बंगाल दुर्भिक्ष पर अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘भूख’ से उद्धरण है-‘हिंदुस्तान पर महायुद्ध की परछाई पड़ने लगी। हर शख्स के दिल से ब्रिटिश सरकार का विश्वास उठ गया। यथाशक्ति लोगों ने चावल जमा करना शुरू किया। रईसों ने बरसों के लिए खाने का इंतजाम कर लिया। मध्यवर्गीय नौकरीपेशा गृहस्थों ने अपनी शक्ति के अनुसार दो-तीन महीने से लेकर छ: महीने तक की खुराक जमा कर ली। खेतिहर मजदूर भीख मांगने पर मजबूर हुआ। भूख ने मेहनत-मजदूरी करनेवाले ईमानदार इंसानों को खूंखार लुटेरा बना दिया। भूख ने सतियों को वेश्या बनने पर मजबूर किया। मौत का डर बढ़ने लगा। और एक दिन चिर आशंकित, चिर प्रत्याशित मृत्यु, भूख को दूर करने के समस्त साधनों के रहते हुए भी, भूखे मानव को अपना आहार बनाने लगी…’ पिछले एक वर्ष से अधिक समय से कोविड-19 महामारी ने जीवन, समाज, साहित्य दर्शन और व्यापार सभी पर असर डाला है। बहुत सी चीजें, परिस्थितियां और मुद्दे पूरी तरह से बदल चुके हैं। व्यापारी अपने धंधे और मुनाफे के लिए परेशान है। कर्मचारी नौकरी के लिए, मजदूर दिहाड़ी के लिए, बीमार दवा के लिए और मृतक अंत्येष्टि के लिए।
स्वास्थ्य व्यवस्था बेहाल है, प्रशासन बेबस। एक आदमी का नजरिया, दर्शन और उसकी आस्था भी बहुत हद तक प्रभावित हुई है। उन्माद बढ़ा है और कर्मकांड भी कम नहीं हुआ। महामारी के संकट ने दूसरी चीजों की तरह ही साहित्य को भी प्रभावित किया है। लेखक अपनी रचना प्रकाशन और साहित्य की अभिव्यक्ति के लिए सक्रिय हैं। वर्षपर्यंत सोशल मीडिया में सतत साहित्यिक संवाद बना रहा है। हालांकि यह कितना गंभीर और प्रभावकारी है एवं कितना उथला यह नहीं कहा जा सकता, लेकिन अभिव्यक्त तो हुआ ही है।
यूं तो वैश्विक महामारियां अपने समय और भविष्य को हमेशा प्रभावित करती आई हैं। राजनीति और भूगोल के साथ समाज और साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा है। दुनिया जब किसी विपदा में घिरी है तो सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में भी उनका असर हुआ है। शिव प्रसाद जोशी ने इसपर गहन विमर्श किया है। वह कहते हैं- ‘महामारियों के कथानक पर केंद्रित अतीत की साहित्यिक रचनाएं आज के संकटों की भी शिनाख्त करती हैं। ये हमें मनुष्य जिजीविषा की याद दिलाने के साथ साथ नैतिक मूल्यों के ह्रास और मनुष्य अहंकार, अन्याय और नश्वरता से भी आगाह करती है। इतिहास गवाह है कि अपने अपने समय में चाहे कला हो या साहित्य, संगीत, सिनेमा- तमाम रचनाओं ने महामारियों की भयावहताओं को चित्रित करने के अलावा अपने समय की विसंगतियों, गड़बड़ियों और सामाजिक द्वंद्वों को भी रेखांकित किया है।
ये रचनाएं सांत्वना, धैर्य और साहस का स्रोत भी बनी हैं, दुखों और सरोकारों को साझा करने वाला एक जरिया और अपने समय का मानवीय दस्तावेज भी।’
समकालीन विश्व साहित्य में महामारी पर विशद् कृति ‘प्लेग’ को माना जाता है। कहा जाता है कि अल्जीरियाई मूल के विश्वप्रसिद्ध फ्रांसीसी उपन्यासकार अल्बैयर कामू अपने उपन्यास ‘प्लेग’ के जरिए कामू नात्सीवाद और फासीवाद के उभार और उनकी भयानकताओं के बारे में बता रहे थे। इसमें दिखाया गया है कि कैसे स्वार्थों और महत्वाकांक्षाओं और विलासिताओं से भरी पूंजीवादी आग्रहों और दुष्चक्रों वाली दुनिया में किसी महामारी का हमला कितना व्यापक और जानलेवा हो सकता है, कि कैसे वो खुशफहमियों और कथित निर्भयताओं के विशाल पर्दे वाली मध्यवर्गीय अभिलाषाओं को तहसनहस करता हुआ एक अदृश्य दैत्य की तरह अंधेरों और उजालों पर अपना कब्जा जमा सकता है।
‘प्लेग’ के जरिए कामू समाज की हृदयहीनता को भी समझना चाहते थे। वे दिखाना चाहते थे कि समाज में पारस्पारिकता की भावना से विछिन्न लोग किस हद तक असहिष्णु बन सकते हैं। लेकिन वो आखिरकार मनुष्य के जीने की आकांक्षा का संसार दिखाते हैं। इसी तरह कोलम्बियाई कथाकार गाब्रिएल गार्सीया मार्केस का मार्मिक उपन्यास ‘लव इन द टाइम आॅफ कॉलेरा’, प्रेम और यातना के मिलेजुले संघर्ष की एक करुण दास्तान सुनाता है जहां महामारी से खत्म होते जीवन के समांतर प्रेम के लिए जीवन को बचाए रखने की जद्दोजहद एक विराट जिद की तरह तनी हुई है। प्लेग, चेचक, इन्फ्लुएंजा, हैजा, तपेदिक आदि बीमारियों ने घर परिवार ही नहीं, शहर के शहर उजाड़े हैं और पीढ़ियों को एक गहरे भय और संत्रास में धकेला है। चेचक को दुनिया से मिटे चार दशक से अधिक हो चुके हैं।
तब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बात का जश्न भी मनाया था। लेकिन 20वीं सदी के शुरुआती वर्षों में ये एक भीषण महामारी के रूप में करोड़ो लोगों को अपना ग्रास बना चुकी थी। रवीन्द्रनाथ टैगोर की काव्य रचना ‘पुरातन भृत्य’ (पुराना नौकर) में एक ऐसे व्यक्ति की दास्तान पिरोई गई है, जो अपने मालिक की देखभाल करते हुए चेचक की चपेट में आ जाता है। 1903 में टैगोर ने अपनी तपेदिक से जूझती 12 साल की बेटी को स्वास्थ्य लाभ के लिए उत्तराखंड के नैनीताल जिले के पास रामगढ़ की हवादार पहाड़ी पर कुछ महीनों के लिए रखा था, लेकिन कुछ ही महीनों में उसने दम तोड़ दिया था। चार साल बाद बेटा भी नहीं रहा।
टेगौर ने रामगढ़ प्रवास के दौरान ‘शिशु’ नाम से अलग-अलग उपशीर्षकों वाली एक बहुत लंबी कविता ऋंखला लिखी थी। 1913 में छपी इन कविताओं के संग्रह का नाम ‘अर्धचंद्र’ कर दिया गया था। टैगोर की इस रचना से एक पंक्ति देखिए: अंतहीन पृथ्वियों के समुद्रतटों पर मिल रहे हैं बच्चे. मार्गविहीन आकाश में भटकते हैं तूफान, पथविहीन जलधाराओं में टूट जाते हैं जहाज, मृत्यु है निर्बंध और खेलते हैं बच्चे। अंतहीन पृथ्वियों के समुद्रतटों पर बच्चों की चलती है एक महान बैठक।
इसी तरह निराला ने अपनी आत्मकथा ‘कुल्लीभाट’ में 1918 के दिल दहला देने वाले फ्लू से हुई मौतों का जिक्र किया है। जिसमें उनकी पत्नी, एक साल की बेटी और परिवार के कई सदस्यों और रिश्तेदारों की जानें चली गर्इं थीं। निराला ने लिखा था कि दाह संस्कार के लिए लकड़ियां कम पड़ जाती थीं और जहां तक नजर जाती थी गंगा के पानी में इंसानी लाशें ही लाशें दिखाई देती थीं। उस बीमारी ने हिमालय के पहाड़ों से लेकर बंगाल के मैदानों तक सबको अपनी चपेट में ले लिया था। बेटी की याद में रचित ‘सरोज स्मृति’ तो हिंदी साहित्य की एक मार्मिक धरोहर है।
टाइम्स आॅफ इंडिया अखबार में अविजित घोष ने प्रगतिशील लेखक आंदोलन के संस्थापकों में एक, पाकिस्तानी लेखक, कवि अहमद अली के उपन्यास ‘ट्वाइलाइट इन डेल्ही’ का उल्लेख किया है। उपन्यास में बताया गया है कि महामारी के मृतकों को दफनाने के लिए कैसे कब्र खोदनेवालों की किल्लत हो जाती है और दाम आसमान छूने लगते हैं, इतने बड़े पैमाने पर वो काम हो रहा था कि दिल्ली मुर्दों का शहर बन गया था। प्रगतिशील लेखक संगठन के पुरोधाओं में एक, राजिंदर सिंह बेदी की कहानी ‘क्वारंटीन’ में महामारी से ज्यादा उसके बचाव के लिए निर्धारित उपायों और पृथक किए गए क्षेत्रों के खौफ का वर्णन है। यानी एक विडंबनापूर्ण और हास्यास्पद सी स्थिति ये आती है कि महामारी से ज्यादा मौतें क्वारंटीन में दर्ज होने लगती हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु के प्रसिद्ध उपन्यास ‘मैला आंचल’ में मलेरिया और कालाजार की विभीषिका के बीच ग्रामीण जीवन की व्यथा का उल्लेख मिलता है। प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ में हैजे का जिक्र है। ओडिया साहित्य के जनक कहे जाने वाले फकीर मोहन सेनापति की ‘रेबती’ कहानी में भी हैजे के प्रकोप का वर्णन है। जानेमाने कन्नड़ कथाकार यूआर अनंतमूर्ति की नायाब रचना ‘संस्कार’ में एक प्रमुख किरदार की मौत प्लेग से होती है। ज्ञानपीठ अवार्ड से सम्मानित मलयाली साहित्य के दिग्गज तकषी शिवशंकर पिल्लै का उपन्यास, ‘थोत्तियुडे माकन’ (मैला साफ करने वाले का बेटा) में दिखाया गया है कि किस तरह पूरा शहर एक संक्रामक बीमारी की चपेट में आ जाता है।
उधर, विश्व साहित्य पर नजर डालें तो कामू से पहले भी लेखकों ने अपने-अपने समयों में बीमारियों और संक्रामक रोगों का उल्लेख अपनी रचनाओं में किया है। ब्रिटेन के मशहूर अखबार द गार्जियन ने एक सूची निकाली है। जैसे डेनियल डेफो का ‘अ जर्नल आॅफ द प्लेग इयर’ (1722), मैरी शैली का लिखा ‘द लास्ट मैन’ (1826), और एडगर एलन पो की 1842 में लिखी कहानी ‘द मास्क आॅफ द रेड डेथ’। 1947 में कामू का ‘प्लेग’, 1969 में माइकल क्रिशटन का ‘द एंड्रोमेड स्ट्रेन’, 1978 में स्टीफन किंग का ‘द स्टैंड’ और 1994 में रिचर्ड प्रेस्टन का ‘द हॉट जोन’ आया। नोबेल पुरस्कार विजेता और प्रसिद्ध पुर्तगाली उपन्यासकार खोसे सारामायो ने 1995 में ‘ब्लाइंडनेस’ नामक उपन्यास लिखा था, जिसमें अंधेपन की महामारी टूट पड़ने का वर्णन है। 2007 में जिम क्रेस ने ‘द पेस्टहाउस’ लिखा, जिसमें लेखक ने अमेरिका के प्लेग से संक्रमित अंधेरे भविष्य की कल्पना की है। 2013 में डैन ब्राउन का ‘इंफर्नो’ और मार्ग्रेट एटवुड का ‘मैडएडम’ और 2014, 2015 और 2017 में लोकप्रिय ब्रिटिश लेखिका लुइस वेल्श के ‘प्लेग टाइम्स’ टाइटल के तहत तीन उपन्यास प्रकाशित हैं।