देश में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है। लेकिन देशभर की नजरें यूपी के चुनाव पर टिकी हैं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यूपी विधानसभा के चुनाव के नतीजे काफी हद तक 2024 के आम चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं। यूपी में पिछले पांच साल से भाजपा का शासन है। 2017 में पार्टी को पहली बार अपनी दम पर जबरदस्त बहुमत हासिल किया था। उसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मोदी लहर के चलते उसे भारी सफलता हासिल हुई। उसके बाद से ये माना जाने लगा था कि यूपी में भाजपा चुनौती विहीन हो चली है। 2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव और राहुल गांधी के गठबंधन ने भाजपा को हराने की कोशिश की थी लेकिन वे कामयाब नहीं हुए। उसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश ने मायावती के साथ गठजोड़ किया जिसे बुआ और बबुआ की जोड़ी कहकर वजनदार माना जा रहा था लेकिन नतीजा कुछ खास नहीं रहा। उस नतीजे से बीजेपी को ये गुमान होने लगा कि वह अजेय हो चली है परन्तु बीते एक साल के भीतर ही माहौल में काफी बदलाव आया है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कानून व्यवस्था के साथ ही विकास के काफी काम किये लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के कहर और फिर किसान आंदोलन की वजह से यूपी में भाजपा विरोधी मुखर होते हुए उत्साहित हुए और आज आलम ये है कि सभी ये मानकर चलने लगे कि मुकाबला कड़ा है। राममंदिर निर्माण की बाधाएं दूर होने और काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के साथ राजमार्गों के जबरदस्त विकास के कारण भाजपा का जो दबदबा अपेक्षित था वह काफी कुछ ठंडा पड़ता दिख रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी ने सोशल इंजीनियरिंग का जो तानाबाना बुना उसने न सिर्फ पिछड़ी अपितु दलित जातियों में भी उसका जनाधार बढ़ा दिया था। लेकिन इस चुनाव के आने से पहले ही पिछड़ी जातियों के कुछ नेताओं के भाजपा का साथ छोड़कर अखिलेश यादव से हाथ मिलाते ही ये अवधारणा फैलने लगी कि यूपी में भाजपा और अखिलेश के बीच सीधा मुकाबला है।
अपने पिता मुलायम सिंह यादव की अस्वस्थता के कारण सपा की पूरी कमा अखिलेश के हाथ में ही है। अखिलेश नाराज चाचा को भी मनाने में कामयाब हो गए। लेकिन अखिलेश यादव को सबसे बड़ा फायदा मिला किसान आन्दोलन का जिसकी वजह से भाजपा को अपने सबसे मजबूत गढ़ पश्चिमी यूपी में जाट समुदाय की जबरदस्त नाराजगी झेलनी पड़ रही है जिसका देखते हुए अखिलेश ने स्व. चरण सिंह के पौत्र और स्व. अजीत सिंह के पुत्र रालोद नेता जयंत चैधरी से गठबंधन कर लिया। इस अंचल में काफी प्रभावशाली माने जाने वाले जाटों के नेता बनकर उभरे किसान नेता राकेश टिकैत के नेतृत्व में गाजीपुर में एक साल तक चले धरने के बाद किसानों में भाजपा के विरुद्ध जो गुस्सा खुलकर सामने आया उसने पूरे राज्य में योगी-मोदी की जोड़ी की इकतरफा जीत पर संशय उत्पन्न कर दिए। हर कोई ये मान रहा है कि अखिलेश ने भाजपा से पिछड़ी जातियों का थोक समर्थन छीन लिया है। वहीं योगी जी के कथित ठाकुर प्रेम के कारण ब्राह्मण भी भाजपा से छिटके हैं। यादव और मुसलमान तो सपा की जेब में ही माने जाते हैं। इसलिए ये कहने वाले काफी हैं कि अखिलेश सत्ता में लौट रहे हैं। जिस तरह 2017 में सपा-बसपा छोड़कर नेता भाजपा में आ रहे थे, उसी तरह इस बार भाजपा में भगदड़ जारी है और सपा का ग्राफ ऊपर जाते देख सारे नेता अखिलेश में संभावनाएं देख रहे हैं। कहा जा रहा है कि अखिलेश ने राजभर, मौर्य, सैनी आदि पिछड़ी जातियों को अपनी तरफ खींचकर भाजपा की हवा निकाल दी है। कुछ और भाजपा विधायकों के पार्टी छोड़ने की अटकलें भी तेज हैं। लेकिन समूचे परिदृश्य में कांग्रेस की उपेक्षा तो एक बार सही भी लगती है, क्योंकि उसका प्रदर्शन चुनाव दर चुनाव निराशाजनक ही रहा है, किंतु तमाम राजनीतिक समीक्षक बसपा को जिस तरह उपेक्षित कर रहे हैं, वह आश्चर्यचकित करता है क्योंकि 2017 के चुनाव में जब उसे 19 सीटें मिली थीं तब भी उसका 22 फीसदी मत प्रतिशत बरकरार रहा था।
चुनाव विश्लेषक ये मानने लगे हैं कि राज्य में भाजपा के अलावा किसी और के पास समर्पित और स्थायी कैडर है तो वह है बसपा के पास। सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों में दलित वर्ग के जो लोग हैं वे बसपा को पर्दे के पीछे से समर्थन देते हैं। भले ही आर्थिक संसाधनों की कमी के नाम पर मायावती ने बड़े आयोजन न करने का ऐलान किया लेकिन उनके कार्यकतार्ओं का काम चुपचाप शुरू हो गया है। जैसी जानकारी मिल रही है उसके अनुसार बसपा की सोच ये है कि यूपी में त्रिशंकु विधानसभा बनने जा रही है और उस स्थिति में वह सौदेबाजी करने में कामयाब हो जायेगी। सबसे बड़ी बात ये है कि उसने यदि अपने परम्परागत जनाधार को बनाये रखा तब अखिलेश के अरमानों पर पानी फिर सकता है।
मायावती ने जिस ठंडे अंदाज में चुनाव में उतरने की घोषणा की वह राजनीतिक विश्लेषकों को इसलिए हैरान कर रहा है क्योंकि वे तामझाम पसंद करने वाली नेता हैं। उनके शैली में आक्रामकता का अभाव रणनीति में बदलाव है या परदे के पीछे चल रहे किसी खेल का हिस्सा ये फिलहाल कह पाना कठिन है किन्तु मायावती किसी भी सूरत में अखिलेश को दोबारा मुख्यमंत्री बनते नहीं देखना चाहेंगी। अभी टिकटों की घोषणा नहीं हुई है इसलिए सारे अनुमान बौद्धिक विश्लेषण पर आधारित हैं। कुल मिलाकर ये चुनाव बीजेपी, सपा, बसपा किसी के लिए भी आसान दिखाई नहीं देता।