जब मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में वित्त मंत्री द्वारा बजट बढ़ाए जाने को लेकर उनके प्रशस्ति गान में लगा हुआ है तब आंकड़ों की दुनिया की अजब गजब संभावनाओं पर चर्चा करने को जी करता है। आंकड़ों की अलग अलग प्रकार की तुलना अथवा एक खास ध्येय से उनके चयन के द्वारा खराब स्थिति की अच्छी तस्वीर दिखाई जा सकती है किंतु यह आंकड़े ही हैं जो इस अच्छी तस्वीर की सच्चाई को हम तक लाने का जरिया बनते हैं।
वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में यह स्वीकार किया कि कोविड-19 के कारण ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यार्थियों और विशेषकर अनुसूचित जाति और जनजाति के विद्यार्थियों की शिक्षा बुरी तरह प्रभावित हुई है किंतु उनकी यह स्वीकारोक्ति तब एक खोखले राजनीतिक जुमले में बदल गई जब हमने देखा कि पूरा शिक्षा बजट असमानता को बढ़ाने वाला है। इसमें वंचित समुदायों और महिलाओं के लिए कुछ भी नहीं है।
वित्त वर्ष 2020-21 के मूल बजटीय आवंटन में शिक्षा मंत्रालय को 99,311.52 करोड़ रूपए आबंटित किए गए थे। वित्त वर्ष 2021-22 में शिक्षा मंत्रालय का मूल बजटीय आबंटन घटाकर 93,224.31 करोड़ रूपए कर दिया गया था। इस वर्ष शिक्षा के लिए मूल बजटीय आबंटन 1 लाख 4 हजार 277 करोड़ रुपए है। यदि 2020-21 से तुलना करें तो यह वृद्धि अधिक नहीं है।
31 जनवरी 2022 को प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 2019-20 में शिक्षा पर व्यय जीडीपी का 2.8 प्रतिशत था जबकि 2020-21 एवं 2021-22 में यह जीडीपी का 3.1 प्रतिशत था। शिक्षा बजट ने भले ही एक लाख करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया हो किंतु अभी भी यह जीडीपी के 6 प्रतिशत के वांछित स्तर का लगभग आधा है।
अनेक शिक्षा विशेषज्ञ शालेय अधोसंरचना के बजट में कटौती को लेकर चिंतित हैं। इनके अनुसार यदि सरकार यह मान रही है कि सीखने की गैरबराबरी को टीवी चैनलों के जरिए दूर किया जा सकता है तो वह बहुत बड़े मुगालते में है। अविचारित डिजिटलीकरण सामाजिक असमानता को बढ़ावा देगा। इसके कारण शिक्षा के अवसर सब के लिए समान नहीं रह जाएंगे। महामारी का सबक यह था कि उन ग्रामीण इलाकों में जहाँ डिजिटल संसाधनों की कमी है अधिक शिक्षक, अधिक कक्षा भवन और बेहतर अधोसंरचना की व्यवस्था की जाती ताकि अगर भविष्य में किसी महामारी का आक्रमण हो तब भी शिक्षा बाधित न हो।
ऐसा लगता है कि सरकार देश में व्याप्त भयानक डिजिटल डिवाइड को स्वीकार नहीं करती। यूनेस्को(5अक्टूबर 2021) की ‘स्टेट आॅफ द एजुकेशन रिपोर्ट – नो टीचर, नो क्लास- 2021’ के अनुसार पूरे देश में स्कूलों में कंप्यूटिंग उपकरणों की कुल उपलब्धता 22 प्रतिशत है, शहरी क्षेत्रों (43 प्रतिशत) की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में अत्यंत कम उपलब्धता (18 प्रतिशत) है। इसी प्रकार संपूर्ण भारत में स्कूलों में इंटरनेट की पहुंच 19 प्रतिशत है। शहरी क्षेत्रों में 42 प्रतिशत की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की पहुंच केवल 14 प्रतिशत है।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा वर्ष 2020 में 5 राज्यों की शासकीय शालाओं में पढ़ने वाले 80000 विद्यार्थियों पर किए गए सर्वेक्षण(मिथ्स आॅफ आॅनलाइन एजुकेशन) एवं भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा जुलाई 2020 में केंद्रीय विद्यालय संगठन, नवोदय विद्यालय समिति एवं सीबीएसई को सम्मिलित करते हुए एनसीईआरटी के माध्यम से कराए गए सर्वेक्षण के नतीजे भी व्यापक और गहरी डिजिटल डिवाइड की पुष्टि करते हैं। एकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव तथा सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च द्वारा चलाया जा रहा इनसाइड डिस्ट्रिक्ट्स कार्यक्रम भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचता है। शिक्षा पर 2020 की एनएसओ की रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में हमारी 5 प्रतिशत से भी कम ग्रामीण जनसंख्या की कम्प्यूटरों तक पहुंच है। यूनिसेफ के अनुसार भारत में 6-13 वर्ष के बीच के 42 प्रतिशत बच्चों ने स्कूल बंद होने के दौरान किसी भी प्रकार की दूरस्थ शिक्षा का उपयोग नहीं करने की सूचना दी।
‘प्रथम’ एजुकेशन फाउंडेशन की 25 राज्यों व 581 जिलों में 75,234 बच्चों की जानकारी पर आधारित शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट-असर-2021- के अनुसार कोविड-19 के दौर में निजी विद्यालयों में विद्यार्थियों का नामांकन 8.1 प्रतिशत कम हुआ है, जबकि शासकीय शालाओं में नामांकन में वृद्धि हुई है। सरकार का बजट पूर्व आर्थिक सर्वेक्षण भी यह सुझाव देता है कि शासकीय शालाओं में विद्यार्थियों की बढ़ती संख्या को दृष्टिगत रखते हुए अधोसंरचना को बेहतर बनाते हुए बुनियादी सुविधाओं का विस्तार किया जाए। किंतु आरटीई फोरम के विशेषज्ञों और शिक्षा के लोकव्यापीकरण हेतु कार्य करने वाले बहुत से अन्य संगठनों ने इस बात पर चिंता व्यक्त की है कि बजट में देश के बदहाल पंद्रह लाख सरकारी स्कूलों की स्थिति सुधारने हेतु कोई प्रावधान नहीं किया गया है।भारत के ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों में स्कूलों की दयनीय दशा कोविड से पहले भी थी और आगे भी जारी रहेगी क्योंकि सरकार का बजट इस संदर्भ में मौन है।
बजट की एक बहुचर्चित एवं बहुप्रशंसित घोषणा यह थी कि पीएम ई विद्या स्कीम के तहत वन क्लास वन टीवी चैनल पहल का विस्तार किया जाएगा और इसे वर्तमान 20 चैनलों से बढ़ाकर 200 चैनल किया जाएगा। किंतु आश्चर्यजनक रूप से डिजिटल इंडिया ई लर्निंग प्रोग्राम के बजट में(जिसके अंतर्गत पीएम ई विद्या योजना आती है) भारी कटौती की गई है और 2021-22 के 645.61 करोड़ रुपए की तुलना में यह घटाकर 421.01 करोड़ रूपए कर दिया गया है। शिक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि टीवी उन इलाकों में जानकारी देने का जरिया जरूर बनेगा जहाँ हर विद्यार्थी के पास अपना डिजिटल गैजेट नहीं है। किंतु यह अधिगम स्तर में सुधार ला पाएगा ऐसा नहीं लगता क्योंकि यह सूचना देने की एकतरफा प्रक्रिया भर है, इसमें शिक्षक-विद्यार्थी अंतर्क्रिया के लिए कोई स्थान नहीं है।
कोविड-19 के कारण शिक्षा व्यवस्था पर पड़े नकारात्मक प्रभावों का वस्तुनिष्ठ आकलन तथा देश में व्याप्त डिजिटल डिवाइड और सरकारी स्कूलों की खस्ताहाल स्थिति की बेबाक स्वीकृति ही हमारी शिक्षा विषयक योजनाओं को कारगर बना सकती है। किंतु सरकार शिक्षा की स्याह हकीकत से मुंह मोड़कर डिजिटल शिक्षा की बात कर रही है। सरकार की डिजिटल शिक्षा थोपने की जल्दबाजी को देखकर आशंका उत्पन्न होती है कि यह शिक्षा बजट, निजीकरण वाया डिजिटलीकरण जैसा कोई अप्रकट लक्ष्य तो नहीं रखता है।
राजू पांडेय