह भी बात साफ होती है कि 1990 के दशक के बाद दक्षिण के राज्यों, ओडिशा, सिक्किम और हरियाणा ने काफी सुधार किया है। जबकि इसी दौरान पश्चिम बंगाल, बिहार, असम और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की स्थिति प्रति व्यक्ति आय के मामले बदतर हुई है। इन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय का स्तर 1960-61 के राष्ट्रीय औसत से बहुत नीचे है।
1960 का दशक हरियाणा और पंजाब के लिए नई संभावनाएं लेकर आया था। इस दौरान देश में ‘हरित क्रांति’ हुई जिसका सबसे अधिक लाभ पंजाब और हरियाणा को मिला झ्र इन राज्यों की आय के स्तर में तेजी से इजाफा हुआ। लेकिन 2023-24 आते-आते पंजाब इस गति को बरकरार नहीं रख सका और उसकी आर्थिक स्थिति हरियाणा की तुलना में कमजोर हो गई। वर्ष 2023-24 में पंजाब की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत की 106.7 फीसदी हो गई, जबकि 1960-61 में यह 119.6 फीसदी थी। दूसरी ओर, हरियाणा की प्रति व्यक्ति आय 2023-24 में 176.8 फीसदी रही। यह 1960-61 के 106.9 फीसदी से बहुत अधिक थी।
प्रतिव्यक्ति आय में सबसे अधिक गिरावट पश्चिम बंगाल में दर्ज की गई है। 2023-24 में इसकी प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का 83.7 फीसदी रह गई, जबकि 1960-61 में यह प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से 27.5 फीसदी अधिक थी। यह देश का तीसरा सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आय वाला प्रदेश था।
बिहार की प्रति व्यक्ति आय न केवल 1960 के दशक से ही राष्ट्रीय औसत से कम है, बल्कि 1960-61 में जहां यह राष्ट्रीय औसत की 70.3 फीसदी थी, वहीं अब यह घटकर उसकी 32.8 फीसदी ही रह गई है। आय के मामले में बिहार और उत्तर प्रदेश की कारगुजारी एक जैसी है। 1960 के दशक में उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत की 82.4 फीसदी थी वहीं 2023-24 में यह घटकर उसकी 50.8 फीसदी ही रह गई है।
राज्यों के बीच असमानता की यह खाई अहम नीतिगत चुनौतियां पेश करती है। राज्यों के बीच राजकोषीय संसाधनों और कराधान के वितरण को लेकर अलग किस्म का तनाव उत्पन्न है। राज्यों के बीच आय असमानता अगर और बढ़ी तो तनाव में और इजाफा होगा। जरूरत इस बात की है कि लक्षित और केंद्रित हस्तक्षेप किया जाए ताकि पीछे छूट रहे राज्यों को तेजी से आगे लाया जा सके। इसके लिए दो मोर्चों पर कुछ संस्थागत उपाय करने होंगे। पहला यह कि राज्यों को साधन सम्पन्न बनाया जाए जिससे कि वे उत्पादन बढ़ा सकें। दूसरा, राज्यों की उत्पादकता बढ़ाने का प्रयास किया जाए।
राज्यों को आवश्यक राजकोषीय संसाधनों को उपलब्ध कराने के लिए वित्त आयोग की व्यवस्था है। देश को राजकोषीय हस्तांतरण की व्यवस्था पर पुनर्विचार करने और इसको और अधिक व्यावहारिक बनाने की आवश्यकता है। साथ ही, संसाधन हस्तांतरण के अन्य उपायों पर भी ध्यान देना होगा। उदाहरण के तौर पर, अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों का ऋण-जमा अनुपात 2023 में 75 प्रतिशतसे अधिक था। पूर्वी क्षेत्र के लिए यह अनुपात 50और पूर्वोत्तर क्षेत्र में 40 प्रतिशत से भी कम था। यह दशार्ता है कि पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्यों से अन्य क्षेत्रों में संसाधन हस्तांतरण हो रहा है। संतुलित वृद्धि के लिए संसाधनों का संतुलित वितरण अनिवार्य शर्त है।
दूसरा मोर्चा उत्पादकता को बढ़ाना है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और कौशल विकास में निवेश उत्पादकता को बेहतर बनाने काफी मददगार साबित हो सकता है। भारत इस समय युवाओं का देश है। शिक्षा और स्वास्थ्य में किया गया खर्च व्यय नहीं, बल्कि निवेश होता है जो भविष्य में लाभांश देता है। मानव पूंजी में निवेश का सबसे उपयुक्त समय हैताकि जनसंख्या के वृद्ध होने से पहले जनसांख्यिकीय लाभांश से अधिकतम लाभ उठाया जा सके। प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों में-‘यही समय है, सही समय है’। हमारी अर्थव्यवस्था एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है। उच्च और सतत आर्थिक विकास में क्षेत्रीय असमानता एक बड़ी चुनौती है। कुशल नीति और आर्थिक उपायों से इस चुनौती का सफलतापूर्वक मुकाबला किया जा सकता है।