दिव्यध्वनि या दिव्यवाणी उस पवित्र जल के समान है, जो हमारे मन की समस्त मैल को धोने की क्षमता रखता है। यही संसार रूपी समुद्र से पार होने का मार्ग है। बंधन मुक्त गुरु और परमपिता के मुख से निकली हुई दिव्य वाणी के बिना मुक्ति संभव नहीं होती। उपनिषदों में भी दिव्य ध्वनि या अनाहत नाद को मन को वश में करने वाला अचूक नुस्खा माना है। नाद बिन्दुपनिषद् में वर्णित है कि यह मन रूपी आंतरिक विकार, अनाहत नाद या दिव्य ध्वनि को ग्रहण कर, सुहावने नाद की गंध से बंध कर तत्काल सभी इच्छाओं और वासनाओं का परित्याग कर, संसार को भूलकर यह एकाग्र हो, स्थिर हो जाता है। निरन्तर नाद का अभ्यास करने से वासनाएं कमजोर हो जाती हैं, मन और प्राण निराकार ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं।
विश्व की विभिन्न धार्मिक आस्थाओं और संस्थाओं ने सर्वशक्तिमान परम तत्व को उसके प्रेम में अभिभूत हो कर उसे अलग अलग नामों से संबोधित किया है। प्रत्येक धर्म ने एक निराकर परम शक्ति के अस्तित्व को स्वीकारा है , जिसके कारण पूरा ब्रह्मांड चलायमान हैं।सभी धर्मों ने शब्द , वचन या वाणी तथा एक अद्भुत प्रकाश को इस परम शक्तिमान परमात्मा के समतुल्य माना है। इस प्रकाश और ध्वनि से साक्षात्कार सिर्फ उन भाग्यशाली साधकों से होता है जो प्रेम , कृतज्ञता और समर्पण की भावना से ओत प्रोत रहते हैं। जिन्होंने हर पल उस परमात्मा का शुक्रिया किया , उन सब अच्छी चीजों के लिए जो ईश्वर ने उनको बक्शी हैं।
दिव्य ध्वनि या दिव्यवाणी
ऐसी मान्यता है कि जब वर्धमान महावीर को निर्वाण की प्राप्ति हो गई उसके साथ ही उनकी सभी दुखों की कारक तृष्णाएं बुझ गई, वासनाएं शांत हो गर्इं। सभी अंतरिक विकारों से मुक्ति ही निर्वाण है। उनकी निर्मल आत्मा, अनंत ज्ञान के प्रकाश से ज्योतिमय हो उठी। उनके सर्वांग से एक आध्यात्मिक ध्वनि रूपी ‘ओंकार’ शब्द का उदय हुआ जिसे दिव्यध्वनी कहा गया। इसी दिव्यध्वनि की चर्चा सभी धर्मों में अलग अलग रूपों में की गई है। कुछ जैन विद्वानों ने इसे ‘शब्द ब्रह्म’ कहकर संबोधित किया है। दिव्यध्वनी ही मोक्षार्थी के मन में स्थित मोहरूपी अंधकार को नष्ट करती हुई , सूर्य के समान सुशोभित होती है।
दिव्यध्वनी की प्रकृति
जब हम किसी भी भाषा में कोई वर्णात्मक शब्द या वचन बोलते हैं या सुनते हैं तो वह बाह्य मुख द्वारा बोला जाता है और बाह्य कानों द्वारा सुना जाता है। पर दिव्यध्वनी या दिव्य वाणी वर्णात्मक न होकर धुनात्मक होती है। इसे न तो बाह्य मुख से बोला जाता है और न ही बाह्य कानों से सुना जाता है। यह तो वह आंतरिक वाणी है जो हमारे आंतरिक मुख से उत्पन्न होती है और आंतरिक कानों द्वारा ही सुनी जाती है। जो सिर्फ ध्यान में ही संभव हैं। दिव्य वाणी, मेघों की गर्जना और प्रकाश रूपी दिव्यशक्ति से ओत प्रोत रहती है और इसको धारण करने वाला या अभ्यास करने वाला, उसी दिव्यशक्ति का स्वामी बन जाता है।
दिव्यध्वनी एक, नाम अनेक
दिव्यवाणी, दिव्यध्वनी, शब्द ब्रह्म, नाद, शब्द, कलाम अल्लाह, लोगोस आदि आदि उसी एक दिव्यध्वनी के अलग अलग नाम हैं, जिनका प्रयोग अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं या आस्थाओं में विश्वास रखने वालों ने अपने अपने तरीके से किया। हिंदू संतों ने इसे ‘नाद’ का नाम दिया तो सिखों ने ‘शब्द’ या ‘गुरवाणी’ कह दिया, मुसलमानों के पावन ग्रंथ कुरान में ‘कलाम अल्लाह’ ( ईश्वरीय वाणी) कहा। इसका अर्थ है कि ये शब्द हर जीवित प्राणी के निर्माता और मालिक की ओर से एक सीधा संचार है। ईसाइयों के धार्मिक पुस्तक बाइबल ने इसे लोगोज कहा गया, ग्रीक दर्शन में, यह एक सार्वभौमिक, दिव्य कारण या ईश्वर के मन से संबंधित है। लोगोज को परमेश्वर के वचन के रूप में परिभाषित किया जाता है। सभी धार्मिक मान्यताएं इस एक शब्द पर आकर एक-दूसरे में विलीन होती प्रतीत होती हैं, जो बाहरी तौर पर अलग-अलग दृष्टिगोचर हो रहा था, वह एक ही है। यही दिव्य ध्वनि ही उस परम पिता परमात्मा का स्वरूप है, जिसकी खोज हर धर्म के साधक को है।
दिव्य ध्वनि का प्रभाव
यह दिव्यध्वनि या दिव्यवाणी उस पवित्र जल के समान है, जो हमारे मन की समस्त मैल को धोने की क्षमता रखता है। यही संसार रूपी समुद्र से पार होने का मार्ग है। बंधन मुक्त गुरु और परमपिता के मुख से निकली हुई दिव्य वाणी के बिना मुक्ति संभव नहीं होती। उपनिषदों में भी दिव्य ध्वनि या अनाहत नाद को मन को वश में करने वाला अचूक नुस्खा माना है। नाद बिन्दुपनिषद् में वर्णित है कि यह मन रूपी आंतरिक विकार, अनाहत नाद या दिव्य ध्वनि को ग्रहण कर, सुहावने नाद की गंध से बंध कर तत्काल सभी इच्छाओं और वासनाओं का परित्याग कर, संसार को भूलकर यह एकाग्र हो, स्थिर हो जाता है। निरन्तर नाद का अभ्यास करने से वासनाएं कमजोर हो जाती हैं, मन और प्राण निराकार ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं।
दिव्यध्वनि का प्रभाव इतना गहरा और व्यापक होता है कि पशु-पक्षी से भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते।जब देवदत्त ने बुद्ध को मतवाले हाथी के पैरों से कुचलने की कुचेष्टा की तो वह हाथी बुद्ध के पास आकर उनके सामने सिर झुकाकर शांत भाव से खड़ा हो गया। शायद यही वजह है कि वन में निवास करने वाले ऋषि-मुनियों को खुंखार जंगली जानवर कभी हानि पहुंचाने का प्रयास नहीं करते और ऋषि-मुनियों को भी उनसे कभी कोई भय नहीं होता होगा। तपस्वी महात्माओं या संतों का अहिंसा का अनुसरण और शांत भाव जंगली जंतुओं का भी हृदय परिवर्तन कर देता है। संत महत्माओं को यह शक्ति और ऊर्जा, उसी दिव्य ध्वनि के निरंतर अभ्यास से प्राप्त होती है।
मनुष्य जीवन को दिव्यता प्रदान करती है दिव्य वाणी
दिव्यध्वनि या दिव्यवाणी उस पवित्र जल के समान है, जो हमारे मन की समस्त मैल को धोने की क्षमता रखता है। यही संसार रूपी समुद्र से पार होने का मार्ग है। बंधन मुक्त गुरु और परमपिता के मुख से निकली हुई दिव्य वाणी के बिना मुक्ति संभव नहीं होती। उपनिषदों में भी दिव्य ध्वनि या अनाहत नाद को मन को वश में करने वाला अचूक नुस्खा माना है। नाद बिन्दुपनिषद् में वर्णित है कि यह मन रूपी आंतरिक विकार, अनाहत नाद या दिव्य ध्वनि को ग्रहण कर, सुहावने नाद की गंध से बंध कर तत्काल सभी इच्छाओं और वासनाओं का परित्याग कर, संसार को भूलकर यह एकाग्र हो, स्थिर हो जाता है। निरन्तर नाद का अभ्यास करने से वासनाएं कमजोर हो जाती हैं, मन और प्राण निराकार ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं।
विश्व की विभिन्न धार्मिक आस्थाओं और संस्थाओं ने सर्वशक्तिमान परम तत्व को उसके प्रेम में अभिभूत हो कर उसे अलग अलग नामों से संबोधित किया है। प्रत्येक धर्म ने एक निराकर परम शक्ति के अस्तित्व को स्वीकारा है , जिसके कारण पूरा ब्रह्मांड चलायमान हैं।सभी धर्मों ने शब्द , वचन या वाणी तथा एक अद्भुत प्रकाश को इस परम शक्तिमान परमात्मा के समतुल्य माना है। इस प्रकाश और ध्वनि से साक्षात्कार सिर्फ उन भाग्यशाली साधकों से होता है जो प्रेम , कृतज्ञता और समर्पण की भावना से ओत प्रोत रहते हैं। जिन्होंने हर पल उस परमात्मा का शुक्रिया किया , उन सब अच्छी चीजों के लिए जो ईश्वर ने उनको बक्शी हैं।
दिव्य ध्वनि या दिव्यवाणी
ऐसी मान्यता है कि जब वर्धमान महावीर को निर्वाण की प्राप्ति हो गई उसके साथ ही उनकी सभी दुखों की कारक तृष्णाएं बुझ गई, वासनाएं शांत हो गर्इं। सभी अंतरिक विकारों से मुक्ति ही निर्वाण है। उनकी निर्मल आत्मा, अनंत ज्ञान के प्रकाश से ज्योतिमय हो उठी। उनके सर्वांग से एक आध्यात्मिक ध्वनि रूपी ‘ओंकार’ शब्द का उदय हुआ जिसे दिव्यध्वनी कहा गया। इसी दिव्यध्वनि की चर्चा सभी धर्मों में अलग अलग रूपों में की गई है। कुछ जैन विद्वानों ने इसे ‘शब्द ब्रह्म’ कहकर संबोधित किया है। दिव्यध्वनी ही मोक्षार्थी के मन में स्थित मोहरूपी अंधकार को नष्ट करती हुई , सूर्य के समान सुशोभित होती है।
दिव्यध्वनी की प्रकृति
जब हम किसी भी भाषा में कोई वर्णात्मक शब्द या वचन बोलते हैं या सुनते हैं तो वह बाह्य मुख द्वारा बोला जाता है और बाह्य कानों द्वारा सुना जाता है। पर दिव्यध्वनी या दिव्य वाणी वर्णात्मक न होकर धुनात्मक होती है। इसे न तो बाह्य मुख से बोला जाता है और न ही बाह्य कानों से सुना जाता है। यह तो वह आंतरिक वाणी है जो हमारे आंतरिक मुख से उत्पन्न होती है और आंतरिक कानों द्वारा ही सुनी जाती है। जो सिर्फ ध्यान में ही संभव हैं। दिव्य वाणी, मेघों की गर्जना और प्रकाश रूपी दिव्यशक्ति से ओत प्रोत रहती है और इसको धारण करने वाला या अभ्यास करने वाला, उसी दिव्यशक्ति का स्वामी बन जाता है।
दिव्यध्वनी एक, नाम अनेक
दिव्यवाणी, दिव्यध्वनी, शब्द ब्रह्म, नाद, शब्द, कलाम अल्लाह, लोगोस आदि आदि उसी एक दिव्यध्वनी के अलग अलग नाम हैं, जिनका प्रयोग अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं या आस्थाओं में विश्वास रखने वालों ने अपने अपने तरीके से किया। हिंदू संतों ने इसे ‘नाद’ का नाम दिया तो सिखों ने ‘शब्द’ या ‘गुरवाणी’ कह दिया, मुसलमानों के पावन ग्रंथ कुरान में ‘कलाम अल्लाह’ ( ईश्वरीय वाणी) कहा। इसका अर्थ है कि ये शब्द हर जीवित प्राणी के निर्माता और मालिक की ओर से एक सीधा संचार है। ईसाइयों के धार्मिक पुस्तक बाइबल ने इसे लोगोज कहा गया, ग्रीक दर्शन में, यह एक सार्वभौमिक, दिव्य कारण या ईश्वर के मन से संबंधित है। लोगोज को परमेश्वर के वचन के रूप में परिभाषित किया जाता है। सभी धार्मिक मान्यताएं इस एक शब्द पर आकर एक-दूसरे में विलीन होती प्रतीत होती हैं, जो बाहरी तौर पर अलग-अलग दृष्टिगोचर हो रहा था, वह एक ही है। यही दिव्य ध्वनि ही उस परम पिता परमात्मा का स्वरूप है, जिसकी खोज हर धर्म के साधक को है।
दिव्य ध्वनि का प्रभाव
यह दिव्यध्वनि या दिव्यवाणी उस पवित्र जल के समान है, जो हमारे मन की समस्त मैल को धोने की क्षमता रखता है। यही संसार रूपी समुद्र से पार होने का मार्ग है। बंधन मुक्त गुरु और परमपिता के मुख से निकली हुई दिव्य वाणी के बिना मुक्ति संभव नहीं होती। उपनिषदों में भी दिव्य ध्वनि या अनाहत नाद को मन को वश में करने वाला अचूक नुस्खा माना है। नाद बिन्दुपनिषद् में वर्णित है कि यह मन रूपी आंतरिक विकार, अनाहत नाद या दिव्य ध्वनि को ग्रहण कर, सुहावने नाद की गंध से बंध कर तत्काल सभी इच्छाओं और वासनाओं का परित्याग कर, संसार को भूलकर यह एकाग्र हो, स्थिर हो जाता है। निरन्तर नाद का अभ्यास करने से वासनाएं कमजोर हो जाती हैं, मन और प्राण निराकार ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं।
दिव्यध्वनि का प्रभाव इतना गहरा और व्यापक होता है कि पशु-पक्षी से भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते।जब देवदत्त ने बुद्ध को मतवाले हाथी के पैरों से कुचलने की कुचेष्टा की तो वह हाथी बुद्ध के पास आकर उनके सामने सिर झुकाकर शांत भाव से खड़ा हो गया। शायद यही वजह है कि वन में निवास करने वाले ऋषि-मुनियों को खुंखार जंगली जानवर कभी हानि पहुंचाने का प्रयास नहीं करते और ऋषि-मुनियों को भी उनसे कभी कोई भय नहीं होता होगा। तपस्वी महात्माओं या संतों का अहिंसा का अनुसरण और शांत भाव जंगली जंतुओं का भी हृदय परिवर्तन कर देता है। संत महत्माओं को यह शक्ति और ऊर्जा, उसी दिव्य ध्वनि के निरंतर अभ्यास से प्राप्त होती है।
राजेंद्र कुमार शर्मा