प्रत्येक जीव किसी न किसी आहार श्रृंखला का एक घटक है। एक भी घटक की अनुपस्थिति में पूरी आहार श्रृंखला तहस नहस हो सकती है , जिसका प्रभाव संपूर्ण जीव जगत पर पड़ता है और पारिस्थितिक असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। वर्तमान अधिकांश प्राकृतिक आपदाओं का भी मुख्य कारण इसी असंतुलन को माना जाता है। जीव जंतु और वनस्पति के अतिरिक्त जिस भाषा संस्कृत का प्रयोग हमारे ऋषि मुनियों ने किया , वह भाषा में किया गया उच्चारण भी प्रकृति रूप से योग प्राणायाम करवाता है जो मनुष्य को स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है। हिंदू धर्म और संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें प्रत्येक जीव की प्रकृति में उपस्थिति और उसके महत्व को स्वीकारा गया है। संपूर्ण जैव विविधता की सुरक्षा और संरक्षा को सुनिश्चित करने हेतु जीव जंतुओं और वनस्पतियों को धर्म से जोड़ा गया है। यहां गरुड़ भी पूजनीय है तो गाय भी पूजनीय है , यहां चूहा भी पूजनीय है तो सर्प भी पूजनीय है। वनस्पतियों में पीपल पूजनीय है तो तुलसी का भी धार्मिक महत्व कम नहीं है। और शायद यही इस धर्म की सुंदरता है जो जीव मात्र के कल्याण की कामना करता है, उसी को आराधना करता है।
यह धर्म नही, एक स्वस्थ्य जीवन शैली है। माह का प्रत्येक दिन किसी न किसी एक जंतु और एक वनस्पति की पूजा करने, उसे नुकसान न पहुंचाने का संकल्प लेने का संदेश देता है। हम जिन धार्मिक मान्यताओं को अंधविश्वास का नाम देकर उनकी उपस्थिति को सिरे से नकार देते हैं, यदि हम उनमें छिपे वैज्ञानिक संदेशों का गहराई से अध्ययन करें तो पाएंगे की धार्मिक मान्यताएं किसी एक धर्म के लिए ही नहीं, बल्कि प्रत्येक जन मानस के कल्याण के लिए हैं। प्रकृति में विद्यमान प्रत्येक जीव जंतु और वनस्पति संपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र को सुचारू रूप चलायमान बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
प्रत्येक जीव किसी न किसी आहार श्रृंखला का एक घटक है। एक भी घटक की अनुपस्थिति में पूरी आहार श्रृंखला तहस नहस हो सकती है , जिसका प्रभाव संपूर्ण जीव जगत पर पड़ता है और पारिस्थितिक असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। वर्तमान अधिकांश प्राकृतिक आपदाओं का भी मुख्य कारण इसी असंतुलन को माना जाता है। जीव जंतु और वनस्पति के अतिरिक्त जिस भाषा संस्कृत का प्रयोग हमारे ऋषि मुनियों ने किया , वह भाषा में किया गया उच्चारण भी प्रकृति रूप से योग प्राणायाम करवाता है जो मनुष्य को स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है।
हमारे ऋषि मुनियों, संत महात्माओं ने हमारी धार्मिक मान्यताओं और आस्थाओं को जीव जगत से जोड़ कर भय से भक्ति के सिद्धांत को प्रबल किया है। उनकी वैज्ञानिक दृष्टि को इस बात का पूर्वाभास था कि मनुष्य जो प्रत्येक आहार श्रृंखला की चोटी पर बैठा है, अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर अन्य जीव जंतुओं और वनस्पतियों को तहस-नहस कर देगा, जो इसके अपने ही विनाश का कारण बनेगा, को ध्यान में रखते हुए सभी जीवनदायनी वनस्पतियों जैसे तुलसी, पीपल, बड़, नीम, आंवला, बेल, कमल, चमेली आदि को धार्मिक रीति रिवाजों से जोड़ , उन्हें पूजनीय बना दिया ताकि इंसान इन्हे नुकसान पहुंचाने का प्रयत्न न करे।
इसी तरह आहार श्रृंखलाओं को सुचारू रूप से चलाए रखने के लिए जंतुओं के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए भगवान विष्णु का वाहन गरुड़, मां लक्ष्मी का वाहन उल्लू , मां सरस्वती का वाहन हंस, भगवान शिव का नंदी बैल, मां पार्वती का बाघ तो मां दुर्गा का शेर, गणेश जी का मूषक, कार्तिकेय का मयूर, इंद्र का सफेद हाथी, यमराज का वाहन भैंसा आदि देवताओं के वाहन रूप में सदैव पूजनीय श्रेणी में रखे गए। सर्प भगवान शिव के गले के इर्द गिर्द विराजमान रहता है , वह भी उतना ही पूजनीय है। आमला या आंवला (एम्ब्लिका आॅफिसिनैलिस) को शास्त्रों में उसी प्रकार श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है, जैसा नदियों में गंगा को प्राप्त है और देवों में भगवान विष्णु को।
ऐसी मान्यता है कि विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा को जन्म दिया उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को भी जन्म दिया। आंवले को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है। इसके हर अंग में ईश्वर का स्थान माना गया है। आंवला , बेल और तुलसी औषिध्य गुणों से भरपूर वनस्पतियां हैं। पीपल अधिक समय तक प्राणवायु आॅक्सीजन का उत्सर्जन करने के लिए वैज्ञानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार जीव जगत को पूजनीय और आदरणीय बनाने के पीछे का ध्येय मात्र मानव कल्याण ही रहा है। हमारी धार्मिक मान्यताओं ने , डार्विन के सिद्धांत ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ ( सर्वाइवल आॅफ द फिटेस्ट) की अवधारणा को डार्विन से पहले से ही दुनिया के सामने रखा हुआ था। यही कारण है कि यहां सर्प भी पूजनीय है और गरुड़ भी , यहां गाय भी पूजनीय है और सिंह भी। मनुष्य द्वारा इस प्रकृति और प्रकृति में उपस्थित सभी संसाधनों को संरक्षित रखने के लिए ही इन्हें धर्म के साथ जोड़ा गया और आज जैसे-जैसे हम धर्म से दूर हुए वैसे-वैसे हम प्रकृति से दूर हो गए हैं।
इसी का परिणाम है आए दिन आने वाली प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाएं। मनुष्य ने चाहे धर्म के भय से ही प्रकृति का आदर किया, पर जब तक किया तब तक प्रकृति ने उसे सुरक्षित रखा और जब मनुष्य को धर्म अंधविश्वास और ढकोसला लगने लगा तब से प्रकृति ने भी हमसे मुंह मोड़ लिया। सभी आपदाएं संदेश दे रही हैं कि हम अपने मूल की ओर, अपनी जड़ों की ओर मुड़ें और जिन विज्ञान आधारित धार्मिक मान्यताओं को तिलांजलि दे आए हैं, उन्हें फिर से स्वीकारें। तभी करनी का प्रायश्चित हो पाएगा। आंख बंद करके किसी भी कर्म काण्ड का अनुसरण न करें, उनके वैज्ञानिक कारण और आधार की पुष्टि कर, उन्हें हृदय से अपनाएं। केवल औपचारिकता न निभाएं।