Sunday, July 7, 2024
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रूस-यूक्रेन युद्ध की चुनौतियां

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Samvad 26


Napander Abhishake Narapइतिहास उठाकर देखा जाए तो आजतक युद्ध से किसी समस्या का हल नही निकला है। इससे जन और धन की हानि होती है। मांओं की कोख सूनी हो जाती है, बच्चे अनाथ हो जाते हैं, औरतें विधवा हो जाती हैं, किसी का पूरा संसार लुट जाता है। आज दुनिया भले ही विकास की नई नई गाथाएं लिख रही हो लेकिन रूस, चीन जैसे देश अभी भी युद्ध में ही उलझे रहते हैं। इसी का परिणाम है रूस- युक्रेन युद्ध , जिसने मानवता पर एक नया संकट खड़ा कर दिया है।
जब से यूक्रेन सोवियत संघ से अलग हुआ है, रूस और पश्चिम दोनों इस क्षेत्र में सत्ता संतुलन को अपने पक्ष में रखने के लिये लगातार संघर्षरत रहे हैं। अमेरिका और यूरोपीय संघ के लिये यूक्रेन, रूस और पश्चिम के बीच एक महत्त्वपूर्ण बफर जोन का कार्य करता है। यही कारण है कि दो देशों के वर्चस्व की लड़ाई में यूक्रेन पिस रहा है। रूस के साथ तनाव बढ़ने से अमेरिका और यूरोपीय संघ यूक्रेन को रूसी नियंत्रण से दूर रखने के लिये प्रयास करते रहे हैं। यह मामला सिर्फ रूस और यूरोप का ही नहीं लग रहा है। इसमें पीछे से बैठ कर चीन भी अपनी ताक में है।

क्योकि रूस के रास्ते चीन अमेरिका से अपना हित साधना चाहता था। जिस तरह से चीन ताइवान और भारत से सीमा विवाद में उलझते रहता है , उसे देख कर चीन को भी शह मिलेगा और वह यही चाहता भी है। जब बात युद्ध की होगी तो सिर्फ़ यूक्रेन-रूस का ही मुद्दा नहीं रहेगा। अगर दुनिया ऐसे ही हाथ पर हाथ रख के बैठी रही तो वह दिन दूर नहीं जब चीन ताइवान पर या उससे आगे बढ़ कर उसका प्रसार भारत तक हो कर युद्ध मे तब्दील हो जाये। भारत के लिए भी चुनौती बना हुआ है क्योंकि जिस अमेरिका के बूते हम चीन से लड़ने के तैयारी में है, यूक्रेन युद्ध के बाद अमेरिका की हताशा देख कर हम उसपर विश्वास नहीं कर सकते है।

अब स्थिति भयावह हो चली है। ऐसे में अमेरिका और यूरोपियन देश प्रतिबंध – प्रतिबंध का खेल खेलने में व्यस्त हैं। अफगानिस्तान में चारों खाने चित्त होने के बाद अमेरिका तो खुद ही पस्त नजर आ रहा है। ठीक से देखें तो यूक्रेन को सभी देशों ने युद्ध में धकेल कर उसे घुट-घुट कर मरने पर विवश कर दिया गया है। यूक्रेन पूरी दुनिया के सामने बर्बाद हो रहा है और सभी देश बैठ कर तमाशा देख रहे हैं। अमेरिका ने साफ तौर पे अपनी सेना यूक्रेन भेजने से मना कर दिया है और उसका कहना है कि वह सिर्फ़ नाटो के सदस्य देशों में ही सेना भेज सकता है। ऐसे में यूक्रेन का हश्र क्या होगा यह वक्त के गर्भ में ही छुपा है।

विश्व शांति के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई थी जिसमें सिर्फ बैठकें ही होती रही हैं, लेकिन अपने आप में यह एक नाकाम संस्था तब सबित होती है जब उसकी जरूरत शांति स्थापना के लिए होती है। संयुक्त राष्ट्र संघ विस्तार के साथ इसमें सुधार की भी जरूरत होगी, वरना एक ऐसा वक्त आएगा जब संयुक्त राष्ट्र संघ का दम घुट जाएगा। अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र के रवैये को यूक्रेन धीरे-धीरे समझ रहा है। और यही कारण है कि यूक्रेन अपनी सहायता के लिए भारत की ओर हाथ फैलाए है। हालांकि अब तक भारत ने किसी एक पक्ष का साथ न देकर न्यूट्रल रहने का ही नीति अपनायी है। इस विभीषिका को यहीं नहीं रोका गया तो इस आग की चिंगारी अन्य देशों में भी सुलगने लगेगी।

इस घटना की इतिहास की तह में जा कर देखते हैं 1991 में सोवियत यूनियन के विघटन के बाद नाटो ने मध्य और पूर्वी यूरोप से नए सदस्यों को संगठन में शामिल करने का फैसला किया। रूस इसके विस्तार को रोकने के लिए आंशिक रूप से एक समझौता करते हुए 1997 में नाटो के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर किया। इस संधि ने नाटो के विस्तार को साफतौर पर प्रतिबंधित नहीं किया लेकिन नाटो ने नए सदस्य देशों के क्षेत्र में सैनिकों और परमाणु हथियारों को तैनात नहीं करने पर अपनी सहमति जताई। इसके बाद, नाटो ने वारसा संधि के ज्यादातर पूर्व सदस्यों को शामिल करने के लिए पूर्व की ओर विस्तार किया। वर्ष 2014 में पश्चिम के समर्थन में यूक्रेन में शासन परिवर्तन किया गया और यूक्रेन के भ्रष्ट राष्ट्रपति सत्ता से बेदखल हो गए। उसी कार्रवाई का नतीजा है कि क्रीमिया अब रूस का हिस्सा है और विद्रोहियों का पूर्वी यूक्रेन के कुछ हिस्सों पर कब्जा है।

2014 में रूस द्वारा यूक्रेन के क्रीमिया प्रायद्वीप पर कब्जा कर लेने के बाद डोनबास क्षेत्र में भी यूक्रेन से अलगाव का आंदोलन सामने आया। डोनेट्स्क और लुहान्स्क क्षेत्र डॉनबास के अंतर्गत ही आते हैं। यह क्षेत्र प्रचुर मात्रा में खनिजों से भरा हुआ है। इस क्षेत्र में एक तिहाई आबादी रूसी भाषा बोलने वालों की है, भाषाई आधार पर ही यह यूक्रेन से अलग राष्ट्र बनाना चाहते हैं। रूसी भाषा बोलने वाले यह लोग उस क्षेत्र में तब आकर बसे थे, जब यूक्रेन सोवियत संघ का हिस्सा था। इन सभी के पूर्वज डॉनबास क्षेत्र के खदानों में काम करने वाले मजदूर थे। रूस अप्रत्यक्ष रूप से इन अलगाववादियों का समर्थन करता आया है। लेकिन इधर अक्तूबर 2021 के बाद तब से गोलाबारी काफी तेज हो गई है, जब रूस ने यूक्रेन के साथ सीमाओं पर सैनिकों को तैनात करना शुरू किया था। अब रूस डोनेट्स्क और लुहान्स्क को स्वतंत्र क्षेत्रों के रूप में मान्यता दे चुका है। रूस का तर्क यह है कि वह अपने लोगों की रक्षा कर रहा है और इसी कुतर्क को आधार बनाकर पुतिन ने युद्ध का शंखनाद कर दिया है।

रूस-यूक्रेन युद्ध का प्रभाव दुनिया के साथ भारत पर भी देखने को मिल रहा है। इसका असर कच्चे तेल की कीमतों पर साफ देखने को मिल रहा है। वैश्विक तेल उत्पादन में रूस की हिस्सेदारी करीब 10 प्रतिशत है। तेल की कीमत 100 डॉलर प्रति बैरल के पार पहुंच गई। यह भारत के लिए भी एक बड़ी चुनौती सामने खड़ा है।

भारत ने इसके लिए अब तक न्यूट्रल रहने की ही नीति अपनायी है। भारत पश्चिमी शक्तियों द्वारा क्रीमिया में रूस के हस्तक्षेप की निंदा में शामिल नहीं हुआ और इस मुद्दे पर अपना तटस्थ रुख रखा। नवंबर 2020 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन द्वारा प्रायोजित एक प्रस्ताव के खिलाफ मतदान करके रूस का समर्थन किया, जिसमें क्रीमिया में कथित मानवाधिकारों के उल्लंघन की निंदा की गई थी। हाल ही में भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में यह भी सुझाव दिया कि ‘शांत और रचनात्मक कूटनीति’ समय की आवश्यकता है और तनाव को बढ़ाने वाले किसी भी कदम से बचना चाहिए। इस स्थिति में भारत के लिए गुटनिरपेक्ष रहना ही बेहतर समाधान होगा, जिसके साथ हम आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन वर्तमान दौर में गुटनिरपेक्ष रहना सबसे बड़ी चुनौती है। अब आगे आगे देखिए होता है क्या?

नृपेंद्र अभिषक नृप


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