बीसवीं सदी के अंत में पैदा हुए बच्चे वह अब व्यस्क हो गए हैं। वे अब रोजगार मांग रहे हैं। उनके लिए गुणवत्ता पूर्ण रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना सरकारों की जिम्मेदारी है। 21वीं सदी की पहले राष्ट्रीय शिक्षा नीति का नए भारत पर जोर है, लेकिन पुराने भारत को छोड़ने के लिए वह तैयार नहीं है। पुराने भारत का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। शिक्षा पीढ़ियों के निर्माण में बहुत बड़ा योगदान देती है। समाज में लोगों के जीवन की गुणवत्ता के उन्नयन में भी शिक्षा की महती भूमिका है। किसी भी देश में शिक्षा के प्रसार से न केवल वहां उपलब्ध मानवीय संसाधनों की गुणवत्ता एवं उत्पादकता में वृद्धि होती है बल्कि मानवीय व्यवहार को भी सभ्य, सुलभ, और मूल्यवान बनाने में मदद मिलती है। शिक्षा लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित कर सकती है। मानव जीवन में नैतिकता से कहीं अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। नैतिकता अलग-अलग समाज में अलग-अलग होती है। यदि व्यक्ति के पास वैज्ञानिक दृष्टिकोण है तो मानवता की समझ वह स्वयं ही विकसित कर सकता है, उसे कृत्रिम मानवता पढ़ाने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराना किसी भी सरकार की पहली जिम्मेदारी होनी चाहिए। शिक्षा लाभ कमाने का माध्यम न होकर, अर्थव्यवस्था में मानवीय संसाधनों की गुणवत्ता में सुधार कर, उनकी उत्पादकता में वृद्धि का माध्यम होना चाहिए।
शिक्षा एक सार्वजनिक वस्तु है, इसलिए उच्च शिक्षा न सही, कम से कम माध्यमिक स्तर तक शिक्षा की जिम्मेदारी तो सरकारों को लेनी ही चाहिए। उच्च शिक्षा, विशेष रूप से व्यावसायिक शिक्षा से, चूंकि व्यक्ति की निजी लाभ प्राप्त करने की योग्यता में वृद्धि की संभावना बढ़ जाती है, इसलिए इसके प्रसार के लिए सरकार निजी क्षेत्र की मदद ले सकती है। लेकिन उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को स्तरीय बनाए रखने, एवं विद्यार्थियों को शिक्षा संस्थान के मुखिया, या अन्य किसी बाह्य एजेंसी द्वारा अनावश्यक शोषण से बचाने के लिए सरकार को शिक्षण संस्थाओं पर एक स्वतंत्र एवं कुशल नियामक तंत्र विकसित करना जरूरी है। इसके माध्यम से सरकार उच्च शिक्षण संस्थाओं का नियमित रूप से नियमन सुनिश्चित कर सकती है। शिक्षण संस्थाओं के मालिकों, और राजनेताओं के बीच कोई गठजोड़ न विकसित होने पाए इसीलिए नियामक तन्त्र में कुशल, कर्मठ, और ईमानदार अधिकारियों को रिक्रूट करना भी उतना ही जरूरी है।
आज हम निजी संस्थानों के माध्यम से थोक में इंजीनियर और डॉक्टर पैदा कर रहे हैं। वहीं सॉफ्टवेयर कंपनी के लोग बयान देते हैं कि 80 से 90 प्रतिशत इंजीनियर उपाधि प्राप्त करने वाले नौकरी देने लायक नहीं हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि इसकी जवाबदेही किसकी है। सरकार की, विश्वविद्यालय की, या उस महाविद्यालय की, जहां से उसने वह उपाधि प्राप्त की है? जो विद्यार्थी लाखों रुपए फीस देकर, जीवन के चार-पांच महत्वपूर्ण वर्ष उस उपाधि को प्राप्त करने में गंवा देता है, उसके बाद आप उसे कहते हैं कि वह नौकरी देने लायक ही नहीं है। तो फिर गड़बड़ कहां है? उसे उपाधि क्यूं और कैसे मिल गई? किसी की तो जिम्मेदारी फिक्स होनी चाहिए। यदि ऐसा करने में व्यवस्था असफल रहती है तो इसका खामियाजा पूरे समाज को भविष्य में उठाना पड़ेगा। क्या शिक्षण संस्थान केवल व्यवसाय करने के उद्देश्य से स्थापित किए गए हैं? क्या गुणवत्तापूर्ण मानव संसाधनों के निर्माण में उनका कोई योगदान नहीं है? यदि ऐसा है तो ऐसे संस्थानों को सरकार द्वारा तत्काल प्रभाव से बंद कर देने पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाना चाहिए। जिस संस्थान ने उस छात्र को लाखों रुपए फीस के रूप में लेकर उपाधि प्रदान की है, कॉपोर्रेट जगत द्वारा उसे नौकरी के अयोग्य घोषित किए जाने के उपरांत, उस संस्थान की कुछ तो जिम्मेदारी फिक्स होनी चाहिए। संस्थान से उसकी सारी फीस न सही, कम से कम कुछ भाग तो वापस दिलाना चाहिए। युवाओं के भविष्य के साथ खिलवाड़ बंद होनी चाहिए। इसीलिए सरकार के पास एक स्वतंत्र एवं कुशल नियामक तंत्र का होना जरूरी है।
आज भारत में 35 वर्ष से कम आयु वर्ग के लगभग 65 प्रतिशत युवा हैं। यह जनांकिकीय लाभांश हमारी अर्थव्यवस्था के लिए वरदान है। किसी भी देश में यह काल केवल एक बार आता है, जब उसके पास जनांकिकीय लाभांश होता है। अब हमारे पास यह अवसर उपलब्ध हुआ है तो उसका भरपूर लाभ देश को उठाना चाहिए। चीन ने अपने युवाओं को रोजगार देकर अपने यहां जनांकिकीय लाभांश का भरपूर लाभ उठाया था। चीन में आज जब वही युवा बुजुर्ग हो रहे हैं, तो उनके पास भरपूर सामाजिक सुरक्षा है। लेकिन दूसरी तरफ, भारत में जनांकिकीय लाभांश का लगभग आधे से अधिक समय बीत चुका है। विशेषज्ञों की राय है कि लगभग वर्ष 2044-45 तक भारत में जनांकीकिय लाभांश लगभग खत्म हो जाएगा।
देश जनांकीकिय लाभांश के कारण उपलब्ध युवा शक्ति की पूर्ण क्षमता का दोहन कर आर्थिक प्रगति के उच्च सोपान को छूने की क्षमता हासिल कर सकता है। लेकिन पर्याप्त गुणात्मक रोजगार के अवसरों के अभाव में युवा बेरोजगारी के अभिशाप में जीने को मजबूर है। सरकार ने स्वयं अपनी जिम्मेदारी ठेकेदारों के ऊपर डालकर इति श्री कर ली है। सरकार स्वयं युवाओं को नौकरी न देकर अब आउटसोर्स करने का निर्णय ले रही है। इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार के कारण युवाओं का शोषण चरम पर है। आउटसोर्स एजेंसी, जो ठेकेदार के भरोसे चलती है। ऐसी सूचनाएं हैं कि आउटसोर्स एजेंसी, सरकार से प्रति कर्मचारी जो राशि लेती है, कर्मचारी को उसका, बामुश्किल, 50 प्रतिशत ही देती है। वह भी समय पर मिल जाए तो बहुत बड़ी बात है। अनेक उदाहरण हैं जहां 4 से 6 महीने का वेतन इकठ्ठा मिलता है। इतने पर भी कर्मचारी की कब छुट्टी कर दी जाएगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इससे कर्मचारियों की कार्य करने की, न केवल योग्यता बल्कि इच्छा पर भी विपरीत असर होता है, जो उस संस्थान की उत्पादकता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। ऐसी भी चचार्एं आम हैं कि आउटसोर्स एजेंसी का ठेका भी राजनीतिक रसूख रखने वाले ठेकेदार को ही हासिल हो पाता है। इसमें ट्रांसपेरेंसी का अभाव होता है। इसीलिए शिकायत के बावजूद भी उसके खिलाफ कार्यवाही हो पाना मुश्किल है।
शिक्षा नीति का मुख्य फोकस रोजगार बचाने एवं रोजगार बढ़ाने पर होना चाहिए। अब तक रोजगार आॅटोमेटिक मशीनों की ही भेंट चढ़ रहे थे, लेकिन अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से अन्य रोजगार भी खतरे में दिख रहे हैं। अर्थव्यवस्था को विकास की पटरी पर सरपट दौड़ाने के लिए हमें युवाओं को जाति-धर्म या मंदिर-मस्जिद निर्माण रूपी अफीम के नशे का आदी न बनाकर, उन्हें गुणात्मक रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के प्रयास करने चाहिए। देश निर्माण में युवाओं को सक्रिय रूप से गुणात्मक भागीदार बनाकर ही हम सही मायने में विश्वशक्ति बन सकेंगे। देश की युवा शक्ति का सृजनात्मक उपयोग कर पाने में सरकार यदि असफल रहती है, तो वही युवा शक्ति राह भटक सकती है। जिसकी परिणीति देश में आर्थिक एवं सामाजिक अपराधों में वृद्धि के रूप में दिखलाई पड़ती है।