Friday, July 5, 2024
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एक डॉक्टर की मौत!

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Ravivani copy


dr mejar himanshuकई दशक पहले इस शीर्षक की फिल्म आई थी, पर आज यह सवाल बन कई अलग अलग रूपों में खड़ा है। असल जिंदगी में इस साल एक महिला डॉक्टर वंदना मोहनदास को केरल में मरीज के तीमारदारों ने मार डाला और असम के एक बुजुर्ग डॉक्टर को मरीज के साथ आई भीड ने 2019 में। बीते कोरोना काल में कितने ही डॉक्टर जान गंवाए। एक बिगडे केस में एक महिला डॉक्टर को राजस्थान में इतना बदनाम व प्रताडित किया गया कि उसने आत्महत्या कर ली। हाल ही में एक युवा कार्डियक सजर्न दिल की ही बिमारी में 40 साल की उम्र में चल बसा। हर शहर के और आसपास के एैसे वैसे अनेक उदाहरण हैं। जीवन मृत्यु के संघर्ष से डॉक्टरी पेशे का चोली दामन का साथ है। मेडिकल कॉलेज में दाखिले को तैयारी करते छात्रों के नाकामी में ‘कोटा कोचिंग’ जैसे ही दुखद आंकडे हैं।

मैडिकल कॉलेज में पढ़ाई के दौरान हर बैच में एक दो आत्महत्या एक तथ्य है। कारण जुदा हो सकते हैं। कॅरियर के प्रेशर कुकर की सीटी स्कूल के दिनों से ही बजनी शुरू हो जाती है। बचपन की टूटन भी। संघर्ष निखारता है, तोड़ता भी है। कामयाबी ऊर्जा भरती है असफलता अवसाद।

पढ़ाई के दम पर हमारे जैसे मध्यमवर्गीय बच्चे डॉक्टरी कर पाए। अब तो चिकित्सा शिक्षा के निजीकरण के बाद डॉक्टरी की पढाई सामान्य परिवारों के बच्चों के लिए आर्थिक मानसिक बोझ है। बहुतों के लिए यह सपनों की मौत है। महंगी पढ़ाई ने इलाज महंगा कर पहुंच के बाहर कर दिया।

यह बिना इलाज जिंदगी हारने वालों की मौत है। उसका गुस्सा डॉक्टरों से है, गलती हो या न हो। एक करोड़ की एमबीबीएस वाले से फकीरी की उम्मीद बेकार है। डॉक्टरी को नोबल पेशा कहा गया और डॉक्टर को भगवान बताया गया। डॉक्टर ने यह रूतबा मांगा नहीं।

उन्होंने पढ़ाई की, दाखिला लिया, फीस जमा की, इम्तेहान पास किए, पूरी जवानी आराम-तफरीह कुर्बान की और डॉक्टर बने। ज्यादातर डॉक्टर बने इज्जतदार मोटी कमाई के लिए। डॉक्टरी पेशे में कमाई बिल्कुल है पर तपस्या भी है। तपस्या सब पेशों में है। इसमें कुछ ज्यादा है।

पारम्परिक तौर पर पढ़ाई में तेज बच्चे साइंस लेते थे और उसमें से भी श्रेष्ठ बच्चे डॉक्टर, इंजीरियर बनते थे। अपवाद हर क्षेत्र में हैं। इन स्कूल में अव्वल रहे, डॉक्टर, इंजीनियर बने बच्चों की एक बड़ी कुंठा असली जीवन में पढ़ाई में अपने से काफी कमतर रहे अफसरों और नेताओं के इशारे पर नाचने को मजबूर होने की है। ज्यादा दिल को लगा लो तो मर-मर कर जीने की है।

कई पराक्रमी पेशा बदल लेते हैं, कुछ विदेशों का रुख कर लेते हैं। यह इनकी ट्रेनिंग पर हुए देश के मोटे खर्च की बर्बादी है और देश के सपनों की मौत भी। वैसे विदेशों में भी भारतीय डॉक्टरों ने कम नाम नहीं कमाया है! नाम तो देश में भी डॉक्टर कम नहीं कमाते।

बदनाम भी खासे होते हैं। देश के उच्चतम पद पर आसीन लोग तक उन्हें दवाई कंपनियों द्वारा महिलाएं तक सप्लाई होने की बात सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं। कहने वालों ने माफी मांगने की जरूरत महसूस नहीं की और डॉक्टरों की हैसियत किसी दरोगा से भी माफी ले लेने की नहीं। यह बुद्धिजीवी और पवित्र माने जाने वाले डॉक्टरी पेशे की मौत की सार्वजनिक घोषणा थी या डॉक्टरों का विधिवत चरित्र प्रमाणन समरोह?

पेशेवर वकीलों के विपरीत प्राइवेट पै्रक्टिस वाले डॉ. हिंसा, उदंडता, छुटभैय्ये नेताओं, गुंडा तत्वों, शातिर कानूनचियों और तथाकथित मीडिया वालों तक के आसान शिकार हैं और इनका भी संघर्ष नहीं व्यवहारिकता के नाम पर समझौते में विश्वास है।

रिश्तेदार, परिचित, पड़ोसी अधिकार पूर्वक इनकी सेवाओं को मुफ्त मानते हैं और वाजिब फीस मांग लेने पर इन्हें मानवताहीन, मुनाफाखोर कह देते हैं। सेलेब्रेटी, नेता, अफसर और उपद्रवी तत्वों को बिल देने की देश में परम्परा है नहीं और कमजोर गरीब को बख्शने की परम्परा अब रही नहीं। कहीं-कहीं ही रोशनी जो है, बस वो ही उम्मीद है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार 75 प्रतिशत चिकित्सकों ने कभी न कभी अपनी पेशेवर जिंदगी में किसी न किसी प्रकार की हिंसा का सामना किया है। इसमें 12 प्रतिशत शारीरिक हिंसा के मामले हैं। ज्यादातर मामले सघन चिकित्सा यूनिटों या सर्जरी वार्डों के हैं, जहां मरीज की मौत या गंभीर हालात कारण होते हैं और इसे अंजाम दुख और आक्रोश में मरीज के साथ के लोग देते हैं।

आक्रोश गलत भी हो तो भी यह स्वाभाविक है, समझ आता है, पर जानलेवा हिंसा तो अपराध ही है। चिकित्साकर्मियों के प्रति आदर भाव कम होना चिंतनीय है। चिकित्सा कर्मियों की सुरक्षा महत्वपूर्ण मुद्दा है, पर इसका समुचित समाधान सिर्फ सख्त कानून, कड़ी सजा, सीसीटीवी कैमरे, बीमा, मुआवजा ही नहीं है। पुलिस राज तो बिल्कुल नहीं। मामला कानून व्यवस्था से ज्यादा संवेदनाओं से तालमेल, परस्पर संवाद और विश्वास का है।

मरीजों का विश्वास तोड़ने के डॉक्टर तो दोषी हैं ही पर अब मरीज भी कम खुराफाती नहीं हैं। मुकदमेबाजी के शौकीनों की तो बात ही क्या! इसमें कोई भेद नहीं कि डॉक्टरों को मरीजों की करायी जाने वाली जांचों से लाभ संभव है, पर मरीज का खर्च बचाने के लिए जांच न लिखकर, आधे अधूरे ज्ञान या कानूनची मरीजों के हाथों तब मुकदमेबाजी में उलझने का खतरा भी है।

खतरा कौन समझदार उठाता है, फायदा सब। भ्रूण जांच व हत्या और अंगों की चोरी जैसे जघन्य अपराधों की तो कोई भी सफाई संभव नहीं है। पश्चिमी देशों की तुलना में देश में डॉक्टरों की कमी रही। डॉक्टर मरीज अनुपात अनुकूल नहीं रहा। डॉक्टर अस्पतालों में लगातार 48-48 घण्टे ड्यूटी पर रहते हैं, खासकर रेसीडेंट डॉक्टर।

चाहे पैसे के लिए या मरीज के लिए, जनता को स्वस्थ जीवन के गुर देने वाले इन डॉक्टरों की दिनचर्या व जीवन शैली स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ही है। गुणवत्ता युक्त मेडिकल कॉलेज खोलना और चलाना सरकारों के लिए महंगा और मुश्किल है। आसान रास्ता सरकार को निजीकरण मिला और यह व्यापार बना।

उत्तराखंड समेत अविभाजित उत्तर प्रदेश सरकार के अन्तर्गत 06 मैडिकल कॉलेज थे। पश्चिमी यूपी व उत्तराखंड समेत सिर्फ 02, मेरठ और आगरा। ऐप्रन लिए पहले साल के छात्र की भी शहर में पहचान, इज्जत थी सिटी बस तक में भी। आज अकेले मेरठ में कई मेडिकल कॉलेज है और बहुत तरीके के ऐप्रन भी।

डेंटल कॉलेजों की गिनती ही नहीं है। इंजीनियरिंग कॉलेज धड़ाधड़ बन्द हुए हैं। प्रोफेशनल शिक्षा दूधारू गाय बनी और सरकार ने जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। यह डॉक्टरी पेशे में गुणवत्ता की मौत थी और सम्मान में गिरावट भी।
इस दुर्गति की नींव डॉक्टर नहीं, गलत नीतियां हैं। डॉक्टर तो इस विवादित इमारत का सबसे ज्यादा दिखने वाला काउंटर भर है।

सिर्फ काउंटर बदलने से इमारत को नहीं बचाया जा सकता। चिंता यह है कि यह अब भांग चरस बोने बांटने का काउन्टर बनता जा रहा है। आज जब खुद गांव का आदमी शहर का रुख किए है तब करोड़खर्च कर सिर्फ एमबीबीएस करने वाले से भी दूर-दराज या गांव में बसने की उम्मीद बेमानी है।

वहां जनता आज भी बिना औपचारिक चिकित्सा शिक्षा प्रशिक्षण प्राप्त लोगों के भरोसे है, जिन्हें अपमानपूर्वक ‘झोलाझाप’ कोरोना काल में जब सब रामभरोसे दिखा तो स्वास्थ्य सेवाओं के सभी सरकारी दावों की पोल भी खुल गई। डिग्री प्राप्त डॉक्टर इन ‘झोलाछाप’ को समस्या मानते हैं और इन्हीं के साथ एक कमीशन तंत्र भी काफी डॉक्टर ही चलाते हैं। भांग घड़े में नहीं, कुंए में है।

जनता को डॉक्टर काबिल भी चाहिए और बिना घर परिवार का फकीर भी। खुद जनता को फकीर नहीं फकीरी का पाखंड पसंद है। किस्से तो डॉ. कोटनीस और विधान चन्द्र राय के बहुत हैं। जनता के चहेते होने के और हाल में भी अच्छे डॉक्टरों के समर्थन में भीड़ सडकों पर आई है। उन्हें स्वतंत्र उम्मीदवार चुनाव तक जिताया हैं। पर यह व्यक्तिगत है।

किसी डॉक्टर की समय, असमय प्राकृतिक या दुर्घटनावश मौते पर जनता में गम न होना बल्कि व्यक्तिगत या पेशे की खामियों का जिक्र होना डॉक्टर बिरादरी की सामूहिक विफलता है। यह पेशे की साख का गिरना है। सोशल मीडिया के दौरे में यह बेइज्जती दिखती भी ज्यादा है।

डॉक्टर भगवान नहीं इंसान ही है, यह जनता को समझना चाहिए। मरीज सिर्फ ग्राहक नहीं है, इंसान भी है और डॉक्टरी सिर्फ कोई भी दुकानदारी नहीं है, यह चिकित्सकों को समझना होगा। डॉक्टर व्यक्ति नहीं, मानव सभ्यता की एक संस्था है और इसे पेशे में संवदेनहीनता, किसी डॉक्टर की नहीं, सभ्यता का पतन और इस संस्था की मौत है। इस देश में तो व्यापार में भी ‘सिर्फ लाभ’ की नहीं ‘शुभ लाभ’ की परम्परा है।


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