Friday, July 5, 2024
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ऐसे तो नहीं बचेगा हिमालय

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Samvad


04 3देश का भाल हिमालय का अस्तित्व आज संकट में है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वह चाहे बांध हो या फिर पन बिजली परियोजनाओं का निर्माण या रेल लाइन के निर्माण हेतु सुरंग बनाने का सवाल, इससे हिमालय के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। बरसों से राज्य के लोग और पर्यावरण विज्ञानी इसके खिलाफ पुरजोर आवाज उठा रहे हैं, लेकिन लगता है कि सरकार इस विषय पर कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है। ऐसा लगता है कि सरकार इस बाबत आंदोलनकारियों की मांग को दरगुजर करने का पूरी तरह ही मन बना चुकी है। समूचा हिमालय, वह चाहे देवभूमि उत्तराखंड में राष्ट्रीय नदी गंगा पर बांध निर्माण का मसला हो, समूचे राज्य मे पर्यटन की दृष्टि से आल वैदर रोड के निर्माण का मसला हो या ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेल लाइन के निर्माण का मसला हो, सरकार विकास के नाम पर सारे हिमालय को खंड-खंड करने पर तुली है। आज जिस प्रकार का माहौल है और सरकार ने विकास के नशे में मदहोश होकर आल वैदर रोड के निर्माण की खातिर राज्य में पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से देवदार के सवा लाख पेड़ों की जिस निर्ममता से हत्या की है और जैसी कि संभावना है और प्राप्त सूत्रों के मुताबिक तकरीब एक लाख पंद्रह हजार देवदार के पेड़ कटान के लिए चिन्हित किए जा चुके हैं, यह इसका सबूत है कि हमारी सरकार और उसके मुखिया हमारे प्रधानमंत्री दावा तो यह करते हैं कि विकास पर्यावरण आधारित होना चाहिए लेकिन हकीकत इसके बिलकुल उलट है।

गौरतलब है कि आल वैदर रोड के निर्माण के दौरान स्थानीय लोगों, रक्षा सूत्र आंदोलन से जुड़े लोगों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने सरकार और अधिकारियों को दूसरे मार्ग का सुझाव दिया था जिसके चलते लाखों देवदार के पेड़ जो वन संपदा के प्रतीक तो हैं ही, जैव विविधता के संरक्षण और हिमालयी राज्य में भूस्खलन रोकने की दिशा में अपना अहम योगदान देते हैं, से वंचित न होना पड़ता। लेकिन राज्य के लोगों की लाख कोशिशों और अनुनय-विनय को दरगुजर कर दिया गया और उनकी भावनाओं को अनसुना करते हुए देवदार के पेड़ों को तथाकथित विकास के यज्ञ की समिधा बना दिया गया।

यहां हम इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते कि उत्तराखंड हिमालयी राज्य है और हिमालय पर्वत श्रृंखला न केवल भारत बल्कि दक्षिण एशिया के लिए मिट्टी, जल और वनस्पति के जनक के लिए जानी जाती है। यही नहीं हिमालय मौसम का नियंत्रक और धरती के तापमान को भी नियंत्रित करता है। हिमालय पर हुई गतिविधि का सीधा-सीधा दुष्परिणाम भारत को भुगतना पड़ता है।

वनों की प्रचुरता ने ही इसे भारतीय उप महाद्वीप में जल के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता की भूमिका में रखा हुआ है। इस पर्वत राज्य में स्थित पर्वत श्रृंखला को भूसंरचना, जलवायु और मिट्टी की बनावट में भारी विविधता के लिए जाना जाता है। गंगा गंगोत्री, संतोपंथ भागीरथी कर्क आदि हिमानियों से भागीरथी एवं अलकनंदा के नाम से अपनी जीवन यात्रा शुरूकर सैकडो़ं छोटी बड़ी जल धाराओं को समेटे हुयी देवप्रयाग में गंगा बन जाती है जो आगे चलकर इसमें यमुना, रामगंगा, घाघरा, गंडक, कोसी आदि नदियां मिलती हैं और बंगाल की खाडी में समाहित हो जाती हैं। गौरतलब है कि गंगा बेसिन देश के संपूर्ण क्षेत्रफल का 26 फीसदी तथा गंगा देश की संपूर्ण जलराशि के 25.2 फीसदी भाग की स्वामिनी है।

देश के बड़े हिस्से की जल से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने वाला यह राज्य वनों, खनिजों और प्राकृतिक सौंदर्य का अकूत भंडार है। अधिकांश धर्मस्थल होने के कारण इस अंचल को देवभूमि भी कहा जाता है। यहां के वन औषधियां, वन्य पुष्पों व लघु वनस्पतियों से आच्छादित हैं। इनकी सही मायने में वर्षा जल को नियंत्रित कर धरती की सेहत पर वर्षा जल के प्रभाव को नियंत्रित करने में प्रभावी भूमिका है।

सच कहा जाये तो ये वन सुरक्षा प्रहरियों की भांति हिमालय की पारिस्थितिकी के आधार हैं। ऐसी विलक्षण जलवायु की विविधता के चलते यहां के समाज को विभिन्न प्रकार की जीवन चर्या अपनाने को प्रेरित किया है। यही नहीं सबसे बड़ी बात उस जीवन चर्या में जीवन का प्रमुख स्रोत प्रकृति ही रही है। यही अहम कारण है कि यहां के लोगों में प्रकृति संरक्षण की स्वाभाविक प्रवृत्ति सहज ही दृष्टिगोचर होती है। इसलिये जब जब प्रकृति के विरुद्ध कोई काम होता है तो यह उसका पुरजोर विरोध करते हैं।

ऐसे विलक्षण राज्य जिसे देवभूमि के दर्जे के साथ प्राकृतिक, पारिस्थितिक, औषधिक संसाधनों से युक्त सीमांत राज्य के रूप में जाना जाता है, वहां तथाकथित विकास के नामपर विनाश के तांडव की प्रक्रिया अनवरत जारी हो, उससे तो यही परिलक्षित होता है कि एक सुनियोजित साजिश के तहत इतनी विशेषताओं-विलक्षणताओं वाले राज्य को आखिर क्यों तबाह किया जा रहा है। पन बिजली संयत्रों, आल वैदर रोड आदि विकास के नाम पर सुरंग आधारित परियोजनाओं के निर्माण से इस हिमालयी राज्य में ऐसी स्थितियों पैदा की जा रही हैं जो यहां के जंगल, जमीन की नमी को तो बर्बाद करेगी ही, बर्फ भी नहीं टिक पायेगी और नदियां सूख जायेंगीं। जल स्रोतों का सूखना भावी आपदा का संकेत दे ही रहे हैं।

उस स्थिति में जबकि राज्य में तकरीब सैकड़ों सुरंग आधारित परियोजनाओं पर काम जारी है। 600 से अधिक सुरंग आधारित बांध प्रस्तावित हैं जिसके लिए हजारों किलोमीटर लम्बी सुरंगें बनेगीं। इसके चलते तकरीब 500 से ज्यादा गांव तबाह हो जायेंगे। बांधों के लिए किये जाने वाले विस्फोटों से जहां पहाड़ अंग-भंग होंगे, वहीं उनका मलबा नदियों में जायेगा जो बाढ़ की भयावहता में बढ़ोतरी करेगा।

हालात की भयावहता का जीता जागता सबूत जोशीमठ है जहां के लोग भूस्खलन, भूक्षरण, भूधंसाव की जबरदस्त चपेट में हैं। हालात इतने खराब हैं कि यहां सैकड़ों घर और कुछ होटल भूधंसाव के चलते गिरने के कगार पर हैं। यहां के तकरीब 600 मकानों में गहरी दरारें आ चुकी हैं, जिसकी वजह से यहां के लोग डर के मारे सारी रात चैन से सो भी नहीं पा रहे हैं।

इस विनाश के पीछे एनटीपीसी द्वारा विष्णुगाड प्रोजेक्ट के तहत बनाई गई वह सुरंग है, जिसने जमीन को भीतर तक खोखला कर दिया है। नतीजा लोग भयग्रस्त हैं और आंदोलनरत हैं। उनका कहना है कि इस भूकंपीय जोन में आपदा की स्थिति में उनका क्या होगा। क्या प्रशासन उस समय के इंतजार में है जब आपदा आए, उस स्थिति में वह हरकत में आएगा और तब राहत कार्य के नामपर वह अपनी जेबें भरने का काम करेगा। असलियत में हमारे देश की यही तो विडम्बना है।


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