साल 2021 समाप्त हुआ है। क्या इस समाप्ति में भविष्य की कोई झांकी दिखती है? पिछले वर्षों की तरह इस जनवरी 2022 में भी तीन प्रकार के नव-वर्षीय जश्न मनाए जा रहे हैं। पहला जश्न, उस संगठित वर्ग का है जो अपने शक्ति-प्रदर्शनकारी नेतृत्व की आराधना में लगा है: जिसने वायरस को परास्त किया; कश्मीर को आजाद किया; नागरिकता का नया परिचय दिया; चीनियों को मुहतोड़ जवाब दिया; भव्य राम मंदिर की स्थापना की; किसानों की कमाई को दुगुना किया; तथा राष्ट्रविरोधी, आन्दोलनजीवी और बगावती दलित, महिला, मुसलमान और अन्य ‘म्लेच्छों’ को ठिकाने लगा दिया।
दूसरा, बिखरा वर्ग तालाबंदी, नोटबंदी, गिरफ़्तारी और नफरती मुहिम के बावजूद इन सब कार्यकलापों के विरोध का, इंटरनेट के सहारे, आशावादी गुणगान कर रहा है। विद्यार्थी, मजदूर, किसान, महिला, नर्स, डॉक्टर, शिक्षक, बेरोजगार, वकील, इंजीनियर, बेघर, अपंग, व्यापारी, दलित, पिछड़ा, आदिवासी, मुस्लमान, ईसाई और कुछ हिंदू-सभी तबके, जहां हो सके, छोटे-बड़े समूहों में सड़क पर जुलूस भी निकाल रहे हैं।
और तीसरा जश्न, शोषक वर्ग मना रहा है, जो चुपचाप अपनी दौलत को एक-तिहाई बढ़ा चुका है, वो भी ऐसे समय में जब देश की दो-तिहाई जनता की कमाई घट गई है। साथ में जनता को गुमराह करने के लिए कभी झूठे प्रचार, कभी नफरत और कभी डंडे और कैदखाने की नौटंकी लगातार चल रही है। इस तरह तीनों वर्ग अपने-अपने परिवर्तन का उत्सव मना रहे हैं, लेकिन क्या हैं, वो परिवर्तन?
शक्ति और शोषण की तरक्की का जश्न तो साफ समझ में आता है, लेकिन उनके विरोधियों के मन में परिवर्तन की कल्पना क्या है? कश्मीरी दो वर्ष बाद भी धारा-370 की बहाली की मांग कर रहे हैं। चीनियों से मुठभेड़ को उतावले उन्हें सीमा पार धकेलने पर अड़े हुए हैं। नागरिकता के सवाल पर सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) और एनआरसी (नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर) को रद्द करने के लिए कई गुट आज भी आमादा हैं। विद्यार्थी चाहते हैं कि पढ़ाई की फीस कम हो, नयी शिक्षा नीति को खत्म किया जाए, परीक्षाओं का सरलीकरण हो, विश्वविद्यालयों में दमन बंद हो और रोजगार मिले।
तालाबंदी की स्थिति में प्रवासी मजदूर को घर लौटने से डंडा भी रोक नहीं पाया था। और तो और, उनकी मदद के लिए एक जन समूह हर शहर, हर सड़क, हर वाहन पर तैनात हुआ। अब मांग रोजगार गारंटी और सामाजिक सुरक्षा पर टिकी हुई है। चार नए श्रम कानूनों ने मजदूर संगठनों को आम हड़ताल के रास्ते पर चलने के लिए मजबूर किया। तीन कृषि कानूनों ने ऐतिहासिक किसान आंदोलन को जन्म दिया। बलात्कार, छेड़खानी, पितृसत्ता और लव-जिहाद के खिलाफ आवाजें तीव्र हुर्इं। अब ‘गोली मारो…को’ जैसे नारों, उससे पैदा नरसंहार और गृह युद्ध की सम्भावना के सामने चुनौती देने वाले अपने-अपने मोर्चे पर डटे हुए हैं।
शायद हमें पचास साल पहले की वैचारिक बहस को फिर से टटोलने की जरूरत है, ताकि एक बेहतर समाज की कल्पना दुबारा सृजित हो सके। अगर हम आपसी वाद-विवाद के जरिये स्वीकार सकें कि वर्तमान की जाति, लिंग, धर्म और वर्ग आधारित दमन की राजनीति कहीं-न-कहीं एक आक्रामक (फासीवादी) पूंजीवादी व्यवस्था से जुडी है, तो शायद प्रतिरोध को भी केंद्र बिंदु मिल सकता है। आधुनिक पूंजीवाद की तीन मुख्य संचालक शक्तियां हैं-अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाना; हमेशा श्रमजीवियों को चूसना; और प्रकृति को उन्मादी प्रवृत्ति से दोहना। गांधीजी के ताबीज (सबसे गरीब, सबसे असहाय की मुक्ति) के आधार पर क्या इन शक्तियों का मुकाबला किया जा सकता है?
इसमें कोई शक नहीं कि संविधान की रक्षा करना एक प्रशंसनीय कार्य है, लेकिन क्या वह एक भावी व्यापक दर्शन की तरफ ले जाता है? अगर ‘निवास’ की जगह ‘श्रम’ को नागरिकता का मूल आधार बनाना और ‘निर्देशक सिद्धांतों’ को बुनियादी अधिकारों के दायरे में लाना जैसी मांग उठाई जए तो क्या वे हमारे संविधान को और जनपक्षीय नहीं बनाएंगे? गरीब के पास न जमीन है, न जन्मपत्री, लेकिन उसके पास मेहनत करने की क्षमता जरूर है और उसी मेहनत के बल पर राष्ट्र का निर्माण होता है। ‘निर्देशक सिद्धांत’ में ही आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक न्याय आखिरी व्यक्ति तक पहुंचाने की सम्भावना है, जिसमें समानता, आजीविका, आहार, स्वास्थ्य, शिक्षा, स्व-शासन, सुरक्षा आदि सब कुछ शामिल हैं।
‘न्यूनतम वेतन’ और ‘न्यूनतम दाम’ की फुटकर मांग की जगह ‘जीवनोपयोगी कीमत’ (जिसमें पूरे परिवार की रोटी, कपड़ा, मकान सहित सभी आर्थिक और सामाजिक सुविधाएं शामिल हैं और जिसे 1957 में ही त्रिपक्षीय- मजदूर, मालिक और सरकार के बीच – मान्यता प्राप्त हुई थी, और जिस पर 1991 में सर्वोच्च न्यायलय का ठप्पा भी लग गया था) के लिए संघर्ष से क्या पूंजी के खिलाफ श्रम की लड़ाई बुलंद नहीं हो जाएगी? और साथ में मजदूर के पारिश्रमिक की लूट से बढ़ते मुनाफे की कल्पना को भी घातक चोट नहीं पहुंचेगी? इस आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक लूट को कैसे रोका जाए, यही एक ज्वलंत सवाल है।
यह समझना जरूरी है कि ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) अगर ‘न्यूनतम वेतन’ पर आधारित होता है तो किसान और मजदूर को उनके श्रम के बदले केवल 20 फीसदी हिस्सा ही मिलेगा; लेकिन अगर ‘जीवनोपयोगी वेतन’ के आधार पर ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ का आंकलन किया जाता है तो मूल्य तीन गुना (जो लगभग खुले बाजार के दाम के बराबर है) बढ़ने के साथ उसमें श्रम का 70 फीसदी हिस्सा भी शामिल हो जाएगा। अगर रासायनिक खेती की जगह पारम्परिक खेती की जाती है तो स्थानीय फसलों का उत्पादन बरकरार रखते हुए उनका खर्च घटेगा और रोजगार के अवसर बढ़ेंगे।
अंत में, नफरत और भेदभाव की राजनीति की बात आती है-उसका क्या करें? जो सत्ता उस घृणा को प्रसारित कर रही है, क्या वो याचिकाओं और निवेदनों और अदालती हुक्मों से बाज आएगी? या उसकी जड़ को पहचानना जरूरी है? वो जड़ जो समाज कल्याण के नाम से पोषित हो रही है। ऐसे गिरोह से मुक्ति पाने के लिए एक इन्सानी परिवार की आवश्यकता है, जो सामूहिक काम और धाम को जोड़कर पारस्परिक सद्भावना और प्रेम के रिश्ते बनाए। अर्थात साथ मिलकर मेहनत करना, साथ मिलकर रहना, साथ मिलकर अपना भरण-पोषण करना, साथ मिलकर नीति बनाना, साथ मिलकर अपना शासन खुद करना: यही साम्यवादी विचार पूंजीवादी शोषण और साम-दाम-दंड-भेद की कूटनीति का उत्तर है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा था, ‘प्रेम ने विश्व से कहा, मैं तुम्हारा हूं; विश्व ने कहा, यह घर तुम्हारा है।’