Friday, July 11, 2025
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गेहूं की विभिन्न अवस्थाओं में सिंचाई से होता है फायदा

KHETIBADI


रबी फसलों में गेहूँ को ही सबसे अधिक सिंचाई से फायदा होता है। देशी उन्नत जातियों अथवा गेहूँ की ऊंची किस्मों की जल की अवश्यकता 25 से 30 से.मी. है। इन जातियों में जल उपयोग की दृष्टि से तीन क्रांतिक अवस्थाएं होती हैं। जो क्रमश: कल्ले निकलने की अवस्था (बुआई के 30 दिन बाद) पुष्पावस्था (बुआई के 50 से 55 दिन बाद) और दूधिया अवस्था (बुआई के 95 दिन बाद) आदि है।

इन अवस्थाओं में सिंचाई करने से निश्चित उपज में वृद्धि होती है। प्रत्येक सिंचाई में 8 सेमी जल देना आवश्यक है। बौनी गेहूं की किस्मों को प्रारंभिक अवस्था से ही पानी की अधिक आवश्यकता होती है-क्राउन रूट (शिखर या शीर्ष जड़ें) और सेमीन जडें़ की अवस्था में शिखर जड़ोंं से पौधों में कल्लों का विकास होता है जिससे पौधों में बालियां ज्यादा आती हैं और फलस्वरूप अधिक उपज मिलती है। सेमीनल जडें पौधों को प्रारंभिक आधार देती हैं। अत: हर हालत में बुआई के समय खेत में नमी काफी मात्रा में हो।

पलेवा देकर खेत की तैयारी करके बुआई करने पर अच्छा अंकुरण होता है। इन जातियों को 40 से 50 से.मी. जल की आवश्यकता होती है। और प्रति सिंचाई 6 से 7 से.मी. जल देना जरूरी है। अगर दो सिंचाइयों की सुविधा है तो पहली सिंचाई बुआई के 20-25 दिनों बाद प्रारंभिक जड़ों के निकलने के समय करें और दूसरी सिंंचाई फूल आने के समय यदि तीन सिंचाइयाँ करना संभव है तो पहली सिंचाई बुआई के 20 से 25 दिन बाद (शिखर जडें़ निकलने के समय), दूसरी गांठों के पौधों में बनने के समय (बुआई के 60-65 दिन बाद) और तीसरी सिंचाई पौधों में फूल आने के बाद करें।

जहां चार सिंचाईयों की सुविधा हो वहां, पहली सिंचाई बुआई के 21 दिन बाद शिखर जड़ों के निकलते समय, दूसरी पौधों में कल्लों के निकलते समय (बुआई के 40 से 45 दिनों बाद), तीसरी बुआई के 60-65 दिनों बाद (पौधों में गांठें बनते समय) और चौथी सिंचाई पौधों में फूल आने के समय करें। चौथी और पाँचवी सिंचाई विशेष लाभप्रद सिद्ध नहीं होती है। इनको उसी समय करें जब मिट्टी में पानी की संचय की शक्ति कम हो। बलुई या बलुई दोमट मिट्टी में इस सिंचाई की जरूरत होती है।

पिछेती गेहूं में पहली पांच सिंचाइयां 15 दिनों के अंतर से करें। फिर बालें निकलने के बाद यह अंतर 9 से 10 दिन का रखें। पिछेती गेहूँ की दैहिक अवस्था पिछड़ जाती है और बालों का निकलना और दानों का विकास तो ऐसे समय पर होता है, जबकि वाष्पीकरण तेजी से होता है और ऐसी दशा में खेत में नमी की कमी का दोनों के विकास पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है, और इसी लिए दाना सिकुड़ जाता है। इसीलिए देर से बोये गये गेहूँ में जल्दी सिंचाई कम दिनों के अंतर से जरूरी है।

सामान्यत: गेहूँ की फसल में सिंचाई मुख्यत: बार्डर विधि में 60 से 70 प्रतिशत सिंचाई क्षमता मिल जाती है और क्यारी विधि की तुलना में 20-30 प्रतिशत बचत पानी की होने के साथ-साथ एवं श्रम की बचत भी होती है। जहां ढाल खेत की दोनों दिशाओं में हो वहां क्यारी पद्धति से सिंचाई करना लाभदायक है, जहाँ ट्यूबवेल द्वारा पानी दिया जाता है, वहां यह विधि अपनाई जाती है। जहाँ पर ज्यादा हल्की भूमि अथवा उबड़-खाबड़ हो वहाँ सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर सिंचाई पद्धति सबसे उपयुक्त होती है। इस विधि में 70-80 प्रतिशत सिंचाई क्षमता मिल जाती है।

गेहूं में उर्वरकों की मात्रा एवं उनका प्रयोग

गेहूं उगाए जाने वाले ज्यादातर क्षेत्रों में नत्रजन की कमी पाई जाती है। फास्फोरस तथा पोटाश की कमी भी क्षेत्र विशेष में पाई जाती है। पंजाब, मध्यप्रदेश, राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में गंधक की कमी पाई गई है। इसी प्रकार सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे जस्ता, मैगनीज तथा बोरान की कमी गेहूं उगाये जाने वाले क्षेत्रों में देखी गई है।

इन सभी तत्वों को भूमि में मृदा-परीक्षण को आधार मानकर आवश्यकता अनुसार प्रयोग करें। लेकिन ज्यादातर किसान विभिन्न कारणों से मृदा परीक्षण नहीं करवा पाते हैं। ऐसी स्थिति में गेहूं के लिये संस्तुत दर निम्न हैं।
असिंचित दशा में उर्वरकों को कूड़ों में बीजों से 2-3 से.मी. गहरा डाले तथा बालियां आने से पहले यदि पानी बरस जाए तो 20 किग्रा/हे. नत्रजन को टॉप ड्रेसिंग के रूप में दे।

एनपीके

सिंचित दशाओं में फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की 1/3 मात्रा बुवाई से पहले भूमि में अच्छे से मिला दे। नाईट्रोजन 2/3 मात्रा प्रथम सिंचाई के बाद तथा शेष आधा तृतीय सिंचाई के बाद टॉप ड्रेसिंग के रूप में दे।
धान, मक्का एवं कपास के बाद गेहूं लेने वाले क्षेत्रों में गंधक, जस्ता, मैगनीज एवं बोरान की कमी की संभावना होती है तथा कुछ क्षेत्रों में इसके लक्षण भी देखे गए हैं। ऐसे क्षेत्रों में अच्छी पैदावार के लिये इनका प्रयोग आवश्यक हो गया है।

गेहूं में गंधक की कमी को दूर करें

गंधक की कमी को दूर करने के लिये गंधक युक्त उर्वरक जैसे अमोनियम सल्फेट अथवा सिंगल सुपर फास्फेट का प्रयोग अच्छा रहता है। जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में जिंक सल्फेट 25 कि.ग्रा./हे. की दर से धान-गेहूं फसल चक्र वाले क्षेत्रों में साल में कम से कम एक बार प्रयोग करें। यदि इसकी कमी के लक्षण खड़ी फसल में दिखाई दें तो 100 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट तथा 500 ग्रा. बुझा हुआ चूना 200 ली. पानी में घोलकर 2-3 छिडकाव करें। इसके बाद आवश्यकतानुसार एक सप्ताह के अंतर पर 2-3 छिड़काव साफ मौसम एवं खिली हुई धूप में करें।


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