इंडो-पैसिफिक में चीन के विस्तारवादी मंसूबों को साधने के लिए आस्ट्रेलिया, अमेरिका और ब्रिटेन ने एक नए सुरक्षा समझौते आकस (एयूकेयूएस) की घोषणा की है। क्वाड की तर्ज पर आधारित इस समझौते का मकसद इंडो-पैसिफिक में चीन की रणनीतिक कोशिशों पर नियंत्रण लगाना है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्काट मॉरिसन और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने वर्चुअल प्रेस कॉफ्रेंस के जरिए इस समझौते को दुनिया के सामने रखा। समझौते में आस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बी के विकास में मदद करने का ऐलान किया गया है। समझौते की घोषणा से चीन तिलमिला गया है। उसने समझौते की आलोचना करते हुए इसे शीत युद्ध की मानसिकता का प्रतीक बताया है। उधर, समझौते से रूष्ट होकर फ्रांस ने अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन पर पीठ में छुरा घोंपने का आरोप लगाते हुए अमेरिका और आस्ट्रेलिया से अपने राजदूत वापस बुला लिए है।
24 सितंबर को वाशिंगटन डीसी में क्वाड (भारत, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और जापान) की अहम बैठक होने वाली है। क्वाड की बैठक से ठीक पहले आकस की घोषणा से वैश्विक मोर्चें पर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं।
पहला और सबसे अहम सवाल तो यही है कि चीन को घेरने के लिए जब क्वाड और ‘फाइव आइज’(अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड) रणनीतिक मोर्चें पर पूरी तरह सक्रिय है, तो आकस की जरूरत क्यों महसूस हुई। द्वितीय, क्वाड की बैठक से ठीक पहले इस तरह के समझौते की घोषणा का अर्थ क्या है।
अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया कि इस कवायाद का उद्देश्य कहीं क्वाड को कमजोर करना तो नहीं है। अगर ऐसा है तो क्वाड पर इतराने वाले चीन के परम्परागत विरोधी भारत और जापान जैसे देशों का क्या होगा।
एक और सवाल जो इन परिस्थितियों में जरूरी जान पड़ता है, वह यह है कि चीन के विरूद्ध आस्ट्रेलिया की इस मुखरता की वजह क्या है।
यह सवाल इसलिए जरूरी है, क्योंकि आकस से पहले आस्ट्रेलिया क्वाड के जरिए भी चीन की घेराबंदी में जुटा हुआ है। कहीं ऐसा तो नहीं कि साउथ चाइना सी और इंडो-पैसिफिक में छिड़ा शक्ति संघर्ष जल्द ही दक्षिणी गोलार्द्ध की ओर शिफ्ट हो जाएगा।
दरअसल, हाल के वर्षों में चीन पर साउथ चाइना सी और इंडो पैसिफिक में तनाव बढाने के आरोप लग रहे हैं। उस पर दक्षिण चीन सागर में कृत्रिम द्वीपों का निर्माण करने के आरोप भी हैं।
अमेरिका अपने सहयोगी देशों के साथ मिलकर चीन की इस विस्तारवादी मानसिकता पर लगाम लगाना चाहता हैं।
हालांकि, एक समय में चीन और आस्ट्रेलिया के बीच अच्छे संबंध रहे हैं। चीन आस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार भी रहा है।
लेकिन कोरोना महामारी को लेकर चीन की भूमिका की जांच की मांग किए जाने के बाद दोनों के संबंधों में दरार आ गई। चीन की 5-जी नेटवर्क परियोजना को रद करने व वीगर मुसलमानों को लेकर चीन की आलोचना करने के बाद यह दरार और गहरी हो गई।
अगस्त 2020 में आस्ट्रेलिया के एक अखबार द्वारा कोविड 19 महामारी पर तैयार की गई रिपोर्ट को सार्वजनकि किए जाने के बाद चीन- आस्ट्रेलिया के संबंध और अधिक खराब हो गए।
‘फाइव आइज’ द्वारा तैयार कि गई इस रिपोर्ट में चीन द्वारा चमगादड़ पर रिसर्च, घातक वायरस बनाने, शुरुआती सैम्पलस पर रिसर्च को छिपाने और लैब वर्कर के गायब होने पर कई खुलासे किए गए थे।
इसके बाद चीन ने आस्ट्रेलिया के आक्रामक रूख के विरुद्ध कदम उठाते हुए न केवन आस्ट्रेलिया से आयात की जाने वाली शराब व ब्रीफ पर प्रतिबंध लगा दिया, बल्कि आस्ट्रेलिया में अपने निवेश को साठ फीसद तक कम कर दिया।
दूसरा, आकस के निर्माण की एक ओर बड़ी वजह अफगानिस्तान में अमेरिकी रणनीतिक विफलता को भी कहा जा रहा है। अफगानिस्तान में अमेरिकी किरकिरी से उपजी खीज को मिटाने के लिए बाइडेन बैचेन थे। आॅकस इसी खीज को मिटाने की कोशिश है।
लेकिन आकस का एक स्याह पक्ष फ्रांस, कनाडा, न्यूजीलैंड और यूरोपियन यूनियन की नराजगी भी है। समझौते से फ्रांस सबसे ज्यादा कुपित हैं। फ्रांस की नराजगी जायज भी है। आस्ट्रेलिया ने साल 2016 में फ्रांस से पनडुब्बियों को खरीदने संबंधी समझौता किया था।
90 अरब डॉलर के इस समझौते के तहत फ्रांस आस्ट्रेलिया को पारंपरिक रूप से संचालित 12 पनडुब्बियां बेचने वाला था। अब आकस के अस्त्तिव में आने के बाद यह समझौता रद हो जाएगा।
आकस को दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से अब तक का सबसे अहम सुरक्षा समझौता कहा जा रहा है। समझौते के बाद आस्ट्रेलिया को घातक परमाणु पनडुब्बी और अमेरिकी क्रूज मिसाइलें मिलने का रास्ता खुल जाएगा।
पिछले पांच दशक में यह पहला अवसर है, जब अमेरिका अपनी पनडुब्बी तकनीक किसी देश के साथ साझा कर रहा है। इससे पहले अमेरिका ने केवल ब्रिटेन को यह तकनीक उपलब्ध करवाई थी।
यद्यपि अमेरिका और ब्रिटेन के साथ समझौते में बंधकर आस्ट्रेलिया अति उत्साही है। इस तकनीक के मिल जाने के बाद आस्ट्रेलिया परमाणु ऊर्जा से संचालित पनडुब्बियों का निर्माण करने में सक्षम हो जाएगा।
लेकिन स्काट मोरिसन को यह नहीं भूलना चाहिए कि सहयोगियों के हितों से अधिक स्वयं के हितों को प्राथमिकता देना अमेरिकी विदेश नीति की विशेषता रही हैं।
अफगानिस्तान का हालिया घटनाक्रम अमेरिका की रिश्तों के प्रति संवेदनशीलता को चीख-चीख का बयां कर रहा है। ऐसी ही संधि साल 1951 में अमेरिका ने न्यूजीलैंड के साथ की थी, जो आज हाशिय पर है। ऐसे में कहीं यह न हो कि मोरिसन के उत्साह पर बाइडेन की कूटनीति भारी पड़ जाए।