जनवाणी संवाददाता |
मेरठ: पिछले चार-पांच दशकों में जनप्रतिनिधियों ने महानगर के लिए कुछ नहीं किया। सिवा बड़े-बड़े वादे और दावों के। दावे भी ऐसे जो सालों साल उड़ान भरते रहे पर धरातल पर कहीं कुछ दिखाई नहीं दिया। जनप्रतिनिधियों की हवाई बातों का ही नतीजा है कि आज शहर तमाम उन जरूरतों में पीछे रह गया, जो उसके विकास को रफ्तार देतीं। हाईकोर्ट बेंच को लेकर चार दशकों से आंदोलन होता आ रहा है, मगर बेंच नहीं मिल सकी। दो दशक से एयरपोर्ट को लेकर भी बयानबाजी होती रही है। आसपास के शहरों में एयरपोर्ट बन गए। मेरठ को ठेंगा दिखा दिया गया। रिंग रोड दो दशक पहले बनाने की बात हुई, जो अब तक नहीं बन सकी। जाम का कारण बने रोडवेज के दोनों बस अड्डों और डेयरियों को शहर से बाहर शिफ्ट करने का काम भी नहीं हो सका। कूड़े से बिजली बनाने की छह साल पहले बनी योजना भी धूल चाट रही है। कुल मिलाकर शहर के विकास के लिए जो भी सपना देखा गया, जनप्रतिनिधियों के हवा-हवाई बयानों के चलते पूरा नहीं हो सका। यही कारण है कि शहर तमाम समस्याओं से जूझ रहा है और उनका निस्तारण नहीं हो पा रहा है।
महानगर को छलने का काम बरसों से होता आ रहा है। पहले जब दिक्कतों व सुविधाओं की बात होती थी तो जनप्रतिनिधियों का कहना होता था कि क्या करें, उनकी सरकार नहीं है। जब सरकार आयी तो कुछ दूसरे बहाने शुरू हो गए। अब तो देश और प्रदेश में एक ही सरकार है, बावजूद इसके शहर की दिक्कतें दूर नहीं हो पा रहीं। कोई प्रोजेक्ट भी अमलीजामा नहीं पहन पा रहा। कुल मिलाकर हर कोई पार्टी शहर के विकास को अनदेखा ही करती रही। शहर की आबादी तो बढ़ती गयी पर सुविधाओं का अकाल ही रहा। जबकि आसपास के दूसरे शहर कहीं आगे बढ़ गए। इसके लिए जनता नहीं, जनप्रतिनिधियों को ही जिम्मेदार माना रहा है। कुछ ऐसे मुद्दे रहे हैैं, जिन्हें लेकर नेतागिरी होती रही, जनप्रतिनिधि भी जनता को सपने दिखाते रहे, लेकिन धरातल पर कुछ करके नहीं दिखाया।
चार दशक बाद भी नहीं मिली हाईकोर्ट बेंच

हाईकोर्ट बेंच का आंदोलन चार दशक से भी ज्यादा पुराना है। मेरठ में हाईकोर्ट बैंक की भारी जरूरत महसूस की जाती रही है। इसके लिए वकीलों के आंदोलन भी होते रहे। हर शनिवार को हड़ताल भी होती रही। सरकार और नेता गेंद एक दूसरे के पाले में डालते रहे हैं। बैंच की स्थापना के लिए तक भी दिये जाते रहे हैं। पहला प्रयागराज मेरठ से 750 किमी की दूरी पर है। पश्चिमी यूपी के 52 फीसदी वाद वहां चल रहे हैं यानी आधे से ज्यादा। ऐसे में लोगों को सस्ता व सुलभ न्याय कैसे मिल पाएगा। इसके चलते ही मांग होती रही है कि बेंच यहां बच जाए तो जनता को सुलभ व सस्ता न्याय मिलेगा। बेंच का मामला आज तक नहीं हो पाया।
एयरपोर्ट को लेकर हवा-हवाई दावे
मेरठ में एयरपोर्ट को लेकर दो दशक के हवाई दावे होते रहे हैं। खुद जनप्रतिनिधि इस मुद्दे को उठाते रहे और जल्द एयरपोर्ट शुरू कराने के दावे करते रहे। कभी जमीन की कमी तो कभी पैसे का अभाव आड़े आने की बात की जाती रही। यहां तक कहा गया कि अगर सरकार 23 करोड़ रुपये दे दे तो उड़ान शुरू हो जाएगी। लेकिन हकीकत यह है कि मेरठ से उड़ान के लिए एएआई ने आज तक एनओसी ही नहीं दी है। जबकि सहारनपुर, अलीगढ़, गाजियाबाद में हिंडन और मुरादाबाद में एयरपोर्ट बनकर तैयार हो गए और कई जगहों से उड़ानें भी शुरू हो गयीं।
नहीं बन सकी कूड़े से बिजली

महानगर में दिल्ली और हापुड़ रोड पर ऊंचे कूड़े के ढेर लगे हैं। इसके निस्तारण के लिए ही गाबड़ी में कूड़ा निस्तारण प्लांट लगा और कूड़े से बिजली बनाने की योजना पर काम शुरू हुआ जो आज तक पूरा नहीं हो सका। वर्ष 2019 में कूड़े से बिजली बनाने का सपना देखा गया। बिजेंद्रा एनर्जी एंड रिसर्च कंपनी को कूड़े से बिजली बनाने की जिम्मेदारी दी गयी। यह माना गया कि इससे जहां कूड़े का निस्तारण होगा, वहीं प्रदूषण भी नहीं होगा। बिजली भी मिलने लगेगी। आज छह साल बाद भी नगर निगम कूड़े से बिजली बनाने के सपने को साकार नहीं कर पाया है।
दो दशक बाद भी नहीं बन सकी रिंग रोड
शहर के लिए जो भी योजनाएं बनती हैं, वो धरातल पर आ ही नहीं पातीं। इनमें ही एक रिंग रोड योजना है। वर्ष 2003 में एमडीए ने 36 किमी लंबी रिंग रोड के लिए 36 करोड़ रुपये का बजट तय किया था। उस वक्त शहर का इतना फैलाव भी नहीं हुआ था। लेकिन दो दशक बाद भी रिंग रोड नहीं बन सकी। जबकि शहर काफी विस्तारित हो गया। इसको लेकर भी गेंद एक दूसरे के पाले में फेंकी जाती रही है। कहा जाता है कि शासन से पैसा मिलेगा तो काम शुरू होगा। अब रिंग रोड के लिए 62 करोड़ रुपये की मांग शासन से की गयी है। पैसा मिलेगा तो काम शुरू होगा। अन्यथा यह रोड भी हवा में लटकी रहेगी।
नहीं शिफ्ट हो सके रोडवेज बस अड्डे

शहर के भीतर जाम से निजात दिलाने के लिए रोडवेज बस अड्डों को भी बाहर शिफ्ट करने के लिए दो दशक पहले योजना बनी थी। एक बस अड्डा पल्लवपुरम तो दूसरा परतापुर में बनना था। इसको लेकर दो दशक से सिर्फ बड़ी बड़ी बातें ही होती रहीं, धरातल पर कुछ नहींं हो सका। बस अड्डे अपनी जगह ही कायम हैं और इनकी वजह से शहर को रोज जाम से जूझना पड़ता है। जो जगह एमडीए देना चाहता है, उस पर रोडवेज के अधिकारी सहमत नहीं हैं। इसके चलते ही मामला लटका हुआ है।
डेयरियों को नहीं कर पाए बाहर
महानगर में इस वक्त 28 सौ डेयरियां संचालित हैं। ये सूचीबद्ध हैं। इनके अलावा और भी तमाम डेयरियां होंगी जो रिकार्ड में नहीं है। इन्हें शहर से बाहर ले जाने के लिए दो दशक से ज्यादा समय से कवायद चल रही है। लोहियानगर और परतापुर में जगह उपलब्ध कराने की बात भी कई बार हो चुकी है, लेकिन यह काम भी होता नहीं दिख रहा है। डेयरियों के संचालक बाहर जाने के लिए तैयार नहीं है। उनका कहना है कि इससे उनका कारोबार खत्म हो जाएगा। जबकि डेयरियों की वजह से नाले और नालियां चोक होती हैं। इसकी वजह से इन पर कार्रवाई करनी पड़ती है।