भारत को विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में जाना जाता है। लोकतंत्र एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें लोग अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को वोट देकर एक ऐसी सरकार चुनते हैं जिस में सभी को समान अधिकार होते हैं। लोकतंत्र समानता, भागीदारी, और मौलिक अधिकारों के सिद्धांतों पर आधारित होता है। संक्षेप में एक लोकतान्त्रिक सरकार जनता की सरकार होती है जो जनता द्वारा,जनता के लिये चुनी जाती है। परन्तु प्राय: यही देखा गया है कि जनता की सेवा के नाम पर चुनावी पोस्टर, बैनर्स व कटआउट में हाथ जोड़े हुए वोट मांगते दिखाई देता नेता चुनाव जीतने के बाद जनता का प्रतिनिधि नहीं बल्कि जनता का ‘बॉस’ बना नजर लगता है। सरकारी सुरक्षा, स्वागत, फूल-माला, जयजयकार, भाषणबाजी, अपने परिजनों व चेलों को फायदा पहुंचाना, जमकर लूट खसोट करना, दबंगई व चौधराहट दिखाना मंत्री बनने की जुगत भिड़ाना, यदि मंत्री हैं तो मुख्यमंत्री पद के लिए लालायित रहना उज्जवल राजनैतिक भविष्य की खातिर दल बदल की संभावनाओं को तलाशना आदि इसी तरह की ‘समाजसेवा’ में माननीय के 5 वर्ष बीत जाते हैं। जनता 5 वर्षों बाद जब स्वयं को ठगा महसूस करती है तो ज्यादा से ज्यादा उसकी जगह किसी दूसरे का चुनाव कर लेती है। और वह भी अपने पूर्ववर्ती के नक़्शे कदम पर चलने लगता है।
माननीयों द्वारा जनता की जरूरतों से मुंह मोड़ने और सारा ध्यान ‘अपनी जरूरतों’ को पूरा करने में लगाने का ही नतीजा है देश में बढ़ती बेरोजगारी, मंहगाई, विकास बाधित होना, बिजली पानी सड़क स्वास्थ व शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतें समुचित तौर से आम जनता तक न पहुंच पाना और अराजकता व कानून व्यवस्था जैसी समस्याओं का लगातार बढ़ते जाना। और जब यही स्थिति अनियंत्रित होने लगती है उस समय यही शातिर नेता जनता से वोट झटकने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं। समाज को धर्म व जातियों के आधार पर विभाजित करते हैं। क्षेत्र व भाषा जैसे भावनात्मक मुद्दे उछाल कर सस्ती लोकप्रियता अर्जित करते हैं, मंदिर मस्जिद जैसे विवादों को पहले खड़ा करते हैं फिर इसे हवा देते हैं। नेताओं द्वारा मतदाताओं को आकर्षित करने के लिये तरह-तरह की मुफ़्त योजनाएं लागू की जाती हैं। जो सरकारें या पार्टियां इन योजनाओं को स्वयं चलाती हैं वे इन योजनाओं को बेहद जरूरी व जनहितकारी बताती हैं जबकि अन्य दलों के नेताओं को ऐसी योजनायें ‘मुफ़्त की रेवड़ी’ नजर आती हैं।
ऐसी योजनाएं जब केंद्र सरकार द्वारा या किसी भाजपा शासित राज्य द्वारा लागू की जाती है तो वह रेवड़ी न होकर ‘जरूरत’ बन जाती है। इतनी बड़ी जरूरत कि मोदी सरकार को अपनी इसी ‘महान उपलब्धि’ पर अपनी पीठ थपथपानी पड़ती है कि वह ’80 करोड़ देशवासियों को मुफ़्त राशन बांट रही है’। इसी वर्ग को वह मतदाताओं की ‘लाभार्थी श्रेणी’ भी समझती है। इतना ही नहीं इन्हीं ‘मुफ़्त खोर’ मतदाताओं की कृपा से शीर्ष पदों पर पहुंचे ऐसे नेताओं में अहंकार भी इस कद्र भर जाता है कि जिस जनता का वोट लेते समय यह अवसरवादी व स्वार्थी नेता इन्हें ‘जनता जनार्दन’ यानी जनता के रूप में ईश्वर कहकर संबोधित करते हैं, इन्हीं नेताओं द्वारा इसी जनता को ‘भिखारी’ कहने में भी इन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होती। जबकि स्वयं प्रधानमंत्री मोदी हर भारतवासी को ‘ईश्वर का अंश’ बता चुके हैं। परन्तु ईश्वर रूपी जनता जनार्दन का ऐसा ही अपमान पिछले दिनों पूर्व केंद्रीय मंत्री व वर्तमान में मध्य प्रदेश के पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री प्रहलाद पटेल द्वारा करते सुना गया। उन्होंने एक सभा में कहा कि अब तो सरकार से भीख मांगने की आदत लोगों को पड़ गई है। नेता आते हैं तो उनको एक टोकरी कागज मिलते हैं। मंच पर माला पहनाएंगे और पत्र पकड़ा देंगे… यह अच्छी आदत नहीं है। लेने के बजाय देने की मानसिकता बनाइए। भिखारियों की फौज इकट्ठा करने से यह समाज मजबूत नहीं होगा। यह समाज को कमजोर करना है।
‘भिखारी’ शब्द के संदर्भ में यहां यह वर्णित करना भी जरूरी है कि हमारे देश के ‘यशस्वी प्रधानमंत्री’ स्वयं अपने कई साक्षात्कार में बता चुके हैं कि उन्होंने 35 /40 वर्षों तक भीख मांगकर अपना जीवन गुजारा है। जिस भीख की बात मोदी जी करते हैं उस भीख का अर्थ तो है कि खुद बिना मेहनत किए दूसरों की कमाई खाना। यदि आप जनता के टैक्स के पैसों से जनता के लाभ के लिए कोई योजनाएं लाते हैं तो वह भीख कैसे हो गई? यदि यह भीख है तो जनता के इन्हीं पैसों से सत्ताधीशों व निर्वाचित सदस्यों का ऐश करना, इन्हीं पैसों से अपनी सुरक्षा पर खर्च करना, तमाम तरह की सब्सिडी लेना निर्वाचित होते ही फर्श से अर्श पर पहुंच जाना, कर्ज मुक्त हो जाना, रातोंरात धन पति बन जाना यह सब क्या है? हमारे देश में ‘अति विशेष व सम्मानित’ समुदाय ऐसा भी है जो बड़े गर्व से यह कहता है कि भिक्षा मांगना हमारे संस्कारों में शामिल है। इसके अलावा स्वयं को पुण्यार्थी समझने वाले दानदाताओं ने ही पूरे भारत में भिखारियों की लंबी फौज बना दी है। हमारे धर्म प्रधान देश का शायद ही कोई ऐसा धर्म स्थान हो जहां भिखारी डेरा न जमाये रहते हों।
यदि जनता अपने क्षेत्र की समस्याओं से संबंधित मांगपत्र अपने निर्वाचित प्रतिनिधि या राज्य के मंत्री को सौंपती है तो यह तो उसका अधिकार है? अपने या प्रदेश के ‘जनसेवक’ से अपनी समस्याएं सांझी नहीं करेगी तो किस से करेगी? आप आखिर हैं किस मर्ज की दवा? क्या जनता के टैक्स के पैसों पर मुफ़्तखोरी करने का अधिकार केवल ऐसे माननीयों का ही है जो जनता को वोट मांगते समय ‘भगवान’ और मंत्री बनने के बाद ‘भिखारी’ बताने लगे?