चंद्र्र प्रभा सूद |
एक गाने की पंक्तियां मुझे याद आ रही हैं, जिसमें कवि ने ईश्वर से इस संसार में आकर कुछ समय रहने के लिए प्रार्थना की है-भगवान दो घड़ी जरा इन्सान बन के देख/धरती पे चार दिन का मेहमान बन के देख…इन पंक्तियों में कवि के मन की वेदना छलक रही है। इसका अर्थ हम कर सकते हैं कि दुखों और परेशानियों से घिरा मनुष्य ईश्वर को उलाहना दे रहा है कि ऊपर बैठा वह बस उसे कष्टों में घिरा देखता रहता है। यदि वह इस संसार में कुछ दिन के लिए इन्सान बनकर आ जाए तो उसे भी यह अहसास हो जाएगा कि मनुष्य का जीवन फूलों की सेज नहीं है बल्कि काँटों पर चलते रहने का नाम होता है। यदि भगवान भी इन्सान बनेगा तो उसे भी चैन से बैठना नसीब नहीं होगा, उसे भी हम मनुष्यों की तरह सारी आयु पापड़ बेलने पड़ेंगे।
उसे भी सारा समय सुखों के मीठे फल खाने होंगे और दुखों के थपेड़े भी सहने होंगे। वह अपनी सृष्टि के बनाए इन नियमों से मुक्त नहीं हो सकेगा। जब वह साधारण मनुष्यों की भांति जन्म लेगा तो वह भी इस संसार के आकर्षणों के मकड़जाल से बच नहीं पाएगा यानी अछूता नहीं रहेगा। आज हम उन महापुरुषों की चर्चा करेंगे जिन्हें हम भगवान कहते हैं। जब उनका इस सृष्टि में अवतरण हुआ तो सांसरिक स्थितियाँ उनके लिए सहज व सरल नहीं थीं बल्कि विपरीत ही थीं।
भगवान राम का जन्म राजा दशरथ के घर में बहुत समय बाद हुआ था। उनके युवा होने से लेकर राक्षसों से युद्ध करते रहे। जब उन्हें राज्य मिलना निश्चित हुआ, उस समय उनकी सौतेली माता कैकेयी ने उन्हें चौदह वर्ष का बनवास दे दिया।
वे भगवती सीता और भाई लक्ष्मण के साथ राज्य का सुख भोगने के स्थान पर वन में चले गए। वहां सीता जी का अपहरण हो गया, उसके बाद उन्हें ढूंढते हुए यहां-वहां जंगलों में भटकते रहे। फिर रावण से युद्ध जीतने के बाद राज्य का सुख भोग भी नहीं पाए थे कि गर्भावती सीता जी से पुन: वियोग हुआ। कितना दुर्भाग्य था कि अपने बच्चों को भी नहीं पहचान सकते थे और बाद में जब बच्चे मिले तो पत्नी मां सीता से वियोग हो गया। अन्त में उन्होंने सरयू नदी में जलसमाधि ली।
अब भगवान श्रीकृष्ण के जीवन पर दृृष्टिपात करते हैं। उनका जन्म मथुरा की जेल में हुआ था। उनके पैदा होने से पहले मृत्यु उनका इन्तजार कर रही थी। जिस रात उनका जन्म हुआ, उसी रात उन्हें अपने माता-पिता से अलग होकर गोकुल में बाबा नन्द और यशोदा माँ के पास जाना पड़ा। उनका बचपन गायों को चराने में बीता। अभी जब वे चल भी नहीं सकते थे, उस समय उन पर कई प्राणघातक हमले हुए।
उनके पास कोई सेना नहीं थी। कोई शिक्षा भी उन्हें नहीं मिल सकी। उन्हें कोई महल भी नहीं मिला। उनके अपने सगे मामा ने उन्हें अपना सबसे बड़ा शत्रु समझा। वह उन्हें मारने के उपाय करता रहता था। बड़े होने पर उन्हें ऋषि सन्दीपनि के आश्रम में जाने का अवसर मिला। अपनी पसंद की लड़की से विवाह करने का अवसर भी उन्हें नहीं मिला।
उन्हें बहुत से विवाह राजनैतिक कारणों से या उन स्त्रियों से करने पड़े जिन्हें उन्होंने राक्षसों से छुड़ाया था। जरासन्ध के प्रकोप के कारण उन्हें अपने परिवार को सुदूर प्रान्त में समुद्र के किनारे बसाना पड़ा। दुनिया ने उन्हें रणछोड़ या कायर तक कहा। पाण्डवों के महाभारत का युद्ध जीतने का श्रेय भगवान कृष्ण को न मिलकर अर्जुन को मिला। कौरवों ने अपनी हार का उत्तरदायी श्रीकृष्ण को माना। अन्त में एक शिकारी के द्वारा पैर पर मारे गए तीर से उनकी मृत्यु हुई।
भगवान कहे जाने वाले महामानवों भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में घटने वाली ये सभी घटनाएं इसी बात का द्योतक हैं कि सारी आयु वे भी मनुष्यों की तरह दुख-सुख के हिण्डोले में ही झूलते रहे। इस संसार में जो भी जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। कोई भी जीव कर्मफल के चक्र के फेर से नहीं बच सकता, फिर चाहे मनुष्य के रूप में भगवान ही क्यों न अवतरित हो जाए।
चारों पुत्रों के विवाह के बाद पुत्रों, वधुओं और समस्त सेना के साथ जनकपुर से अयोध्या लौटते महाराज दशरथ के पथ में अचानक तेज आंधी चलने लगी। अत्यधिक धूल के कारण दिखना बंद हो गया, सैनिक इधर-उधर भाग कर छिपने लगे। कुछ क्षण बाद आंधी कम हुई तो सबने देखा, सामने से जमदग्नि कुमार भगवान परशुराम आ रहे थे। अयोध्या के ऋषि समाज ने आगे बढ़ कर उनकी आगवानी की पर क्र ोध से भरे परशुराम सीधे दाशरथि राम के पास पहुंचे और अपना धनुष दे कर कहा, ‘मैंने तुम्हारी वीरता की चर्चा सुन ली है वीर। मुझे यह भी ज्ञात है कि तुमने भगवान शिव के धनुष को भी तोड़ दिया है किंतु मैं तुम्हारी शक्ति को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूं। संसार में दो धनुष सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। उनमें एक शिव के धनुष को तुमने तोड़ दिया, दूसरा भगवान विष्णु का धनुष मेरे पास है।
तुम इसकी प्रत्यंचा चढ़ा सको तो मैं तुम्हें अपने साथ द्वंद्वयुद्ध का अवसर दूंगा।’ महाराज दशरथ भगवान परशुराम के तेज को जानते थे। वे उनसे शांत होने की प्रार्थना करने लगे। वशिष्ठ आदि ऋषियों ने भी परशुराम से शांत होने की प्रार्थना की किंतु उन्होंने किसी की ओर ध्यान नहीं दिया। वे राम से ही बात करते रहे। मुस्कुराते राम ने उनके हाथ से धनुष लिया और क्षण भर में ही प्रत्यंचा चढ़ा कर बाण खींच लिया। फिर उन्होंने परशुराम की ओर मुड़ कर कहा, ‘आप ब्राह्मण हैं भगवन! सो मैं आप पर तो प्रहार नहीं कर सकता। अब आप ही बताइये कि इस बाण से किस पर प्रहार करूं। क्यों न मैं इस तीर से आपके समस्त पुण्यों का नाश कर दूं…।’
परशुराम जड़ हो गए थे। अब तक दूर खड़े महर्षि विश्वामित्र आगे बढ़े और हाथ जोड़ कर रहस्यमय स्वर में कहा, ‘पहचान लिया भगवान?’ परशुराम मुस्कुराए। राम की ओर बढ़ कर समर्पण के भाव से कहा, ‘शीघ्रता कीजिए प्रभु! अपने बाण से मेरी समस्त प्रतिष्ठा को समाप्त कर दीजिए। अब से यह युग आपका है, आप संभालें इसे। मैं अब निश्चिन्त हो कर महेंद्र पर्वत जा कर तप करूंगा।’ मुस्कुराते राम ने बाण वायु में छोड़ दिया और परशुराम उन्हें प्रणाम कर के वापस महेंद्र पर्वत चले गए।