पिछला पखवाड़ा सोशल मीडिया और टेक्नोलॉजी से जुड़ी डरावनी खबरों को सामने लेकर आया। भारत का संवेदनशील नागरिक समाज सुल्ली डील्स, क्लब हाउस और बुल्ली बाई एप की विक्षिप्त मानसिकता और ठंडी नृशंसता के सदमे से अभी बाहर भी नहीं आ पाया था कि स्वयं को ट्रैड्स (ट्रेडिशनलिस्टस) कहने वाले हजारों युवक-युवतियों की मानसिक विकृतियों का खुलासा हुआ जो एक विशाल और लगभग अदृश्य आॅनलाइन हिंसक समुदाय का निर्माण करते हैं। आलीशान जाफरी, नाओमी बर्टन, मोहम्मद जुबैर, नील माधव, प्रतीक गोयल तथा जफर आफाक जैसे पत्रकार लंबे समय से ट्रैड्स की गतिविधियों पर नजर रख रहे हैं और उनके आलेखों एवं साक्षात्कारों के आधार पर इनकी कुछ लाक्षणिक विशेषताओं को रेखांकित किया जा सकता है।
2010 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में अमेरिका में अल्टरनेटिव राइट मूवमेंट चर्चा में आया था। यह उदार प्रजातांत्रिक मूल्यों को नकारता था। अमेरिका की प्रजातांत्रिक प्रणाली और इस पर विश्वास करने वाले राजनीतिक दलों की यह आंदोलन कटु आलोचना करता था। यह आंदोलन आॅन लाइन प्लेटफार्म का उपयोग करता था। इसके सदस्य नस्ली सर्वोच्चता, नफरत और मारकाट की खुली वकालत करते थे। श्वेतों की सर्वोच्चता पर विश्वास करने वाला यह आंदोलन नव नाजीवाद से निकटता रखता था। भारत के ट्रेडिशनलिस्ट्स इससे प्रेरणा लेते हैं।
ट्रैड्स सवर्ण हिंदुओं के वर्चस्व की हिमायत करते हैं। इनके अनुसार सवर्ण हिंदू शुद्ध रक्त वाली श्रेष्ठतम नस्ल हैं। यह अल्पसंख्यकों एवं दलितों को गंदे कॉकरोच एवं दीमक के रूप में कार्टूनों के माध्यम से चित्रित करते हैं। ट्रैड्स अपनी प्रोफाइल पिक्चर के लिए कुछ खास छवियों का उपयोग करते हैं। भगवान राम की भयोत्पादक भाव भंगिमाओं वाले चित्र अथवा हनुमान की क्रुद्ध छवियां प्रोफाइल पिक्चर के रूप में इनकी पसंदीदा हैं। यह प्राय: चड गाय मीम का उपयोग भी प्रोफाइल पिक्चर के रूप में करते हैं। इंटरनेट में उपयोग होने वाली बोलचाल की अपरिष्कृत भाषा में चड गाय जेनेटिक रूप से सर्वश्रेष्ठ अल्फा मेल के लिए प्रयुक्त होता है। यह बहुत सशक्त गठीली शारीरिक रचना और विशाल यौनांग के साथ दर्शाया जाता है।
ट्रैड विंग आंदोलन एक दृश्य भाषा का अविष्कार करता है, जिसमें घृणा की अकल्पनीय और भयोत्पादक अभिव्यक्तियों को मीम अथवा कार्टून चरित्रों के माध्यम से दर्शाया जाता है। ट्रैड विंग के सदस्य मुसलमानों और दलितों के लिए अपनी नफरत को हास्य के रूप में व्यक्त करते हैं। जो लोग इन समुदायों के साथ हिंसा, दुष्कर्म और अपमानजनक विकृत हरकतों में हास्य नहीं तलाश कर पाते हैं, ट्रैड्स उन्हें असंतुलित एवं कमजोर मानते हैं। ट्रैड्स का हास्य विकृत और डरावना तो है ही इसका लक्ष्य अल्पसंख्यकों एवं दलितों को भयभीत करना अथवा उत्तेजित कर हिंसा के लिए प्रेरित करना भी है।
अमेरिकी आॅल्ट राइट मूवमेंट की भांति भारतीय ट्रेडिशनलिस्ट्स भी खुली हिंसा की वकालत करते हैं और हथियारों की खरीदी के लिए व्हाट्सएप और टेलीग्राम समूहों का निर्माण करते हैं। यदि ट्रैड्स की शाब्दिक अभिव्यक्तियों पर एक नजर डालें तो यह पता चलता है कि घृणा के अतिरेक को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा का किस सीमा तक अवमूल्यन किया जा सकता है और उसे कितना सस्ता,ओछा और बाजारू बनाया जा सकता है। एक अल्पसंख्यक समुदाय विशेष के लिए पोटैशियम आॅक्साइड नामक एक रासायनिक यौगिक को लिखने के लिए प्रयुक्त संकेत केटू ओ का प्रयोग होता है जबकि इसी समुदाय के एक धार्मिक स्लोगन हेतु ओला उबर जैसी अभिव्यक्ति प्रयुक्त होती है। भीमटी अथवा भीमता बाबा साहेब अंबेडकर के समर्थकों के लिए प्रयुक्त होने वाला अपमानजनक शब्द है। ट्रैड्स इसका प्राय: उपयोग करते हैं। यह शब्द हिंसक हिंदुत्व का समर्थन करने वाली रागिनी तिवारी उर्फ जानकी बहन के एक वायरल वीडियो में भी सुनने में आया था और दिल्ली दंगों के दौरान चर्चा में रहा था। ट्रैड्स की नफरत को अभिव्यक्त करने में पारंपरिक भाषा नाकाम रही है इसलिए उन्हें एक नई भाषा गढ़नी पड़ी है। यह भाषा संकेतात्मक इसलिए भी है कि कानूनी अड़चनों से बचा जा सके और हिंसक गिरोह के सदस्य इस कूट भाषा में अपने हिंसक इरादों और घृणा को खुलकर अभिव्यक्त कर सकें।
ट्रैड्स के विषय में अनुसंधान करने वाले पत्रकार इस बात को रेखांकित करते हैं कि मुख्यधारा के दक्षिणपंथियों को ट्रैड्स नापसंद करते हैं और इन्हें नरम, अवसरवादी तथा समझौतापरस्त मानते हैं और इन्हें ‘रायता’ का संबोधन देते हैं। ट्रैड्स सती प्रथा के समर्थक हैं एवं खुले में मल त्याग को पर्यावरण हितकारी समझते हैं। जाति भेद को दास प्रथा के रूप में विकसित करना इनका सपना है। ट्रैड्स पर शोध करने वाले पत्रकारों का मानना है कि यह नफरत और हिंसा फैलाने के लिए सुनियोजित रूप से कार्य करने वाली आईटी सेल अथवा ट्रोल समूहों से संबद्ध नहीं हैं। यह किसी संगठन का हिस्सा नहीं हैं किंतु ऐसा नहीं है कि ये असंगठित हैं-अल्पसंख्यकों और दलितों के प्रति घृणा एवं हिंसा इन्हें आपस में एक मजबूत बंधन में बांधती है। स्पष्ट राजनीतिक प्रतिबद्धता के अभाव और किसी दल या संगठन से संबद्ध न होने के कारण इन्हें पहचानना कठिन है और इसी कारण यह अधिक खतरनाक हैं।
हमने देखा है कि अमेरिका की कैपिटल बिल्डिंग पर हमले में आॅल्ट राइट मूवमेंट से जुड़े लोगों का हाथ था। 15 मार्च 2021 को क्राइस्टचर्च में दो मस्जिदों में नरसंहार करने वाले अपराधी ने स्वयं को फेसबुक लाइव किया था। एलपासो, टेक्सास में 3 अगस्त 2019 को हुए हत्याकांड के बाद भी ऐसा ही नस्ली घृणा से लबरेज मैनिफेस्टो 8चान मैसेजिंग फोरम में देखा गया था। दिल्ली दंगों के दौरान चर्चा में आए अंकित तिवारी की फेसबुक प्रोफाइल भी अल्पसंख्यकों के साथ हिंसा का बड़े गौरव से जिक्र करने वाली पोस्टों से भरपूर थी। जनवरी 2020 में जामिया मिल्लिया के सम्मुख प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोलीबारी करने वाले अवयस्क अपराधी के लाइव वीडियो भी एक फेसबुक एकाउंट में देखे गए थे।
हाल ही में टेकफॉग के विषय में जो खुलासे हो रहे हैं उनका सार संक्षेप यह है कि लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स में आपराधिक ढंग से सेंध लगाई जा सकती है और इनका उपयोग लोगों की सोच को हिंसा और घृणा फैलाने वाले मुद्दों पर केंद्रित रखने के लिए किया जा सकता है। पता नहीं यह सामान्य सा सच किसी की समझ में क्यों नहीं आ रहा कि हिंसा और नफरत की आग सब कुछ जला डालेगी, वह आग लगाने और भड़काने वालों के साथ कोई रियायत नहीं करेगी।