किसी समय की बात है, रत्नाकर नाम का एक लुटेरा राहगीरों को लूटता और लूट की कमाई से अपना तथा अपने परिवार का पेट पालता था। एक बार उसे निर्जन वन में नारद मुनि कुछ अन्य संतों के साथ मिले। रत्नाकर ने उन्हें लूटने का प्रयास किया। तब नारद जी ने रत्नाकर से प्रश्न किया, तुम यह निम्न कार्य किसलिए करते हो? इस पर रत्नाकर ने जवाब दिया, अपने परिवार को पालने के लिए। इस पर नारद जी ने पूछा, तुम जो भी अपराध अपने परिवार के पालन के लिए करते हो, क्या वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनने को तैयार होंगे? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए रत्नाकर, नारद को पेड़ से बांधकर अपने घर गए। घर जाकर उन्होंने अपने घर वालों से प्रश्न किया, मैं राहगीरों को लूटकर आप सभी का पालन-पोषण करता हूं। कल जब मेरे इस पाप कर्म के लिए मुझे दंड मिलेगा तो क्या आप मेरे पाप कर्म में भागीदार बनेंगे? रत्नाकर यह जानकर स्तब्ध रह गए कि परिवार का कोई भी व्यक्ति उनके पाप का भागीदार बनने को तैयार नहीं है। लौटकर उन्होंने नारद जी के चरण पकड़ लिए। तब नारद मुनि ने कहा कि, हे रत्नाकर, यदि तुम्हारे परिवार वाले इस कार्य में तुम्हारे भागीदार नहीं बनना चाहते तो फिर तुम क्यों उनके लिए यह पाप करते हो? इस तरह नारद जी के उपदेश ने रत्नाकर की आंखों से अज्ञान का पर्दा हटा, उन्हे सत्य के दर्शन करवाए और उन्हें राम-नाम के जप का उपदेश भी दिया, परंतु रत्नाकर राम शब्द का उच्चारण नहीं कर पा रहे थे। तब नारद जी ने विचार करके उनसे ‘मरा-मरा’ जपने के लिए कहा। और ‘मरा’ रटते रटते वही शब्द ‘राम राम’ हो गया।
-प्रस्तुति: राजेंद्र कुमार शर्मा
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