प्रात:कालीन विद्यालयी सभा समाप्त हो चुकी थी। प्रथम कालांश की घंटी भी बज गई थी। उपस्थिति पंजिका लेकर मास्टरजी पढ़ाने आए। पहले किसी बच्चे को आवाज देकर खुद की कुर्सी साफ कराई फिर बड़े आराम से उस पर बैठे फोन निकाला। फेसबूक चलायी, पोस्ट डाली, कमेंट्स किए, दो मित्रों के हालचाल पूछे।
इतने में घर से फोन आया कि गैस टंकी खत्म हो गई है। मास्टरजी ने पहले गैस बुक कराई फिर बालकों के लिए पोषाहार बनवाया। कुछ बालकों को भी वितरित किया। बाकी पैक कर घर ले गए।
खाना तो बना नहीं था, गैस जो खत्म हो गई थी और जाते-जाते बच्चों से कह गए थे, ‘तुम्हारी खेल घंटी शुरू हो गई।’ जब तक मास्टरजी वापस लौटे खेल घंटी ही चल रही थी। दोपहर के साढ़े बारह बज रहे थे। एक बार फिर मास्टरजी कक्षा में उसी उपस्थिति पंजिका के साथ उपस्थित हुए। अबकी बार उन्होंने बड़े जतन से उपस्थिति ली और जैसे ही पढ़ाने को खड़े हुए, छुट्टी की घंटी बज गई। सरकारी विद्यालय हो और कोई घंटी बजे ना बजे, खेल घंटी और छुट्टी की घंटी जरूर समय से बज जाती है।
मां
कल किसी रिश्तेदार को छोड़ने रेलवे स्टेशन जाना हुआ। वहां कुछ बच्चे लड़-झगड़ रहे थे। तभी रेलवे पुलिस ने उन बच्चों को वहां से भगाते हुए कहा, ‘चलो, चलो, सब भागो यहां से!’
तभी एक से बच्चे ने बड़ी ही मासूमियत से कहा, ‘मैं तो नहीं भागने वाला।’ पुलिस वाले के बहुत पूछने पर कहा, मैं मां का का इंतजार कर रहा हूं। बाबूजी ने कहा है कि मां गांव गई है, ट्रेन से आएगी।’
वो अबोध बालक, जिसने बचपन से अपनी मां को कभी नहीं देखा था। उसे क्या पता था की उसकी मां कभी नहीं आएगी। क्योंकि वो तो इस मासूम के पैदा होते ही उचित चिकित्सा न मिलने कारण, इस दुनिया से चल बसी थी। उस मासूम बालक को अभी दुनियादारी और झूठ-फरेब की समझ कहां थी?