खेल जगत एक ऐसा क्षेत्र है जहां पर आपको अपना सारा दम-खम लगाना पड़ता है। उस एक ‘स्वर्ण पदक’ के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाना पड़ता है। रात-दिन की मेहनत से ही उसे पाने में सफलता हासिल कर पाते हैं। तब मन-मस्तिष्क की हालत न पूछो। बस यों जान लीजिए कि उस सफलता के बाद रोम-रोम घूमने लगता है। तब पहली बार खुद का खुद से परिचय हो पाता है।
परंतु इसी खेल जगत का दूसरा पहलू भी है। सभी को ‘स्वर्ण’ नहीं मिल पाता है। कई बार आप उसके करीब जाकर भी उसे नहीं पा पाते हैं। कई बार खिलाड़ी अपनी पूरी जी जान से मेहनत करता है। सारा दम-खम और यहां तक कि जीवन भी दांव पर लगा देता है। फिर भी जिस दिन वह मैदान में खेल-खेलने के लिए निकलता है, वह पल उसका नहीं होता है और पराजय का सामना करना पड़ता है पर जब किन्हीं कारणों से यह कई बार होने लगता है कि तो उस खिलाड़ी के व्यवहार में नकारात्मकता भरा बदलाव आने लगता है। वह पूरी तरह से नकारात्मकता के वश में हो जाता है जिन बदलावों में से कुछ प्रमुख बदलाव निम्नांकित हैं|
सोच नकारात्मकता भरी दिशा में अग्रसर होने लगती है।
कुछ भी नहीं भाता है। हर चीज में वे कमियां ही निकालते रहते हैं।
मित्र बनाना छोडकर उसे अकेला रहना ही अच्छा लगता है।
जोर जबरदस्ती से अपनी बात मनवाना और अपने ही पक्ष को ऊपर रखना।
समाज के निर्माणक कार्यों से दूर भागना और जो कर भी रहे होंगे उनकी व्यर्थ ही निंदा करना।
बात-बात पर बेरूखी और लड़ना-झगड़ना।
अपनी गलतियों को छिपाने के लिए पहले ही दूसरों पर लांछन लगाना प्रारंभ कर देते हैं।
फिर धीरे-धीरे अपनी गलतियों का अहसास होने लगता है तो वे अराजकता की तरफ अग्रसर होने लगते हैं। यह उनकी आम जीवन शैली में भी व्यवधान डालता है।
इस प्रकार इस दौर में यदि ये खिलाड़ी स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाते हैं तो उनके जीवन में परेशानियों का अंबार टूटने लगता है इसलिए उन्हें नकारात्मकता छोडकर सकारात्मकता की तरफ स्वयं ही अग्रसर करने का प्रयास करना चाहिए।
नरेशसिंह नयाल