लंबे समय तक महात्मा गांधी की कर्मस्थली रहा साबरमती आश्रम अचानक ही चर्चा में आ गया है। यह आश्रम भारत के गुजरात राज्य के अहमदाबाद जिले के समीप साबरमती नदी के किनारे स्थित है। इस आश्रम की स्थापना 1915 में अहमदाबाद के कोचरब नामक स्थान में महात्मा गांधी द्वारा हुई थी। 1917 में यह आश्रम साबरमती नदी के किनारे वर्तमान स्थान पर स्थानांतरित हुआ और तब से साबरमती आश्रम कहलाने लगा। इस आश्रम में गांधी जी ने 1917 से 1930 तक के 13 वर्ष गुजारे देश की जनता को ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध बगावत में शामिल करने वाले नमक सत्याग्रह के लिए प्रसिद्ध दांडी मार्च इसी साबरमती आश्रम से शुरू हुआ। इसके बाद अंग्रेजी हुकूमत के दमन के विरोध में गांधी ने इस आश्रम का परित्याग कर दिया और महाराष्ट्र के वर्धा जिÞले में सेवा ग्राम में अपना नया ठिकाना बनाया।
साबरमती आश्रम के अचानक से चर्चा में आने का कारण गुजरात सरकार द्वारा प्रस्तावित आश्रम के नवीनीकरण का एक प्रोजेक्ट है। ‘गांधी आश्रम मेमोरियल डेवेलपमेंट प्रोजेक्ट’ नाम का यह प्रोजेक्ट राज्य सरकार के अधीन प्रस्तावित है। इस प्रस्ताव के अंतर्गत साबरमती आश्रम के ऊपर लगभग बारह सौ इकतालीस करोड़ रूपया खर्च करके आश्रम के नवीनीकरण की योजना है। यह प्रोजेक्ट प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की सीधी देखरेख में पूरा होगा। इस प्रोजेक्ट की घोषणा होते ही राष्ट्रीय स्तर पर इसका विरोध भी शुरू हो गया है।
देश की तमाम बुद्धिजीवी हस्तियों ने इस प्रोजेक्ट का विरोध करना शुरू कर दिया है, जिनमें प्रमुखतया महात्मा गांधी के प्रपौत्र राजमोहन गांधी, प्रसिद्ध गांधीवादी तारा सहगल, पूर्व न्यायाधीश एपी शाह और इतिहासकार रामचंद्र गुहा आदि लोग शामिल हैं। इतिहासकारों और तमाम अन्य हस्तियों ने जो पत्र लिखा है, उसमें इस बात पर भी सवाल उठाए गए हैं कि गुजरात सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक की तमाम योजनाएं एचसीपी डिजाइन्स को ही क्यों दी जाती हैं।
एचसीपी डिजाइन्स गुजरात के आर्किटेक्ट बिमल पटेल की कंपनी है यही कंपनी वाराणसी के ‘काशी विश्वनाथ कॉरिडोर’ से लेकर दिल्ली के ‘सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट’ तक के काम कर रही है। पत्र में लिखा गया है, ‘संभव है कि इस कंपनी का काम बहुत अच्छा हो, लेकिन फिर भी एक ही कंपनी को बार-बार काम मिलना सवाल खड़े करता है। बिमल पटेल की खड़ी की कोई भी कंक्रीट बिल्डिंग खादी के उस कपड़े से बेहतर नहीं होगी।’
दुनिया ने देखा कि चर्चिल द्वारा गुस्से में दी गई उपाधि ‘अधनंगा फकीर’ उसी लंगोटी और हाथ में बांस की लाठी लिए सम्राट के प्रतिनिधि वायसराय से मिलने ही नहीं पहुंचते बल्कि इसी वेशभूषा में पूरे सम्मान और बराबरी के साथ सम्राट से मिलते भी हैं और पूरी दुनिया से अपनी सादगी का लोहा भी मनवाते हैं। इस देश की गरीबी को देखकर आधी लंगोटी में जीवन जीने का प्रण करने वाले गांधी पूरी दुनिया के ऐसे राजनीतक व्यक्तित्व हैं, जो राजनीतिक होने के साथ ही साथ एक संत के रूप में भी जाने गए और जिन्हें उनकी मितव्ययिता, सादगी और सरलता के लिए जाना जाता है।
गांधी की इच्छा थी कि आजादी के बाद वायसराय हाउस जो आज का राष्ट्रपति भवन है, आजाद भारत के राष्ट्रपति द्वारा रहने के लिए प्रयोग नहीं किया जाए, क्योंकि जिस देश की जनता गरीबी से जूझ रही हो, उसके नेताओं को इतना आलीशान जीवन नही जीना चाहिए। रेल के तीसरे दर्जे में सफर करने वाले गांधी भारत में नए आए वायसराय माउन्टबेटन के निजी विमान से दिल्ली आने के प्रस्ताव को इसलिए ठुकरा देते हैं, क्योंकि वे अपने जीवन पर कम से कम खर्च करना चाहते हैं।
गांधी के बारे में सर्वविदित प्रसंग है कि एक बार इलाहाबाद में नेहरू के आवास पर रुके। नेहरू नाश्ता कराने के बाद उनके हाथ धुलवा रहे थे और बातचीत में पूरा एक लोटा पानी खत्म हो गया, जिस पर गांधी ने खेद प्रकट किया। नेहरू जी ने हंसते हुए कहा, ‘यहां पानी की क्या कमी है बापू। यहां तो गंगा जी बहती हैं।’ इस पर गांधी ने जवाब दिया कि गंगा का सारा जल केवल मेरे ही लिए नही है।
एक बार वायसराय पर होने वाले बहुत मोटे खर्च पर बात करते हुए गांधी जैसे अहिंसक व्यक्ति ने कहा कि इतना खर्च एक व्यक्ति पर किया जाए, जबकि देश के लोग गरीबी से जूझते रहें, इससे अच्छा है ऐसे व्यक्ति को मर जाना चाहिए, ताकि यह पैसा देश के गरीब लोगों पर खर्च किया जा सके। कहते हैं कि सेवाग्राम आश्रम वर्धा में अपनी कुटिया बनाने के लिए गांधी ने कुल 100 रुपये की सीमा लगाई थी कि कुटिया की लागत इससे कम ही आनी चाहिए।
हमें अच्छी प्रकार से यह समझना होगा कि अभी तक अपनी सादगी और ऐतिहासिक पहचान के चलते साबरमती आश्रम पूरी दुनिया के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। पूरी दुनिया से आने वाले सैलानी, पर्यटक और राजनेता साबरमती आश्रम में जाते भी रहे हैं। देश के तमाम लोगों का मानना है कि साबरमती आश्रम भारत के स्वतंत्रता संघर्ष और महात्मा गांधी की धरोहर है इसलिए उसकी सादगी और उसका पुराना ऐतिहासिक स्वरूप उसे अनूठा रूप प्रदान करता है।
देश में तमाम गांधीवादी लोगों का मानना है कि सरकार की कोई भी मदद इन आश्रमों को चलाने के लिए अभी तक नहीं ली गई है, अगर वह ली गई तो इन आश्रमों की स्वायत स्थिति समाप्त हो जाएगी। सेवाग्राम आश्रम, वर्धा के विषय में बताया जाता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सेवाग्राम आश्रम वर्धा को सरकारी सहायता देने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन गांधीवादियों, आश्रम समिति और सर्व सेवा संघ ने इस प्रस्ताव को नकार दिया।
सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि जो धन सरकार इस आश्रम पर खर्च करना चाहती है वह सार्वजनिक धन है, जिस पर इस देश की जनता का अधिकार सबसे पहले है। सरकार के नुमाइंदों को सार्वजनिक धन के विषय में गांधी के विचारों को समझना चाहिए। इस विषय में गांधी कहते हैं, ‘सार्वजनिक धन भारत की उस गरीब जनता का है, जिससे ज्यादा गरीब इस दुनिया में और कोई नहीं। इस धन के उपयोग में बहुत ज्यादा सावधान और सजग रहना चाहिए। अगर मिले हुए पैसे की पाई-पाई का हिसाब नहीं रखते और कोष का विचारपूर्वक उचित उपयोग नहीं करते, तो सार्वजनिक जीवन से हमें निकाल दिया जाना चाहिए।’
क्या ऐसी महान हस्ती के विचारों के विरुद्ध उन्हीं के आश्रम में काम करना न्यायोचित होगा या ये गांधी विचारो का जानबूझकर अपमान किया जा रहा है। गांधीजनों की चिंता इसलिए वाजिब है, क्योंकि सरकार ने अभी तक भी यह स्पष्ट नहीं किया है कि इतने मोटे खर्च से आखिर वह क्या करना चाहती है। इससे पहले सौन्दर्यीकरण के नाम पर जो मजाक जलियावाला बाग के साथ किया गया वह साबरमती आश्रम में बिल्कुल नहीं दोहराया जाना चाहिए।