Sunday, May 25, 2025
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साहित्य के लिए जरूरी है संशय, सवाल और दुविधा!

Ravivani 29


सुधांशु गुप्त |

आप कितनी भी किताबें पढ़ लीजिए लेकिन उन किताबों की संख्या हमेशा ज्यादा रहेगी, जो आपने नहीं पढ़ी हैं। तो क्यों न ऐसी किताबें पढ़ी जाएँ, जिनमें एक किताब को पढ़कर ही कई किताबों का सुख हासिल हो जाए। वरिष्ठ कहानीकार और वैचारिक स्तर पर बेहद समृद्ध योगेन्द्र आहूजा की हाल ही में कथेतर गद्य ‘टूटते तारों तले’ (नवारुण प्रकाशन) पढ़ते हुए यही एहसास हुआ कि आप दुनिया के बहुत से कवियों, कहानीकारों, उपन्यासकारों को एक साथ पढ़ रहे हैं। इतना ही नहीं, यह किताब यह भी सिखाती है कि कहानियों को, कविताओं को, उपन्यासों को कैसे पढ़ा जाना चाहिए, कैसे उन्हें समझना चाहिए और कैसे वे आपको लंबे समय तक याद रह सकती हैं। यह किताब कोई आदर्श पाठकों पर आरोपित नहीं करती बल्कि उन संशयों, दुविधाओं और सवालों को भी सामने लाती है, जो हर पाठक और लेखक के मन में रहते हैं। योगेन्द्र आहूजा संभवत: पहले ऐसे हिन्दी रचनाकार दिखाई दिये जो अपने लिखे के प्रति संशय में रहते हैं। अ्यथा हर कथाकार अपने लिखे के प्रति पूरी तरह आश्वस्त रहता है। योगेन्द्र आहूजा ने इस किताब की भूमिका में कहा भी है: इन पन्नों में क्या है? कुछ कथेतर गद्य, आलेख और टिप्पणियाँ, बेतरतीबी के ढाँचे में बंधे हुए। कुछ सोच-विचार, सवाल जवाब, असमंजस, ऊहापोह, दुविधाएं, संशय, यकीन, संस्मरण और आत्म संस्मरण, कुछ वक्तव्य और विवेचनाएँ, दुखती धड़कनें, कुछ समय से बातचीत, कुछ अपने आप से। यानी इस पुस्तक में लेखक होने की विभिन्न छवियाँ मिलेंगी। योगेन्द्र पिछली सदी के प्रसिद्ध कवि-लेखक बोर्गेस के कथन के हवाले से कहते हैं, मैं वे सभी लेखक हूं जिन्हें पढ़ चुका हूं, सभी लोग जिनसे मिला हूं, सभी महिलाएं जिन्हें प्रेम किया, और सभी शहर जिन्हें मैंने देखा है। इस पूरी किताब में जीवन की तरह कुछ भी तरतीब से नहीं है, लेकिन ऐसा भी नहीं जिसमें दर्शन, लेखन और लेखकों से रिश्ते दिखाई न देते हों। इसमें निर्मल वर्मा के प्रति आत्मीयता दिखाई देती है तो कुछ मुद्दों को लेकर उनका विरोध भी योगेन्द्र दर्ज कराते हैं। वह कहानी पर भी बात करते हैं। कहानियों को लेकर वह इजरायली लेखक एमोस ओज से लेकर मुक्तिबोध, निर्मल, अमरकांत, ज्ञानरंजन, स्वयं प्रकाश, मंजूर एहतेशाम, संजीव और शिवमूर्ति की कहानियों का उल्लेख करते हैं। वास्तव में वह एक सिरे से दूसरे सिरे तक अपने समय को ही टटोल रहे हैं।

योगेन्द्र आहूजा ‘परे हट, धूप आने दे’ आलेख में कुछ वाक्यों का उल्लेख करते हैं। ये वाक्य उनके पास समय समय पर जमा होते रहे। इन वाक्यों को योगेन्द्र आहूजा अपनी डायरी में नोट किया करते थे। लेकिन ये सभी वाक्य भी लेखक की मन:स्थिति, उनकी विनम्रता, अध्ययनशीलता और बेचैनियों को ही दशार्ते हैं। कुछ वाक्यों पर नजर डालिए: वक्त आ गया है जब हमें अपने अपने रास्ते जाना होगा-मुझे मरने और आपको जीने। इनमें से कौन सा बेहतर है ये तो ईश्वर ही जानता है। और भी बहुत से वाक्य हैं। कोई ब्रेख्त की कविता से लिया गया है तो कोई ताल्स्ताय की लोकप्रिय कहानी नाच के बाद से, कोई जैनेन्द्र कुमार के उपन्यास त्यागपत्र से, ताल्स्ताय के उपन्यास अन्ना कारेनिना का पहला वाक्य है तो काफ्का के द ट्रायल का अन्तिम वाक्य मिलान कुन्देरा की कहानी-खेल खेल में का अन्तिम वाक्य। वाक्यों की इस कड़ी में यान ओत्वेनाशेक के उपन्यास रोमियो जूलियट से भी वाक्य लिया गया है और प्रेमचंद के गोदान से भी। इन बहुत से वाक्यों से योगेन्द्र आहूजा एक लंबे कालखंड की ना केवल तस्वीर बनाते हैं बल्कि उस कालखंड के जरूरी सवालों पर भी बात
करते हैं।

विजय वर्मा की स्मृति में स्थापित पुरस्कार ग्रहण करते समय जो वक्तव्य उन्होंने दिया, उसमें भी वह लेखन से जुड़े मूल प्रश्नों से नहीं भटके। अपने संकोच और संशयों पर योगेन्द्र बराबर बोलते रहे हैं। वह बोर्गेस के उस कथन को भी याद रखते हैं जो बोर्गेस ने 72 साल की उम्र में कहा था। बीसवीं सदी के सबसे बड़े साहित्यिक व्यक्तित्वों में से एक बोर्गेस ने कहा था, मैं अभी भी कवि बनने की कोशिश कर रहा हूं। तो जाहिर है योगेन्द्र आहूजा भी अपनी रचनाओं को लेकर किसी आश्वस्ति या सुकून से बहुत दूर रहते हैं। रमाकांत स्मृति में स्थापित पुरस्कार ग्रहण करते समय भी योगेन्द्र ने मन के उदगार प्रकट करते हुए यह स्वीकार किया था-मैं अंतमुर्खी और लो प्रोफाइल व्यक्ति हूं और वही होने में खुश हूं। लेखन मेरे लिए कैरियर नहीं है, कुछ पाने का टिकट नहीं, कहीं पहुंचने का पासपोर्ट नहीं। मैं कलावादियों की तरह यह तो नहीं मानता कि रचना खुद अपना लक्ष्य होती है, लेकिन वह अपना रिवार्ड स्वयं होती है, यह जरूर मानता हूं।

आज इस तरह के रचनाकार कम ही देखने को मिलते हैं। लो प्रोफाइल होने के बावजूद वह अपनी प्रतिबद्धताओं से डिगते नहीं हैं। जो बात उन्हें जहाँ कहनी होती है, वह अवश्य कहते हैं। मनुष्यता शायद उनके लिए पहली प्राथमिकता होगी, तभी वह एक ‘छुअन’ की याद में वीरेन डंगवाल की स्मृति में इतना आत्मीय संस्मरण लिख पाए। वीरेन डंगवाल का वह अंतिम स्पर्श वह कभी नहीं भूल पाते। वह इस संस्मरण के अंत में लिखते है: जीवन अगर स्पर्शों का जमा खाता है तो मेरी ‘स्पर्श एलबम’ का अब तक का सबसे चमकीला स्पर्श वही है। अनगिनत बार उसकी याद आँखें गीली कर चुकी हैं। ‘टूटते तारों तले’ को पढ़ना एक लेखक द्वारा लेखन की दुनिया के बहुत सारे सवालों का जवाब खोजने की कोशिश है। यह कोशिश इतनी ईमानदार है कि इसपर किसी तरह का कोई संदेह नहीं होता। योगेन्द्र आहूजा दुनियाभर का साहित्य पढ़ते-समझते हैं लेकिन वह किसी का भी शिष्य होना स्वीकार नहीं करते। बड़े से बड़े लेखक से वह सीखते हैं, लेकिन रचनाओं पर सवाल उठाना वह अपना धर्म मानते हैं। इसी पुस्तक में उनका एक साक्षात्कार भी है जिसमें उन्होंने कहा है कि मुझे साक्षात्कार देना नहीं आता। लेकिन इसी में उन्होंने यह भी माना है कि लेखन अब सिर्फ एक कैरियर है। साक्षात्कार में एक जगह वह कहते हैं-हिंदी में रचनाओं की चर्चा का तंत्र मायावी है। वह कैसे किन आधारों पर संचालित होता है, समझ पाना आसान नहीं। वह मेरे लिए भी एक रहस्य है। यह तो स्पष्ट है कि रचनाओं की चर्चा का आधार केवल गुणवत्ता नहीं होता और यह भी कि जो उसे संचालित करते हैं उनका कला या साहित्य के मूल्यों से कुछ लेना-देना नहीं। आत्मप्रचार और आत्म-अभिनंदन अब साहित्य की दुनिया का आम चलन हो गया है।


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