एक बार एक पहुंचे हुए संत से एक व्यक्ति ने प्रश्न किया, महात्मा जी जब सभी जीव, एक ईश्वर की कृति हैं, फिर मनुष्य को ही सात्त्विक आहार, विचार की बंदिश क्यों है? संत बोले, मनुष्य विवेकी और बुद्धिमान है। परमात्मा अपनी संतान को काल से मुक्त होने के लिए ही उसे मन, क्रम, वचन, निष्ठा, श्रद्धा, आहार और विचार से सात्त्विक होने वरदान देता है। भगवत गीता में हमारे आहार और विचार का प्रगाढ़ संबंध बताया है। श्री भगवान बताते हैं, मनुष्य के स्वभाव में श्रद्धा तीन प्रकार की होती हैं : सात्त्विक, राजसी और तामसी। श्रद्धा मन पर निर्भर करती है , मन अन्न ( भोजन ) पर निर्भर करता है।
आहार भी सबको तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ , दान और तप भी तीन प्रकार के होते हैं। अर्थात शास्त्रीय कर्म भी तीन प्रकार की रुचियों पर निर्भर है। तू उनके भेद सुन। सात्त्विक भोजन आयु वृद्धि करने वाला, जीवन में शुद्धता का संचार करने वाला, बल, स्वास्थ्य, सुख तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है, जो सात्त्विक जनों को प्रिय होता है। अत्यधिक खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे, शुष्क तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन राजी गुणी व्यक्तियों को प्रिय होते हैं। ऐसे भोजन दुख, शोक तथा रोग का कारण बनते हैं।
खाने से तीन घंटे पूर्व पकाया , स्वाद हीन, सड़ा हुआ, जूठा, अर्धपक्क, रसरहित, दुर्गंध युक्त, बासी, अमेध्य तथा अस्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन तामसिक प्रवृति के व्यक्तियों को प्रिय होता है। व्यक्ति ने पूछा, भोजन से ईश्वर बंदगी का क्या संबंध? संत ने उत्तर दिया, सात्त्विक भोजन करने वाले शांत, क्रोध न करने वाले, निरोगी होते हैं तथा वे भगवत ध्यान में लीन रह पाते हैं, जबकि राजसी भोजन व्यक्ति को रोग और दुख देता है ऐसे में भगवत भजन कैसे हो? तामसिक भोजन व्यक्ति को मानवीय गुणों और मूल्यों से दूर कर देता है।
प्रस्तुति: राजेंद्र कुमार शर्मा