Friday, September 29, 2023
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आधी सदी को साकार करते संस्मरण!

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RAVIWANI


SUDHANSHU GUPTमैंने अज्ञेय को नहीं देखा, रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को भी नहीं देखा, कृष्णा सोबती और नरेश सक्सेना को भी मैं नहीं देख पाया, पत्रकारिता में रहने के बावजूद राजेन्द्र माथुर और राजकुमार केसवानी से भी कभी नहीं मिला, श्रीकांत वर्मा, नेत्रसिंह रावत और चंद्रकांत देवताले से भी कभी मुलाकात नहीं हुई। मन में हमेशा एक टीस-सी रही, इन सबसे न मिल पाने की। लेकिन वरिष्ठ कवि, कहानीकार, व्यंग्यकार विष्णु नागर को मैंने देखा है। उनके संस्मरणों की दूसरी पुस्तक-‘राह इनकी एक थी’ (संभावना प्रकाशन) के बहाने अब इन सबको देख पाया हूं। केवल इनको ही नहीं, बल्कि उस समय को भी देख पाया, जिसे विष्णु नागर ने संस्मरणों के बहाने साकार किया है।

हालांकि अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे, पंकज सिंह, मृणाल पांडे, असगर वजाहत से मेरी मुलाकात इकतरफा ही रही। इब्बार रब्बी से मैं 81-82 के आसपास मिला था। पता नहीं क्यों उनसे भी अपने संकोच के कारण मेरा बहुत ज्यादा संवाद नहीं हो पाया। मृणाल पांडे जी से मैं काफी लम्बे समय से मिलता रहा।

लेकिन ये मुलाकातें सम्पादक और फ्रीलांसर जैसी ही रहीं। हिन्दुस्तान में जब वह सम्पादक बनकर आईं तो मुझे बेपनाह खुशी मिली थी। लेकिन यहाँ भी रिश्ता सम्पादक और उप सम्पादक के बीच का ही रिश्ता बना रहा। ‘राह इनकी एक थी’ पढ़ते हुए लगा कि वास्तव में वह समय कितना समृद्ध था, जब साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में इतने दिग्गज एक साथ सक्रिय थे।

1971 में मध्य प्रदेश के शाजापुर कस्बे से एक युवा (विष्णु नागर) दिल्ली आता है-रोजगार की तलाश में। दिनमान पढ़ने वाला यह युवक सबसे पहले दिनमान के ही दफ्तर (7बहादुर शाह जफर मार्ग) पहुंचता है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से मुलाकात हो जाती है। सर्वेश्वर की सलाह पर रघुवीर सहाय से मुलाकात होती है।

तब दिल्ली में सम्पादकों और कवियों से मिलना कितना सहज था। कुछ काम मिसने की उम्मीद बंधती है। काम मिलना शुरू होता है। विष्णु नागर ने दिनमान में लिखना शुरू कर दिया। उस समय दिनमान में लिखना बड़ी बात मानी जाती थी। इसी के आधार पर पहले दिल्ली में और बाद में बंबई में नागर जी का चयन हो गया। रघुवीर सहाय की कविताएँ पसंद करने वाले विष्णु नागर के उनके साथ रिश्ते प्रगाढ़ होते चले गए।

रघुवीर सहाय को संस्मरण में याद करते हुए नागर जी अपने जीवन संघर्ष के साथ सहाय जी की कविताओं को भी याद करते हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से भी इसी कालखण्ड में हुआ परिचय बना रहा। हालांकि इस संस्मरण के अंत में नागर जी लिखते है: मुझे दुख है कि सर्वेश्वर जी के पराग का संपादक बनने से लेकर उनकी मृत्यु तक के काल में (और उसके बाद भी) मैं विदेश में था।

मुझे इस बात का अफसोस हमेशा रहेगा कि मैं उन्हें अंत समय देख नहीं सका। इन संस्मरणों की खास बात यह भी है कि नागर जी ने जिनपर संस्मरण लिखे जा गये हैं, न तो उनका प्रशस्तिगाण किया है और न ही खुद को महान बनाने का कोई लोभ दिखाया है।

बल्कि जहाँ भी संभव हुआ अपनी प्रतिबद्धता और राय को खुलकर कहा है। चाहे कृष्णा सोबती से उनके खटास-मिठास के रिश्ते रहे हों या अच्छे कवि रहे विष्णु खरे की जटिलताएँ। ‘ज्ञेय होकर अज्ञेय’ में नागर जी कहते कि ‘चौथा सप्तक’ पर लिखते हुए मैंने उसकी भूरी-भूरी और विस्तृत निंदा की। सब जानते और मानते हैं कि ‘चौथा सप्तक’ पहले के तीन सप्तकों में कुछ जोड़ता नहीं, घटाता है।

वह यह भी लिखते है: दरअसल, पिछली सदी के आठवें दशक तक आते-आते बल्कि उससे पहले ही अज्ञेय उस समय की कविता और उसके कवियों से काफी दूर आ चुके थे। अज्ञेय की कविता संबंधी धारणा और पसंद में वह खुलापन नहीं रह गया था, जो पहले हुआ करता था।

इसी संस्मरण में नागर जी रघुवीर सहाय को अज्ञेय से बड़ा कवि बताते हैं। यह बात उन्होंने अशोक वाजपेयी के सामने कही। वाजपेयी अज्ञेय को बड़ा कवि मानते हैं। यह वाकया इंडिया इंटरनेशल में जब हुआ तो वरिष्ठ कहानीकार और पत्रकार मधुसूदन आनन्द भी उनके साथ थे। अशोक वाजपेयी पर लिखे संस्मरण में नागर जी उनके साथ अपनी निकटता और दूरियों का उल्लेख करते हैं।

हालांकि वह अशोक वाजपेयी की कविताएँ कॉलेज के दिनों से पढ़ रहे थे और रात के समाचार उद्घोषकों में देवकीनंदन पांडे से अधिक अशोक वाजपेयी की आवाज के मुरीद थे। ‘पहचान’ में कविताएं आने के बाद नागर जी के अशोक जी से व्यक्तिगत संबंध बने और समकालीन कवियों से कुछ-कुछ बनने शुरू हुए।

लेकिन वह यह भी साफ कहते हैं कि अशोक जी से मेरे संबंधों में उतार-चढ़ाव आते रहे। संस्मरण के अंत में वह लिखते है: तमाम विरोधों-असहमियों के बावजूद उन जैसा दूसरा सभी कलानुशासनों में गति और रुचि रखने वाला सक्रिय सांस्कृतिक व्यक्तित्व हमारे पास दूसरा नहीं है। उनमें गजब का सेंस आॅफ ह्यूमर है, जिसका इधर काफी अभाव है। यह वह समय था जब असहमतियों और विरोध के बावजूद आप मित्र बने रह सकते थे।

श्रीकांत वर्मा के बहाने विष्णु नागर कवि के अकेलेपन की बात करते हैं। बंबई से दिल्ली आने से पहले उन्होंने सांसद श्रीकांत वर्मा से भी अपना स्थानांतरण कराने के लिए कहा था। लेकिन श्रीकांत वर्मा ने उन्हें एक पत्र लिखते हुए कहा था-अकसर महसूस होता है कि मैं अपने मित्रों, युवा लोगों और जरूरतंदों की मदद करने की स्थिति में नहीं हूं।

जब तक सत्ता स्वयं अपने हाथ में न हो, दूसरों के लिए कठिन होता है। श्रीकांत वर्मा पर लिखा संस्मरण काफी लंबा है, जो सत्ता और कविता के रिश्ते तलाशता है। विष्णु नागर ने पंकज सिंह को सच्चे मित्र के रूप में याद किया है और मंगलेश डबराल को याद करते हुए एक कवि के न होने की स्थितियों के बहाने अर्थ तलाशे।

एक मित्र के रूप में मंगलेश को याद करते हुए की कविताओं का भी उल्लेख किया है। इस संस्मरण को पढ़कर मंगलेश के व्यक्तित्व के अनेक पहुलओं को बेहतर ढंग सें जाना जा सकता है। इब्बार रब्बी पर भी बेहद आत्मीयता से लिखा संस्मरण है। यह बताता है कि रब्बी होने का क्या अर्थ है।

असगर वजाहत पर लिखा संस्मरण उन्हें अजातशत्रु बनाता है। राजेन्द्र माथुर को नागर जी ने माथुरयुग के रूप में याद किया है। यहां से आप देख सकते हैं पत्रकारिता कहां से कहां पहुंच गई है। मृणाल पांडे को वह गरिमामय लोकतांत्रिक व्यक्तित्व बताते हैं।

चंद्रकांत देवताले का संस्मरण वास्तव में शोक में पढ़ी गई कविता है। 15अगस्त 2017 के दिन चंद्रकांत देवताले अपने घर में मृत पड़े थे। उनके अंतिम संस्कार के लिए कुछ लोग इकट्ठे हुए थे। नागर जी भी थे। इस कवि को अंतिम विदाई देने के लिए उन्हीं की एक कविता का पाठ किया जाता है। सब भावुक हो रहे हैं। पता नहीं देवताले अपनी इस कविता को सुन पाए होंगे या नहीं!

संस्मरणों की यह पुस्तक वास्तव में आठवें दशक की साहित्यिक और पत्रकारिता के समृद्ध समय को साकार करती है। साथ यह भी बताती है कि नागर जी अपने काम के प्रति कितने ईमानदार, प्रतिबद्ध और पारदर्शी हैं। उनकी भाषा में सहजता और सरलता हैं। उनके व्यवहार की तरह यहां आपको कोई पाखंड नहीं दिखाई देगा।


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