बदलते वक्त के साथ किशोरों के मनोभाव भी बदल रहे हैं। जिसकी परिणति यह हुई है कि अब कम उम्र के बच्चे भी स्वच्छंद रहने की चाह रखने लगे हैं। वे अपने ऊपर किसी तरह का दबाव, तनाव और सख्ती नहीं चाहते। तभी तो छोटी-छोटी बात पर ये मासूम जान देने को तैयार हो जाते हैं और यह भी नहीं सोचते कि उनके जाने के बाद माता-पिता और परिजनों पर क्या बीतेगी! हालिया दौर में तीन ऐसी घटनाएं घटीं, जिसने किशोरों में बढ़ती स्वच्छंदता की चाह और धैर्य की कमी को रेखांकित किया। पहली घटना बिहार के बगहा की है। जहां पर एक मां ने 13 वर्षीय अपनी बेटी को खाना बनाने को कहा, तो उसने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली और दूसरी घटना धनबाद की है, जहां एक किशोर के पिता ने जबरन बाल क्या कटवा दिए, तो किशोर ने भी मौत को गले लगा लिया। ऐसा ही एक दु:खद वाकया कोलकाता में भी देखने को मिला, जहां एक मां ने अपने बच्चे को मोबाइल पर गेम खेलने से मना किया तो किशोर ने फांसी लगाकर जान देना उचित समझा। इन तीनों किशोरों के उम्र की बात करें तो तीनों ही टीनएज के हैं, लेकिन इनके भीतर की बढ़ती स्वच्छंदता ने इन्हें अपनों से दूर कर दिया। ऐसे में इस प्रकार की घटनाएं बच्चों की मानसिकता में आई नकारात्मकता को तो दर्शाती ही है, साथ में चिंता इस बात की भी है कि आखिर परिजन इन बच्चों के साथ किस तरह का व्यवहार करें? जिससे किशोरों को मौत के मुंह में जाने से बचा सकें!
बदलती सामाजिक परिस्थितियों के बीच लोगों की भावनाओं में परिवर्तन होना स्वाभाविक है, लेकिन कोई मानसिक रूप से इतना कमजोर हो जाए कि छोटी सी बात पर मौत को गले लगा ले, तो यह चिंता की बात है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत की 7.5 फीसदी आबादी मानसिक समस्या से जूझ रही है। यह बात उतना उलझन में नहीं डाल रही, जितना की इन युवाओं द्वारा छोटी-छोटी बात पर आत्महत्या कर लेना। जिंदगी एक खूबसूरत एहसास है, इसे जीने की कला आनी चाहिए। आखिर ये बात हमारे युवा क्यों नहीं समझ पा रहें हैं। किसी बात की मनाही होने या काम करने की सलाह मिलने पर मौत को गले लगाना हरगिज उचित नहीं है।
इतना ही नहीं बच्चों के मन में क्या चल रहा है, इसे जानने के लिए माता-पिता को भी उनका दोस्त बनना होगा, ताकि बच्चे अपनी बातें उनसे साझा कर सकें। तभी ऐसी घटनाओं पर लगाम लग सकती है। वर्तमान दौर में आधुनिक होती जीवनशैली का भी बच्चों के कोमल मन मस्तिष्क पर गहरा असर हो रहा है। एकल परिवार का बढ़ता चलन और अभिभावकों की व्यस्तता ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है। बच्चे एकाकी हो रहे हैं और अपना अधिकतर समय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बिता रहे हैं।
यहां उन्हें कोई रोकने टोकने वाला नहीं होता है। बच्चे क्या देख सीख रहे है इसकी समझ उन्हें नहीं होती है। इससे उनका बाल मन भी दूषित हो जाता है। यही वजह है कि बच्चों में हिंसक प्रवर्ति बढ़ रही है। बच्चों को इन दुष्प्रभावों से बचाने के लिए सबसे पहली जरूरत है कि उन्हें पर्याप्त समय दिया जाए। बचपन वह धुरी है जो बच्चों की नींव तैयार करती है उन्हे आत्मबल देती है और समाज के प्रति उनका नजरिया बनाती है। ऐसे में बच्चों को सही सीख देकर उनका भविष्य अंधकारमय होने से बचाया जा सकता है।
टेक्नोलॉजी ने हमारे आसपास से क्या कुछ नहीं छीना है? गौर करेंगे तो हम देखते हैं कि इसी तकनीक ने बच्चों की मासूमियत को छीन लिया है! बच्चे समय से पहले बड़े हो रहे हैं। इतना ही नहीं, इसी तकनीक ने अब मानवीय मूल्यों से भी खेलना शुरू कर दिया है। जो एक सभ्य समाज के लिए बेहद दुखद और त्रासदीपूर्ण है। ऐसे में तकनीक ने भले हमें सक्षमता प्रदान की है, लेकिन इसी सक्षमता के साथ हम सभी मानसिक रूप से रुग्ण बनते जा रहे हैं। आज हमारे टीनएजर्स जिन्हें हम नाबालिग कहते हैं, वो इसी तकनीक की वजह से मानसिक रूप से कमजोर और दूषित मानसिकता के शिकार हो रहे हैं। समय से पहले बच्चे बड़े हो रहे हैं।
उन्हें किसी भी तरह की रोकाटोकी रास नहीं आ रही है। जरा-जरा सी बात पर बच्चे न केवल हिंसक हो रहे, बल्कि मौत को भी गले लगा रहे हैं। जीने से कहीं ज्यादा उन्हें मर जाना आसान लगने लगा है। सब की जुबां पर एक ही प्रश्न है कि आखिर इतनी कम उम्र में उसने ऐसा क्यों किया? खासकर छोटे बच्चे जो बहुत ही कोमल और भावुक होते हैं, वे छल-कपट से भरी इस दुनिया में खुद को एडजस्ट नहीं कर पाते हैं। छोटी-छोटी बातें कोमल मन को कचोटती हैं। अपना दर्द किसी से साझा नहीं कर पाने का मलाल मौत को गले लगाने की वजह बन जाता है।
सरकारी रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों की माने तो साल 2017 से 2019 के बीच 24000 बच्चों ने आत्महत्या को गले लगाया। कहते हैं, जब एक किशोर आत्महत्या का प्रयास करता है, तो यह एक राष्ट्र की दयनीय स्थिति को प्रकट करता है। बच्चे राष्ट्र की दौलत होते हैं। वे देश का भावी भविष्य होते हैं। ऐसे में बच्चे ही गलत राह पर चलने लगे तो फिर देश का विकास की रफ़्तार भी थम जाती है।
ऐसी परिस्थिति में माता-पिता को उन्हें एक बेहतर इंसान बनाने के लिए ढालना होगा, जो देश को आगे बढ़ा सके। बच्चों को उनके करियर और रुचि के क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी जानी चाहिए। अक्सर देखा गया है कि युवाओं में आत्महत्या की दर में वृद्धि का कारण बढ़ता अवसाद, युवावस्था, अकेलापन है। बच्चे जिद्दी हो रहे हैं, अपनी बात मनवाने के लिए हर हद को पार करने को उतारू हो रहे हैं। उनमें आक्रमकता बढ़ रही है। यहां तक कि अपराध और ड्रग्स जैसी बुराइयों में भी संलिप्तता बढ़ रही है।