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अजय ने अपने पापा और चाचा को कुछ खुसर-पुसर करते सुनकर मामला जानने की कोशिश क्या की कि बेचारे को वो डांट पड़ी कि पूछिये मत। अरे तुम बच्चों का बड़ों की बातों से क्या लेना-देना, अपना काम करो न।
अजय सोचने लगा, अगर मैं प्रथम वर्ष का छात्र होते हुए भी अभी एक बच्चा हूं तो कब बड़ा होऊंगा, परंतु उसने भी अपनी मां से न केवल मामला जाना अपितु अपनी समझ से हल करके अपने को बड़ा साबित कर दिया।
समस्या यह थी कि उनके पड़ोसी शर्माजी ने अजय के पापा से दो हजार रुपए उधार लिए थे, परंतु बार-बार मांगने पर भी नहीं लौटा रहे थे। शर्माजी की पुत्री लता अजय की सहपाठी थी। अजय ने अपनी समस्या लता को कुछ इस प्रकार समझाई कि लता के दवाब देने पर शर्माजी को दो किस्तों में रुपए लौटाने ही पड़े। अजय के पापा तो बाग-बाग हो गए और उसे बड़ा मानने पर बाध्य हो गए।
प्राय: ऐसा ही होता है कि माता-पिता अपने सामने एक-एक दिन बड़े होते बच्चों को देखकर उनके बड़े होने का अनुमान ही नहीं लगा पाते और उन्हें बच्चा ही समझते रहते हैं। उन्हें उम्र के अनुसार कोई कार्य नहीं देते फलत: वे बच्चे ही बने रहते हैं। ऐसे बच्चे अपनी अनुभवहीनता के कारण हीनभावना का शिकार भी हो जाते हैं। कई बार तो उन्हेंं ‘सिर्फ कद का ही लंबा है’ जैसे व्यंग्य भी सुनने पड़ते हैं।
वैसे तो कोई भी बड़ा नहीं बनना चाहता क्योंकि बड़े बनने का अर्थ है आजादी में कमी और उत्तरदायित्व का बोझ परंतु समय के साथ-साथ हर बच्चे को बड़ा बनकर उत्तरदायित्व का बोझ उठाने हेतु तत्पर रहना चाहिये क्योंकि बिना कार्य किये आत्मविश्वास, अनुशासन और बुद्धि का विकास नहीं हो सकता।
अत: प्रत्येक माता-पिता को बच्चों को अच्छा खाना, वस्त्र और लाड़-प्यार के साथ-साथ उम्र के अनुसार कार्य देकर उनके मनोबल को बढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए। प्राथमिक कक्षा तक के बच्चों को घर में आये मेहमानों आदि को चाय-ठण्डा देने, पाइप से पौधों को पानी देने, नजदीक की दुकान से छोटा-मोटा सामान खरीद कर लाने जैसे कार्य देने चाहिए।
10 से 15 वर्ष तक की आयु के बच्चों से अनेक कार्य करवाये जाने चाहिए। जैसे बिजली आदि का बिल भरना, दूध वाले का हिसाब करना, यात्रा के दौरान टिकट वगैरह खरीदना, बैंक की अधूरी पास-बुक पूरी करवाना व छोटी राशियों का लेन-देन करना।
15 के बाद तो बच्चा वास्तव में ही शारीरिक व मानसिक रूप से हर कार्य करने के योग्य हो जाता है। इस उम्र के युवाओं से घरेलू गैस का प्रबंध करना, बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाना, उनके लिए ट्यूटर का प्रबंध करना, बैंक से लेन-देन व घरेलू रोजमर्रा के सामान की खरीदारी जैसे कार्य करवाये जाने चाहिए।
बच्चों से उम्र के अनुसार राय भी लेनी चाहिये। घर में पेंट करवाने, किसी हिस्से का पुनर्निर्माण कराने, फर्नीचर खरीदने व इलेक्ट्रोनिक्स सामान के मॉडल चयन में बच्चे भी अच्छी राय दे सकते हैं। अच्छी राय मिलने पर बच्चों को शाबाशी देनी चाहिये अन्यथा उनमें कमी बताकर उन्हें संतुष्ट करें।
बच्चों को स्कूल-कॉलेज में होने वाले प्रोग्रामों में भाग लेने के लिये प्रेरित करें। जरूरी नहीं कि यह स्थान स्टेज ही हो। बच्चे टैंट, साउंड, स्वागत, नाश्ता-पानी के किसी हिस्से से जुड़कर अपना कार्य करके अपनी भूमिका निभा सकते हैं क्योंकि प्रतियोगिता के इस युग में केवल किताबी ज्ञान नहीं बल्कि कार्य-अनुभव ही सफलता दिला सकता है।
मूलचंद बांसल
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