हिन्दू और हिन्दुत्व काफी लम्बे समय से चर्चा में है। भारत में ईसाई एवं मुसलमान आबादी को छोड़कर बाकी सब लोग वैदिक धर्म का पालन करते है। इस परम्परा में धर्म पालन की बाध्यता नहीं है। हिन्दू परिपूर्ण लोकतांत्रिक एक जीवनशैली है। डॉ. रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय (103) में लिखा है, ह्यअसल में भारतवर्ष हिन्दूओं का ही देश है और इस देश की संस्कृति अपनी व्यापक विशिष्टताओं के साथ हिन्दू संस्कृति ही समझी जाती है। भारतीय संस्कृति की विशिष्टताएं उसे विश्व की अन्य संस्कृतियों से विभक्त करती है। वह केवल हिन्दुओं में ही नहीं है बल्कि उनका पूरा प्रभाव भारतवासियों मुसलमानों और ईसाइयों पर भी है। भारतीय संस्कृति एक है।
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कई संस्कृतियों का जोड़ नहीं है। डॉ. दिनकर ने आगे लिखा है कि बहुधा लोग हिन्दू संस्कृति को वैदिक संस्कृति का पर्याय मान लेते है, जो बहुत अंशों में ठीक है। वैदिक संस्कृति का विकास ऋग्वेद के रचनाकाल के पहले का है। यह संस्कृति वैदिक काल से लेकर उत्तर वैदिक काल और रामायण, महाभारत तक प्रवाहमान है। उत्तर वैदिक काल में वैदिक दर्शन का विकास स्पष्ट दिखाई पड़ता है। वेदों के मन्त्रों का अर्थ समझने और विनियोग करने की दृष्टि से ब्राह्मण ग्रंथ लिखे गए। इसी समय थोड़ा आगे पीछे उपनिषद् दर्शन का विकास हुआ।
राष्ट्र के सम्बंध में हिन्दू शब्द का प्रयोग इस्लाम के जन्म से दो-ढ़ाई हजार वर्ष पुराना है। ईरानी लोग स का उच्चारण ह करते थे। उन्होंने सिन्धु को हिन्दू कहा। इसी प्रवाह से हिन्दू और हिन्दुस्तान शब्द विकसित हुए। इसी तरह यूनानियों की बातचीत में ह के बदले अ निकलता है। उन्होंने हिन्दू को इण्डो कहना शुरू किया। इससे इण्डिया नाम का विकास हुआ।
डॉ. दिनकर ने याद दिलाया है कि भारत के बाहर के लोग भारत अथवा भारतवासियों को हिन्दू या इण्डो कहते थे। हिन्दू शब्द का प्राचीनतम उल्लेख अवेस्ता में मिलता है। भारत वर्ष को हिन्दुस्तान और भारतवासियों को हिन्दू कहना इतिहास और भूगोल दोनों ही दृष्टियों से युक्त संगत है। इस देश की संस्कृति वैदिक संस्कृति है। वैदिक संस्कृति ही हिन्दू संस्कृति है। डॉ. दिनकर आर्यों को बाहर से आया हुआ मानते थे। उनका ऐसा निष्कर्ष सही नहीं है। आर्य भारत के मूल निवासी है।
वे वैदिक संस्कृति के जन्मदाता है। भारत की संस्कृति का सतत विकास हुआ है। हिन्दू बहुदेववादी कहे जाते है। कुछ विद्धान भारत में बाहर से आए जनों का उल्लेख करते है। इसी आधार पर वह यहाँ की बहुदेव उपासना को तमाम जातियों के साझे का विकास मानते है। यह कहना गलत है।
ईसाईयत या इस्लाम की तरह हिन्दू धर्म किसी एक महानुभाव की रचना नहीं है। डॉ. आम्बेडकर ने लिखा है कि आप किसी हिन्दू से पूछे कि तुम्हारा धर्म ग्रन्थ कौन सा है? वह कोई नाम नहीं लेता। इसी तरह किसी ईसाई से प्रश्न पूछे की आपके पंथ की विशेषता क्या है तो सीधे उत्तर देगा कि ईसा हमारे देवदूत हैं। बाइबिल हमारा धर्म ग्रन्थ है। किसी मुसलमान से पूछे की आप मुसलमान क्यों है? वह उत्तर देगा की हम कुरान पर विश्वास करते है और हजरत मोहम्मद हमारे पैगम्बर है।
हिन्दुओं का ऐसा एक देवदूत और एक ग्रन्थ नहीं है। हिन्दू धर्म किसी एक विश्वास पर नहीं टिका है। प्रकृति का प्रत्येक रूप उसके लिए उपास्य है। भारत का हर एक हिन्दू अपने धर्म के दार्शनिक पक्ष पर विश्वास करता है। अनेक हिन्दू दर्शन के गुढ़ तत्वों को नहीं जानते। ऐसे हिन्दूओं से दार्शनिकता की अपेक्षा नहीं की जा सकती है, तो भी प्रत्येक हिन्दू किसी न किसी रूप में दार्शनिक है। हिन्दू किसी एक देवता की उपासना नहीं करते। हिन्दू धर्म में अनेक देवियाँ है, अनेक देवता है। उपासना के अनेक मार्ग है।
भारतवासी स्वयं को अति प्राचीनकाल से हिन्दू मानते है। मुसलमानों के भारत आने से पहले भी हिन्दू नाम यहां प्रचलित था। चीनी यात्री वेनत्सांग के समय भी भारत में हिन्दू शब्द प्रचलित था। अल बेरूनी ने भी हिन्दुओें की प्रशंसा की है। भारतवासियों का हिन्दू नाम मुसलमानों ने नहीं रखा है।
आर्यो का बाहर से आना भी गलत है। आर्य भारत भूमि के है और भारत के ही मूल निवासी है। यह बात ठीक है कि भारत में अनेक जन समूह बाहर से आते रहे। हिन्दू संस्कृति नें बाहर से आये सभी मतो का स्वागत किया और अपने में मिला लिया।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहाँ का समाज लोकतंत्री है। अनेक विचार धाराएं है, कुछ ईश्वरवादी है, कुछ अनीश्वरवादी है। उपासना के क्षेत्र में भी यहां विचार विविधता है। कुछ लोग वैदिक धर्म के अनुसार पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चन्द्र, नदी और वनस्पतियों को भी देवता मानते है। कुछ लोग नहीं मानते है। लेकिन उनका हिन्दू धर्म में होना स्वयं सिद्ध रहता है। यहाँ एक अध्यात्मिक लोकतंत्र भी है। यह ध्यान देने योग्य है। यहां 08 दर्शन है।
न्याय, पूर्व मीमांसा, योग, वेशेषिक, सांख्य और वेदांत ये षष्ट दर्शन कहे जाते है। जैन और बुद्ध भी प्रतिष्ठित दर्शन है। किसी दर्शन का मानना या न मानना स्वैच्छिक है। भिन्न-भिन्न विचार-धाराओं से समृद्ध भारत का दर्शन विचारों का इन्द्र धनुष है। अध्यात्म के क्षेत्र में ऐसा दर्शन अन्यत्र नहीं मिलता है। बाहर से आये जन समूह इसी में घुलते मिलते रहे।
मैक्समूलर भी हिन्दू संस्कृति के प्रति आकर्षित थे। उन्होंने लिखा है कि ह्यअगर मैं अपने आपसे पूछूं कि केवल यूनानी, रोमन और यहूदी भावनाओं एवं विचारों पर पलने वाले हम यूरोपीय लोगों के आन्तरिक जीवन को अधिक समृद्ध, अधिक पूर्ण और अधिक विश्वजनीन, संक्षेप में, अधिक मानवीय बनाने का नुस्खा हमें किस जाति के साहित्य में मिलेगा, तो बिना किसी हिचकिचाहट के मेरी उँगली हिन्दुस्तान की ओर उठ जाएगी। बीसवीं सदी के चिन्तक रोम्याँ रोलाँ ने लिखा है कि अगर इस धरती पर कोई एक ऐसी जगह है, जहां सभ्यता के आरम्भिक दिनों से ही मनुष्यों के सारे सपने आश्रय और पनाह पाते रहे हैं, तो वह जगह हिन्दुस्तान है।
हिन्दू संस्कृति ने बाहर से आए सभी जनों से आत्मीय सम्बन्ध बनाए। नीग्रो हूण भी इसी संस्कृति में मिल गए। सभी अन्तर्राष्ट्रीय विद्धान हिन्दू संस्कृति की विश्ववरणीय विशेषता पर मोहित रहे हैं। हिन्दू भारत आने वाले विदेशी जनों के पति आत्मीय थे और बाहर से आने वाले जन भी हिन्दू जीवन रचना के प्रति सम्मोहित थे। तुर्क मुस्लिम आक्रमण के पहले आए थे। तुर्को के बारे में इतिहासविद् स्मिथ की टिप्पणीय ध्यान देने योग्य है, इन विदेशी लोगों ने भी अपने पहले आने वाले शको के समान ही हिन्दू धर्म की पाचन शक्ति के सामने घुटने टेक दिए और बड़ी शीघ्रता के साथ वे हिन्दुत्व में विलीन हो गए।
पं0 जवाहर लाल नेहरू ने लिखा है कि ईरानी और यूनानी लोग, पार्थियन और बैक्ट्रियन लोग, सीथियन और हूण लोग, मुसलमानों से पहले आने वाले तुर्क और ईसा की आरम्भिक सदियों में आने वाले ईसाई, यहूदी और पारसी, ये सबके सब, एक के बाद एक, भारत में आए और उनके आने से समाज ने एक हल्के कम्पन का भी अनुभव किया मगर अन्त में आकर वे सबके सब भारतीय संस्कृति के महासमुद्र में विलीन हो गए। उनका कहीं कोई अलग अस्तित्व नहीं बचा।
हृदयनारायण दीक्षित