Wednesday, July 3, 2024
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खेती को सिर्फ पैसे से न जोडें, आहार भी मानें

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खेती सिर्फ पैसे के लिए नही, बल्कि आहार के लिए भी होती है। पंजाब में जहां रासायनिक उर्वरकों का उपयोग ज्यादा होता है, वहां किसानों की आत्महत्या ज्यादा होती है और एक रिपोर्ट के मुताबिक भटिंडा ‘कैंसर सिटी’ बन गया है। इतना ही नहीं एक आंकड़े के मुताबिक 30 फीसदी कीटनाशक ही छिड़काव के दौरान फसल पर असर दिखाते हैं, बल्कि 70 फीसदी हवा में ही रह जाता है। जिसकी चपेट में आकर कैंसर जैसी बीमारियों को किसान सबसे पहले बुलावा देता है। ऐसे में अब इसको लेकर सरकार और किसान दोनों को सचेत होना चाहिए।

भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्वपूर्ण भूमिका है। कृषि न केवल हमारी आर्थिक उन्नति की राह को सुगम बनाती है बल्कि यह हमारी सामाजिक व आध्यात्मिक उन्नति का भी साधन है। कृषि हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है, लेकिन वर्तमान परिदृश्य में मानव के बढ़ते लालच ने कृषि में विष घोल दिया है। एक समय था जब हरित क्रांति के दौर में कृषि रसायनों ने चार चांद लगा दिए थे। लेकिन मानव की बढ़ती महत्वाकांक्षा व सीमित भूमि में अधिक उत्पादन के लालच के चलते रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध प्रयोग शुरू कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि आज वातावरण प्रदूषित हो चला है। मानव ने मिट्टी, जल यहां तक की हवा को भी जहरीला बना दिया है।

रसायनों के बढ़ते प्रयोग से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से न केवल मानव जीवन प्रभावित हुआ है। बल्कि पशु-पक्षी और जलीय जीव- जंतुओं का जीवन भी संकट के दौर से गुजर रहा है। उल्लेखनीय हो कि जो फल व सब्जी एक समय सेहत का खजाना मानी जाती है। आज उनमें जहर घुल गया है। कैमिकल के बढ़ते प्रयोग से न केवल हमारी वर्तमान पीढ़ी बल्कि आने वाली पीढ़ी भी बीमारियों की चपेट में आ गई है। आज बड़े पैमाने पर डीडीटी, एल्ड्रिन, मेलाथियान जैसे कीटनाशक फसलों के कीड़े मारने के लिए उपयोग किए जा रहे है। जिससे पक्षियों की कई प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है।

इतना ही नहीं मृदा की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने वाले जीव भी इन खतरनाक रसायनों की चपेट में आकर नष्ट हो गए है। एक अध्ययन की बात करें तो उससे यह पता चला है कि कीटनाशक के अत्यधिक प्रयोग से कैंसर का खतरा बढ़ गया है। यहां तक कि हमारे हार्मोन, प्रोटीन सेल व डीएनए को क्षति पहुंच रही है। जिससे असमय थकान, संक्रमण बीमारियों का खतरा, उम्र से पहले बुढ़ापे जैसी समस्या भी बढ़ गईं है।

भारत में कीटनाशक और रसायनों के बेजा इस्तेमाल के कारण नेपाल ने हमारे फलों व सब्जियों पर रोक तक लगा दी थी। यह वाकया तो आप सभी को याद होगा ही। इसके अलावा दिल्ली हाईकोर्ट ने भी सब्जियों में कीटनाशक के प्रयोग से सम्बंधित जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान कहा था कि फलों को पकाने के लिए कीटनाशक व रसायनों का प्रयोग उपभोक्ता को जहर देने के समान है। आज भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कीटनाशक उत्पादक देश है।

वहीं हमारे देश में आज भी बड़े पैमाने पर प्रतिबंधित कीटनाशकों का भी धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है। आंकड़ों की मानें तो हमारे देश में 2019- 2020 में देश में 60,599 टन कैमिकल पेस्टिसाइज का छिड़काव किया गया। जिनमें महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, हरियाणा व पंजाब में सर्वाधिक रसायनों का प्रयोग किया जा रहा है। एक समय था जब खेती को लेकर यह कहावत कही गई थी कि ‘उत्तम खेती मध्यम बान। अधम चाकरी भीख निदान…’ पर आज के वर्तमान दौर में हमारे युवा खेती से विमुख हो रहे है। खेती को लाभ का सौदा बनाने के लिए किसान ने खेती में जहर घोल दिया है। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कृषि विशेषज्ञ, पर्यावरणविद यहां तक कि सरकार भी इसे रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं कर रही है।

आज देश के छोटे किसानों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। देश में 86 प्रतिशत किसान छोटे व माध्यम श्रेणी के है। जिन्हें सरकार द्वारा उवर्रक सब्सिडी का लाभ तक नहीं मिल पाता है। किसान कर्ज के बोझ तले दब जाता है। पर हमारी रहनुमाई व्यवस्था को भला कहाँ किसान की दिशा और दशा से फर्क पड़ने वाला है। उन्हें तो हर मुद्दे पर सिर्फ राजनीति ही करनी है। यही वजह है कि समय समय पर किसान आंदोलनों के नाम पर तमाम राजनेता अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज नहीं आते है। हमारे देश मे खेती को सदैव पूजनीय माना है। यहां तक कि हमारे वेदों पुराणों में भी खेती का जिक्र मिलता है। त्रेता युग में मिथिला के महाराज जनक के द्वारा खेत में हल चलाने की बात कही गई है। तो वही द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम भी हल धारण कर हलधर कहलाये। आज भी किसान बलराम को खेती के आराध्य देव के रूप में पूजते है। ये सच है कि कृषि सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला साधन है। यहां तक कि हमारे देश के कई बड़े कारखाने कृषि उत्पाद पर आधारित है।

आज भले ही कृषि की जमीन बढ़ते शहरीकरण से कम हो रही है। लेकिन इसका यह मतलब तो कतई नहीं कि अंधाधुंध कैमिकल का प्रयोग कर फसल की पैदावार बढ़ाई जाए। आज विश्व में जलवायु परिवर्तन का दौर चल रहा है। बढ़ते प्रदूषण ने न केवल हमारे वर्तमान को बल्कि आने वाली पीढ़ी को भी संकट में डाल दिया है। हमारा देश विविधताओं से भरा है। यहां न केवल प्रकृति और जैव विविधता मौजूद है। बल्कि समाज में जाति धर्म में विविधता विद्यमान है। एक और समाज का एक बड़ा तबका विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है। यहां तक कि उनके पालतू जानवर भी वीआईपी जीवन जी रहे है तो दूसरी तरफ एक तबका दो जून की रोटी को तरस रहा है। अमीरी गरीबी की खाई दिन दूनी बढ़ती चली जा रही है।

ऐसे में प्रेम चंद ने जब ‘पूस की रात’ कहानी लिखी होगी तो उनके मन में यही भाव चल रहे होंगे। कहनी में एक समय जब हल्कू अपने कुत्ते से कहता है कि क्यों जबरा जाड़ा लगता है? कहा तो था कि घर में पुआल पर लेट , तो यहां क्या लेने आया…? यह खेती का मजा है! और भगवान ऐसे पड़े है, जिनके पास जाड़ा जाए तो गर्मी से घबराकर भागे…मंजूरी हम करें मजा दूसरा लुटे” यह समस्या हल्कू की नहीं बल्कि वर्तमान दौर के किसानों की भी है। जो वर्तमान दौर में समस्याओं से जूझ रहे है। कहने को हम कृषि प्रधान देश है, लेकिन आज भी हमारे देश में लोग भूख से मर रहे हैं और अधिक पैदावार के लिए किसान कैमिकल का जबरदस्त प्रयोग इसलिए भी कर रहें हैं ताकि उन्हें कुछ मुनाफा हो सके। ऐसे में सरकार को भी सोचना चाहिए कि कैसे खेती को लाभ का धंधा बिना रासायनिक उर्वरकों के बनाया जाएं, क्योंकि कीटनाशक इस्तेमाल करने वाले क्षेत्रों में खुदकुशी ज्यादा मात्रा में किसान ही करते हैं।

ऐसा हम नहीं आंकड़े कहते हैं और खेती किसानी के मुद्दे पर विशेष दक्षता रखने वाले उपेंद्र दत्त कहते हैं, कि माना भारत के किसान ने जानकारी के अभाव में ज्यादा कीटनाशक डाला जिसमे उनको नुकसान हुआ। लेकिन यूरोप के देशों में कीटनाशकों को क्यों बैन करना पड़ा? ऐसे में खेती सिर्फ पैसे के लिए नही, बल्कि आहार के लिए भी होती है। पंजाब में जहाँ रासायनिक उर्वरकों का उपयोग ज्यादा होता है वहाँ किसानों की आत्महत्या ज्यादा होती है और एक रिपोर्ट के मुताबिक भटिंडा ‘कैंसर सिटी’ बन गया है। इतना ही नहीं एक आंकड़े के मुताबिक 30 फीसदी कीटनाशक ही छिड़काव के दौरान फसल पर असर दिखाते हैं, बल्कि 70 फीसदी हवा में ही रह जाता है। जिसकी चपेट में आकर कैंसर जैसी बीमारियों को किसान सबसे पहले बुलावा देता है। ऐसे में अब इसको लेकर सरकार और किसान दोनों को सचेत होना चाहिए।

सोनम लववंशी


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