लगभग एक साल पूर्व फलस्तीनी संगठन तथा गाजा पट्टी के शासक दल हमास द्वारा इस्राइल पर किए गए जिस हमले को अंग्रेजी में ‘कॉंफ्लिक्ट’ यानी झड़प बताया गया था, आज वह एक ऐसे युद्ध की शक्ल ले चुका है, जिसमें इस्राइल अभी फिलहाल सात मोर्चों- गाजा, पश्चिमी तट, यमन, लेबनान, सीरिया, इराक और ईरान पर एक साथ लड़ रहा है। इस लड़ाई ने ऐसा राजनीतिक रुख अख्तियार कर लिया है जिसमें मध्यपूर्व और एशिया के कई देश यही नहीं तय कर पा रहे हैं कि वे किसकी तरफ रहें! सीमाओं की बात करें तो इस्राइल चारों तरफ से मुस्लिम देशों से घिरा हुआ है। पूर्व में जार्डन, उत्तर में लेबनान, उत्तर पूर्व में सीरिया, दक्षिण पश्चिम में मिस्र और झगड़े की जड़ कहे जाने वाले फलस्तीन के दो इलाके-दक्षिण पश्चिम में गाजा पट्टी तथा पूर्व में पश्चिमी तट नाम का क्षेत्र है। इन सभी सीमावर्ती देशों में सैन्य संगठनों के अलावा इस्लामिक मिलिशिया का भी जाल फैला हुआ है।
गत वर्ष सात अक्टूबर को जब हमास ने हमला किया तो कारण यह बताया कि इस्राइल ने उनके आदमियों को बंधक बनाया हुआ है, सीमाओं को बंद करके तमाम तरह की आपूर्ति बाधित कर रखी है, विवादों के निस्तारण को तय अन्तर्राष्ट्रीय कानूूनों को नहीं मान रहा है तथा गाजा पट्टी निवासियों के तमाम कष्टों का जिम्मेदार है। सात अक्टूबर के हमले में इस्राइल के लगभग 1200 लोग मारे गए तथा हमास लड़ाकों ने करीब 250 लोगों को बंधक भी बनाया। ध्यान रहे-फलस्तीन गाजा पट्टी और पश्चिमी तट नामक दो हिस्सों में बँटा हुआ है जिसमें गाजा पट्टी में वर्ष 2007 से चुनाव जीतकर आए हमास का शासन है। इस्राइल और हमास की अगर तुलना करें तो हमास की स्थिति मच्छर सरीखी है। अपने दु:खों और हालात से आजिज आकर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए हमास ने इस्राइल पर हमला तो कर दिया लेकिन इसकी बहुत बड़ी कीमत उसे चुकानी पड़ी है।
इस्लामिक बंधुत्व के नाम पर जो देश उसकी तरफ से लड़ाई में शामिल हो गए हैं, वे भी उसके मौजूदा कष्टों को दूर नहीं कर पाएंगे। इस्राइल पर अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं ही दबाव बना सकती हैं, लेकिन इन संस्थाओं में अमेरिका का दबदबा है और अमेरिका खुलकर इस्राइल के साथ खड़ा है। गत दिनों उसने इस्राइल को लगभग 2000 करोड़ रुपयों की सैन्य सहायता देने की घोषणा की है तथा ब्रिटेन और फ्रांस भी इस्राइल के साथ हैं। सऊदी अरब के सुरक्षा सम्बन्धी समझौते इस्राइल के साथ हैं, लेकिन मन से वह फलस्तीन के साथ है, इसलिए कूटनीतिक तौर पर वह बहुत फूंक-फूंक कर कदम रख रहा हैं। कतर यद्यपि बहुत छोटा सा देश है, लेकिन वहां अमेरिका का बड़ा सैन्य अड्डा है, जबकि कतर का भाईचारा ईरान के साथ है और इसने हमास के मारे गए नेता इस्माइल हेनियाह को अपने यहां शरण भी दे रखी थी। जार्डन की दशा भी कतर जैसी ही है। अमेरिका ने वहां अपना सैन्य अड्डा बना रखा है जिस पर इसी साल जनवरी में ईरान समर्थित गुटों ने हमला कर तीन अमेरिकियों को मार दिया था। जार्डन भी किसी तरह अपना राजनीतिक तालमेल इस्राइल से बनाए हुए है।
इस्राइल का एक और पड़ोसी मिस्र है, जिसने वर्ष 1979 से इस्राइल के साथ मशहूर कैम्प डेविड शान्ति समझौते की सन्धि कर रखी है, लेकिन इधर फलस्तीन की वजह से सम्बन्ध निम्न स्तर पर आ गए हैं और मिस्र में जनता तथा विपक्ष ने हमास की तरफदारी की आवाज उठा रखी है। सीरिया और इराक एक समय में क्षेत्रीय शक्तियां रही हैं लेकिन वहां स्थित अमेरिकी सैन्य अड्डों पर भी ईरान समर्थित समूहों ने दर्जनों बार हमला किया हुआ है। इस्राइल का एक ताकतवर पड़ोसी तुर्की है, लेकिन उससे भी सम्बन्ध ठीक नहीं हैं, क्योंकि इसी साल जनवरी में तुर्की पुलिस ने 33 ऐसे लोगों को गिरफ्तार किया जिन पर इस्राइली जासूसी संस्था मोसाद के लिए जासूसी करने का आरोप था। तुर्की ने कहा कि मोसाद के ये जासूस उसके देश में हमास के लोगों की तलाश कर रहे थे।
दूसरी तरफ ईरान है। क्षेत्र में अपनी संप्रभुता तथा इस्लामिक बंधुत्व का झंडा बुलन्द रखने के लिहाज से वह इस लड़ाई में शामिल होना अपना फर्ज समझता है। वैसे तो ईरान के साथ रुस, तुर्की, लेबनान, चीन और यमन हैं। जहां तक रूस की बात है तो पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका के खिलाफ समान सोच रखने के कारण रूस और ईरान में दशकों से अच्छे सम्बन्ध हंै। इस संयोग में राजनीतिक दृष्टिकोण तलाशे जा सकते हंै कि रूसी प्रधानमन्त्री मिखाइल मिशुस्तिन के गत दिनों ईरान दौरे के बाद ही ईरान ने इस्राइल पर मिसाइल हमला किया था। लेकिन रूस नहीं चाहता कि उसके और यूक्रेन के बीच चल रही जंग में इस्राइल यूक्रेन की मदद करने लगे। रूस जैसा ही मामला चीन का भी है। वैसे तो चीन के इस्राइल के साथ व्यापारिक सम्बन्ध हैं, लेकिन अमेरिका की वजह चीन भी ईरान को अपने पाले में रखना चाहता है। ईरान के साथ यमन भी है, जिसके हूथी लड़ाकों ने इस्राइल पर मिसाइली हमला जारी रखा है। इसी प्रकार वर्ष 1948 से ही इस्राइल से अपनी लड़ाई को लेकर सीरिया स्वाभाविक ही ईरान के साथ है। संक्षेप में कहें तो एक ग्रुप है जिसका नाम है-एक्सिस आॅफ रेजिस्टेन्स जिसमें हमास, हिजबुल्लाह, सीरिया की सरकार, यमन के हूथी तथा सीरिया और इराक के अन्य लड़ाकू समूह शामिल हैं जो ईरान की मदद कर रहे हैं।
भारत ने शुरू से ही दो राष्ट्र के सिद्धान्त पर फलस्तीन को मान्यता दे रखी है। इस्राइल से भारत के सामरिक सम्बन्ध भी हैं तथा बहुत सारे भारतीय इस्राइल में रहते भी हैं। ताजा हालात में भारत ने फलस्तीन को 70 टन राहत सामाग्री और दवा आदि की सहायता भी दी है।