Monday, January 20, 2025
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मुफ्त की रेवड़ियों का लोकतंत्र

Samvad 1

दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री व आप पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल की राजनीति अब राजनीति के रंगमंच पर एक अनोखे नाटक की शक्ल अख्तियार कर चुकी है। उनके ‘मुफ्त की रेवड़ियां’ मॉडल ने देश की सियासी धड़कनों को कुछ इस तरह तेज कर दिया है, मानो चुनावी मौसम में राजनीतिक गलियारों में कोई नया मसाला परोसा गया हो। ताजा घोषणाओं में किरायेदारों के लिए मुफ्त बिजली और पानी का प्रावधान किया गया है, जो आम आदमी की जेब को राहत देने वाला कदम नजर आता है। इस मुफ्तखोरी के लोकतांत्रिक उत्सव में, जहां जनता को सुविधाओं की मिठास परोसी जा रही है, वहीं यह सवाल अब भी अनुत्तरित है—इस खर्च का असली भार कौन उठाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह ‘मुफ्त’ की मिठास, अर्थव्यवस्था के भविष्य को खट्टा बना दे?

आज का लोकतंत्र, विशेषकर भारत में, एक नए प्रकार के ‘रेवड़ी स्टार्टअप’ की अवधारणा पर आधारित हो चुका है।

केजरीवाल का मुफ्त सेवा मॉडल अब राजनीति को नीतियों और विचारधाराओं के बजाय एक खतरनाक प्रतिस्पर्धा में बदल चुका है—‘कौन कितनी ज्यादा मुफ्त रेवड़ियां बांट सकता है।’ बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं के बाद, अब किरायेदारों के लिए मुफ्त बिजली-पानी की गारंटी ने इस खेल को एक नया मोड़ दे दिया है। अब अगला कदम शायद ‘मुफ्त वाई-फाई’, ‘मुफ्त ससुराल योजना’ या फिर ‘नो-वर्क जॉब गारंटी’ हो सकता है। राजनीति का यह नया रंग समाज में एक अस्वाभाविक मानसिकता को जन्म दे रहा है, जहां हर व्यक्ति बस यही सोच रहा है—‘आखिर और कौन सी मुफ्त सुविधा मुझे मिल सकती है?’ यह दृश्य न केवल लोकतंत्र के असली उद्देश्य से दूर जा रहा है, बल्कि आने वाले समय में इसका असर हमारे सामाजिक ढांचे पर भी दिखाई देगा।

दिल्ली जैसे महानगर में, जहां हर दूसरा व्यक्ति किरायेदार है, इस घोषणा ने एक अनकहे तनाव को जन्म दे दिया है, जो मकान मालिकों और किरायेदारों के बीच बढ़ता जा रहा है। मकान मालिक अब चिंतित होंगे कि किरायेदार मुफ्त सेवाओं का लाभ उठाकर और भी निश्चिंत हो जाएंगे, जबकि किरायेदार इसे अपनी ‘मुफ्त छत’ समझने में बिलकुल भी संकोच नहीं करेंगे। सवाल यह उठता है कि क्या यह राजनीति समाज को और भी ज्यादा खंडित करने का नया हथियार बन चुकी है? किरायेदारों के लिए यह घोषणा किसी सोने की चिड़िया के जैसे तोहफे से कम नहीं, वहीं मकान मालिक इसे एक नए बोझ और जिम्मेदारी के रूप में देख रहे हैं। भारत में अब चुनाव नीतियों और योजनाओं के बजाय मुफ्त सेवाओं के वादों के इर्द-गिर्द घूमने लगे हैं। यह सोचने वाली बात है कि जब सरकारें इन मुफ्त सेवाओं के लिए धन जुटाती हैं, तो इसका स्रोत आखिर है कहां से? अगर इस धन का सही इस्तेमाल शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे के लिए किया जाए, तो समाज का व्यापक विकास संभव है। लेकिन ‘रेवड़ी बाजार’ की इस राजनीति ने दीर्घकालिक विकास और सशक्त भविष्य को पीछे धकेल दिया है।

मुफ्त चीजें हमेशा आकर्षित करती हैं, क्योंकि ये हमारी मेहनत और जिम्मेदारी को कम करने का लुभावना रास्ता दिखाती हैं। लेकिन यह सोच दीर्घकालिक विकास की राह में गंभीर अड़चन डाल देती है। जब समाज मुफ्त सेवाओं का आदी हो जाता है, तो उसकी उत्पादकता और आत्मनिर्भरता पर गहरा असर पड़ता है। किरायेदारों को मुफ्त बिजली-पानी देने की केजरीवाल की घोषणा ने लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि अगली मुफ्त सेवा क्या होगी—क्या ये मुफ्त गिफ्ट पैकेज कभी खत्म होंगे? केजरीवाल की ‘मुफ्तखोरी’ वाली राजनीति ने दिल्ली ही नहीं, बल्कि पूरे देश में नेताओं के मन में भी एक नई प्रेरणा जगा दी है। अब हर पार्टी एक दूसरे से आगे निकलने के लिए मुफ्त वादों की झड़ी लगाने में व्यस्त हो गई है। कोई मुफ्त राशन का वादा करता है, तो कोई मुफ्त स्वास्थ्य सेवाओं का। लोकतंत्र का यह नया मॉडल अब एक व्यापार का रूप ले चुका है, जहां जनता को ग्राहक और वोट को उत्पाद मानकर वादों का व्यापार किया जा रहा है। यह राजनीति अब न केवल सामाजिक ताने-बाने को कमजोर कर रही है, बल्कि देश की आत्मनिर्भरता को भी एक बहुत बड़ा खतरा पैदा कर रही है।

मुफ्त की चीजें सुनने में जितनी लुभावनी और आकर्षक लगती हैं, उनकी असली कीमत समाज को लंबी अवधि में चुकानी पड़ती है। सरकारी खजाने पर बढ़ता बोझ न केवल राजकोषीय संकट पैदा करता है, बल्कि इसका असर शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर भी पड़ता है। जब सरकारी संसाधन सीमित होते हैं, तो प्राथमिकताएं बदलने लगती हैं, और दीर्घकालिक विकास को ठेंगा दिखाना पड़ता है। ऐसे में एक सोचने की बात यह है कि अगर केजरीवाल की अगली घोषणा की कल्पना की जाए, तो वह शायद ‘मुफ्त ससुराल योजना’ या ‘नो-वर्क जॉब गारंटी’ हो सकती है। यह विचार हंसी में उड़ाया जा सकता है, लेकिन वर्तमान राजनीति के परिदृश्य में कुछ भी असंभव नहीं है। कोई नहीं जानता, कल कौन सी नयी ‘मुफ्त’ योजना सामने आ जाए—चाहे वह ‘मुफ्त सॉफ्ट ड्रिंक्स’ हो या फिर ‘मुफ्त सोशल मीडिया पैकेज’।

जब राजनीति में तर्क और नीति की जगह सिर्फ मुफ्तखोरी और वोट बैंक की राजनीति हो, तो कोई भी कल्पना परे नहीं रहती। मुफ्त की रेवड़ियों की यह राजनीति, भले ही जनता को तत्काल राहत दे रही हो, लेकिन इसका दीर्घकालिक प्रभाव लोकतंत्र के लिए एक गंभीर खतरा साबित हो सकता है। यह जनता की समझ पर निर्भर करता है कि वे इन लुभावने, चीनी की तरह मीठे वादों के जाल में फंसते हैं या फिर दीर्घकालिक विकास के लिए सचेत और समझदार नेताओं का चयन करते हैं। केजरीवाल की यह ‘फ्रीडम सेल’ न केवल समाज में मुफ्तखोरी की मानसिकता को बढ़ावा दे रही है, बल्कि लोकतंत्र को एक ऐसी मंडी में बदल रही है, जहां वादों और वोट की कीमत बेमूल्य हो चुकी है।

मुफ्त सेवाओं की यह राजनीति न केवल नीतियों और विकास के मूल सिद्धांतों को दरकिनार कर रही है, बल्कि देश की आर्थिक स्थिरता और भविष्य को भी दांव पर लगा रही है। ऐसे में यह आवश्यक हो गया है कि जनता और नेता दोनों अपने कर्तव्यों को समझें, ताकि लोकतंत्र के असली मूल्य और उसके स्थायित्व को बचाया जा सके। वरना, यह राजनीति सिर्फ और सिर्फ चुनावी बाजार में बदल जाएगी, जहां केवल वादों का व्यापार होगा और विकास के असल मुद्दे कहीं खो जाएंगे।

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