प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर स्वच्छता की चर्चा की है। इस बार उन्होंने मन की बात कार्यक्रम में उत्तराखंड के उत्तरकाशी में स्थित झाला गांव के जरिए स्वच्छता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि झाला के युवाओं ने अपने गांव को स्वच्छ रखने के लिए धन्यवाद प्रकृति अभियान चलाया हुआ है। इसके तहत गांव में रोजाना दो घंटे सफाई की जाती है। गांव की गलियों में बिखरे कूड़े को समेटकर गांव के बाहर तय जगह पर डाला जाता है। पीएम मोदी ने कहा कि स्वच्छता को लेकर जारी अभियान से हमें ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को जोड़ना है। यह अभियान एक दिन अथवा एक साल का नहीं है। यह युगों-युगों तक निरंतर करने वाला काम है। जब तक स्वच्छता हमारा स्वभाव बन जाए, यह तब तक करने का काम है।
जब भी स्वच्छता की बात होगी, तो मैला उठाने वाले लोगों का जिक्र जरूर होगा। उनकी समस्याओं पर बात किए बिना स्वच्छता के लक्ष्यों को पूरा करना आसान नहीं होगा। असल में हाथ से मैला ढोने की प्रथा को मैनुअल स्कैवेंजिंग कहा जाता है। यह प्रथा किसी व्यक्ति द्वारा सुरक्षा के बिना और नंगे हाथों से मानव अपशिष्टों को साफ करने, सिर पर रखकर ले जाने या किसी तरह से शारीरिक सहायता से संभालने से जुड़ी है। इसमें अक्सर बाल्टी, झाड़ू और टोकरी जैसे बुनियादी उपकरणों का इस्तेमाल किया जाता है। हाथ से मैला ढोने की प्रथा को किसी सुरक्षा साधन के बिना और नग्न हाथों से सार्वजनिक सड़कों एवं सूखे शौचालयों से मानव मल को हटाने, सेप्टिक टैंक, गटर एवं सीवर की सफाई करने के रूप में परिभाषित किया गया है।
हालांकि भारत ने मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोजगार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम-2013 के तहत इस प्रथा पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। यह अधिनियम किसी भी व्यक्ति द्वारा मानव मल को उसके निपटान तक मैन्युअल रूप से साफ करने, ले जाने, निपटाने या अन्यथा किसी भी तरीके से हैंडलिंग पर प्रतिबंध लगाता है। यह अधिनियम हाथ से मैला ढोने की प्रथा को अमानवीय प्रथा के रूप में परिभाषित करता है। इससे पहले साल 1993 में देश ने मैला ढोने वालों के रूप में लोगों के रोजगार पर प्रतिबंध लगा दिया था। हालांकि इससे जुड़ा कलंक और भेदभाव अभी भी बना हुआ है। साल 2020 में हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास (संशोधन) विधेयक लाया गया। यह सीवर की सफाई को पूरी तरह से मशीनीकृत करने, आॅन-साइट सुरक्षा के तरीके अपनाने और सीवर में होने वाली मौतों के मामले में कर्मियों के परिवार को मुआवजा प्रदान करने का प्रस्ताव करता है।
दरअसल, भारत में व्यवसाय और जाति के बीच एक गहरा संबंध है। हाथ से मैला ढोने की प्रथा एक विशेष जाति से संबंधित है। स्वच्छ भारत अभियान इस महत्वपूर्ण विषय का संज्ञान नहीं लेता है। ऐसा क्यों है कि पिछले चार हजार से भी अधिक सालों से एक ही समुदाय के लोग मल-मूत्र उठा रहे हैं? यदि स्वच्छ भारत अभियान को कामयाब बनाना है, तो इस प्रथा को बंद करना होगा। इसके साथ ही इस समुदाय के लोगों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करना होगा। संविधान के अनुच्छेद-17 में छुआछूत के उन्मूलन की बात की गई है, लेकिन आज भी एक विशेष समुदाय द्वारा सिर पर मैला ढोया जाना इस बात का सूचक है कि देश में एक बड़ा तबका अपने मूल अधिकारों की प्राप्ति से भी अभी भी वंचित है। वहीं हाथ से मैला ढोने की प्रथा संविधान के अनुच्छेद-21 का भी उल्लंघन है, जो मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार की गारंटी देता है।
वैसे तो भारत में मैला ढोने को कानूनी तौर पर तो प्रतिबंधित कर दिया गया है, लेकिन समस्या यह है कि लोग स्वयं के अपशिष्ट को भी साफ करने को धार्मिक आधार पर एक प्रतिबंधित कृत्य मानते हैं। अत: शौचालयों के गड्ढे भर जाने के डर से वे खुले में शौच करने से भी नहीं कतराते। हाल के वर्षों में सीवर की सफाई के दौरान कई मजदूरों की मौत हो गई, जिन्हें न तो उचित उपकरण उपलब्ध कराए जाते हैं और न ही उनकी सामाजिक सुरक्षा का प्रबंध किया जाता है। इन परिस्थितियों में तो यही लगता है कि स्वच्छ भारत अभियान शायद ही अपने उद्देश्यों की प्राप्ति कर सके। हाथ से मैला ढोने के पीछे की सामाजिक स्वीकृति को संबोधित करने के लिए पहले यह स्वीकार करना और समझना आवश्यक है कि कैसे और क्यों जाति व्यवस्था के कारण हाथ से मैला ढोना जारी है।
एक अनुमान के अनुसार, देश में लगभग 26 मिलियन अस्वास्थ्यकर शौचालय हैं। आंकड़ों के अनुसार, देश में हाथ से मैला ढोने वालों में लगभग 42,594 कर्मी अनुसूचित जाति, 421 अनुसूचित जनजाति और 431 अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित हैं। सरकार का दावा है कि वर्तमान में मैनुअल स्कैवेंजिंग में संलग्न लोगों की कोई रिपोर्ट नहीं है और पांच वर्षों (2013-2018) में इस अभ्यास के कारण किसी की मौत की कोई सूचना नहीं है, लेकिन सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक के अनुसार, वर्ष 2016 से 2020 के बीच देश भर में इस कार्य से जुड़े 472 कर्मियों की मौत हुई। हाल ही में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने लोकसभा को बताया कि विगत तीन वर्षों (वर्ष 2019 से 2022) में मैनुअल स्कैवेंजिंग के कारण किसी भी व्यक्ति की मृत्यु नहीं हुई है। हालांकि इस अवधि में सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई करते समय दुर्घटनाओं में करीब 233 लोगों की मृत्यु हुई है।
कुछ मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, देश में कई ऐसी बड़ी संस्थाएं हैं, जहां हाथ से मैला ढोने वाले कर्मी कार्यरत हैं। ऐसी संस्थाएं या तो इन कार्य को ठेकेदारों को आउटसोर्स करने के तरीके ढूंढ लेती हैं, ताकि उन्हें सीधे जवाबदेह या उत्तरदायी न ठहराया जा सके अथवा ऐसे श्रमिकों को स्वीपर के रूप में गलत तरीके से दिखाया जाता है। सरकार की प्रतिक्रिया उदासीनता की गहरी भावना को दर्शाती है। यह समझने की जरूरत है कि समस्या से इनकार करना केवल उसके समाधान में देरी में ही योगदान देता है। सीवर में होने वाली मौतें आज भी एक वास्तविकता है। देश अभी भी हाथ से मैला ढोने वालों के पुनर्वास के मामले में बहुत पीछे है। सरकार की योजना के तहत 40,000 रुपए की एकमुश्त नकद सहायता, कौशल विकास प्रशिक्षण और स्वरोजगार परियोजनाओं के लिए पूंजीगत सब्सिडी प्रदान करती है।
हालांकि अभी भी इन योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन की आवश्यकता है।
असल में सरकार और समाज को इस मुद्दे पर सक्रिय रूप से रुचि लेने की जरूरत है और इस प्रथा का सही आकलन कर इसके उन्मूलन के लिए सभी संभावित विकल्पों पर गौर करने की आवश्यकता है। हाथ से मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने के लिए समस्या के मूल को समझना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। कोई और कार्य कर सकने के लिए कौशल की कमी एवं समाज की ओर से भेदभाव वे प्रमुख कारण हैं, जिसके कारण कुछ लोग आज भी ऐसे कार्यों को करने के लिए मजबूर हैं।