Saturday, May 24, 2025
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भूमंडलीकरण ने बढ़ाई विषमता

Samvad


ATVEER SINGHविश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रैगनार नर्कसे ने कहा है, ‘पॉवर्टी एनीवेयर इज ए थ्रेट टू प्रोसपेरीटी एवरी वेयर’ यानी अर्थव्यवस्था का यदि कोई क्षेत्र अल्पविकसित है तो वह अन्य समृद्ध क्षेत्रों के विकास में भी एक अवरोध का कार्य करेगा। अर्थव्यवस्था के किसी एक कोने को उपेक्षित रखकर संपूर्ण अर्थव्यवस्था के समग्र विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। किसी भी देश के विकास का मानक केवल उसकी आर्थिक संवृद्धि दर को ही नहीं माना जा सकता है, बल्कि उस देश के समग्र विकास के लिए आर्थिक संवृद्धि का समुचित वितरण भी अनिवार्य है। आर्थिक नीतियों की वजह से यदि देश के आर्थिक संसाधनों पर केवल चंद लोगों का नियंत्रण बढ़ रहा है तो इससे समाज में विकृतियां उत्पन्न होंगी और वो नीतियां लंबी अवधि तक टिकाऊ नहीं रह पाएंगी। देश के समग्र विकास के लिए आर्थिक संवृद्धि का लाभ हाशिए के लोगों तक भी पहुंचाना जरूरी है।

इससे समाज आर्थिक रूप से न केवल समृद्ध होगा बल्कि मानसिक रूप से स्वावलंबी भी बनेगा। पूरी दुनिया वैश्वीकरण और उदारीकरण के पीछे भाग रही है। साम्यवादी चीन भी पूरी तरह नवउदारवादी नीति पर चल रहा है। विदेशी और निजी पूंजी की बहस में विचार लगभग गौण हो चुका है। चीन एक अधिनायक वादी देश है, इसलिए चीन में किसी नीति को लागू करना या खारिज करना इतना कठिन नहीं है।

भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य होने के कारण यहां पर आर्थिक नीतियों में किसी भी परिर्वतन को लोक विमर्श से गुजरना पड़ता है। यदि नीति में परिर्वतन जन-पक्षधर नहीं हैं तो उसका लागू कर पाना बहुत कठिन होता है। हालांकि कुछ विद्वान जन-पक्षधरता को प्रमाणित करने के ‘लोकतांत्रिक बोझ’ के चलते भारत को आर्थिक मोर्चे पर चीन से पिछड़ने की मुख्य वजह मानते हैं।

भारत में 1990 के दशक में शुरू की गई नई आर्थिक नीतियों के लाभ का दायरा बहुत विस्तृत न होकर केवल संगठित क्षेत्र तक सीमित रहा। भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना जाने वाले असंगठित क्षेत्र और विशेष रूप से कृषि क्षेत्र को नई आर्थिक नीतियों के लाभों से वंचित रखा गया।

नई आर्थिक नीति के अंतर्गत आर्थिक क्षेत्र में राज्य की भागीदारी को न्यूनतम रखते हुए निजी क्षेत्र का दायरा बढ़ाने पर विशेष जोर रहा है। इसी कारण सरकारों को, विशेष रूप से कृषि क्षेत्र से जुड़े संगठनों द्वारा और असंगठित क्षेत्र से जुड़े मुद्दों को लेकर कतिपय आंदोलनों के माध्यम से, सरकार की आर्थिक नीतियों के विरुद्ध प्रतिरोध का सामना करना पड़ा।

पिछले लगभग तीन दशक से अधिक के दौर में भूमंडलीकरण ने लोगों के जीवन पर काफी असर डाला है। निसंदेह इसने कुछ लोगों के लिए अवसरों के नए द्वार खोले है और उनकी पूंजी बढ़ाने में मदद की है, पर अधिकांश लोगों के लिए यह बेरोजगारी एवं गरीबी लेकर आया है।

इसके कारण पूंजी कमाने वाले बहुत कम हैं, परंतु गंवाने वाले बहुत अधिक हैं। विजेताओं की लिस्ट में उच्च मध्यम वर्ग, धनाढ्य वर्ग एवं अति धनाढ्य वर्ग शामिल हैं जबकि विकसित देशों में निम्न मध्यम वर्ग और विकासशील देशों में गरीब एवं हाशिए के लोग वंचितों में शामिल हैं। इस सब के लिए, भले ही भूमंडलीकरण अकेला जिम्मेवार न हो, पर एक महत्वपूर्ण कारक जरूर है।

नई आर्थिक नीति के तहत विदेशी पूंजी निवेश को बढ़ावा देकर आर्थिक वृद्धि के लिए आवश्यक पूंजी जुटाने पर भी जोर दिया गया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि विकासशील देश पूंजी की कमी के चलते अपने संसाधनों का इष्टतम उपयोग नहीं कर पाते। घरेलू पूंजी की अपर्याप्ता इन्हें विदेशी पूंजी पर निर्भर होने को मजबूर करती है।

निसंदेह विदेशी पूंजी के आगमन से देश की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हुई है। इससे विदेशी मुद्रा भंडार में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। लेकिन घरेलू निवेशकों को सुदृढ़ बनाए बिना कोई भी देश अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत नहीं बना सकता। भारत में विदेशी पूंजी निवेश का एक बड़ा हिस्सा मॉरीशस रूट से प्राप्त हो रह है।

इस पर ये आरोप है कि देश का विदेशी बैंकों में जमा काला धन मॉरीशस रूट से एफडीआई के रूप में वापस आ रहा है। यदि यह सच है तो इससे देश में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा और इसके दीर्घकालिक परिणाम भयंकर हो सकते हैं।

राज्य आर्थिक क्षेत्र में निष्क्रिय होकर राज्य की संपत्ति को कुछ चंद हाथों में सिमटते हुए नहीं देख सकता। राज्य की संपत्ति और आर्थिक क्षेत्र में राज्य की सक्रिय भागीदारी, हाशिए के लोगों एवं न्यूनतम आवश्यकताओं से वंचित लोगों के लिए एक अप्रत्यक्ष गारंटी होती है। इसलिए आंखें मूंदकर देश की मुनाफा कमाने वाली नवरत्न कंपनियों के विनिवेश का पुरजोर विरोध जरूरी है।

निजी निवेशकों की सार्वजानिक कंपनियों पर गिद्ध दृष्टि होती है। वो सत्ता के साथ मिलकर सार्वजनिक कंपनियों को निगलने की फिराक में रहती हैं। हमारे संविधान में प्रतिष्ठापित मार्गदर्शक सिद्धांत शासन को यह निर्देश देते हैं कि ‘एक ऐसी समाज व्यवस्था, जिसमें राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं में समाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय समाया हो’ सुनिश्चित करके लोगों के कल्याण को आगे बढ़ाएं।

शासन का प्रयास होना चाहिए कि आय की असमानताओं को कम से कम किया जाय…। नई आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप देश में अमीर-गरीब के बीच की खाई और चौड़ी होती गई है। इसके स्पष्ट प्रमाण देश में नव-धनाढय (अरबपतियों) की उत्पत्ति एवं उनकी बढ़ती संख्या एवं साथ ही गरीबों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि के रूप में देख सकते हैं।

आॅक्सफेम इंडिया की ताजा रिपोर्ट के आंकड़े किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए विचलित करने वाले हैं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के अनुसार विषमता का दोष पूंजीवाद और उदारीकरण में निहित होता है। हाशिए के लोग सरकार के पांच किलो मुफ्त राशन की बदौलत जीवन जी रहे हैं और सरकार इसे अपनी उपलब्धियों में शामिल कर गर्व की अनुभूति कर रही है।

सरकार दिन प्रतिदिन शिक्षा और स्वास्थ्य से अपना हाथ खींचती जा रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं भी निजी पूंजी के की जा रहीं हैं। सामाजिक सरोकार सरकार के एजेंडे से बाहर होते जा रहे हैं। किसानों द्वारा आत्महत्याओं मे तेजी आई है। संपूर्ण व्यवस्था किसी एक खास रंग में रंगी प्रतीत होती है।

नवउदारवादी राजनीति जनतांत्रिक व्यवस्था को खोखला कर रही है। राजनीतिक दलों में धन-बल का और पूंजीपति -राजनीतिक गठजोड़ का बोलबाला है। कोई भी सरकार आए आर्थिक नीतियां ज्यों की त्यों चलती रहेंगी, यह गठजोड़ इस बात की गारंटी देता है। जनता के सामने चुनने का कोई विकल्प न छोड़कर उसे शक्तिहीन बनाया जा रहा है।

संसाधनों और पूंजी के लिए बाजार ने राज्यों को आपस में होड़ कर रही सत्ताओं में बदल कर रख दिया है। शक्तियों से वंचित और साधनों की कमी से जूझ रहे राज्यों को ऐसी स्थिति में ला कर रख दिया है कि वो केंद्र की कृपा हासिल करने के लिए उसके आगे याचक की भूमिका में नजर आते हैं।

योजना आयोग के खात्मे और राष्ट्रीय विकास परिषद के अंत ने राज्यों को और अधिक केंद्र के रहमोकरम पर निर्भर बना दिया है। आर्थिक विचार/नीति का चुनावी मुद्दों में कोई स्थान नहीं है। आर्थिक विचार सत्ता लोलुपता के आगे गौण से हो गए हैं।


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