Wednesday, May 21, 2025
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न्याय होते दिखना भी जरूरी

Samvad


KRISHNA PRATAP SINGHन्याय की सर्वमान्य अवधारणा सुनिश्चित करना सत्ताओं व व्यवस्थाओं के लिए हमेशा एक बड़ी समस्या रहा है। ऐसे में क्या आश्चर्य कि इक्कीसवीं शताब्दी के तेईसवें साल में भी, खुद को लोकतांत्रिक कहने वाले देशों तक के पास न्याय की कोई सर्वमान्य लोकतांत्रिक परिभाषा नहीं है।
अपने देश की बात करें तो कोढ़ मे ंखाज यह कि अब सरकारों को भी कानून अपने हाथ में लेकर ‘तुरत-फुरत न्याय उपलब्ध कराने’ में मजा आने लगा है और लंबी, खर्चीली, उबाऊ और अंतत: निराश करने वाली अदालती प्रक्रिया से पीड़ित लोगों को भी। दुर्भाग्य से ये दोनों नहीं देख पा रहे कि इससे न्याय की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी का रंग भी बहस-तलब हो चला है। बात उत्तर प्रदेश में माफिया अतीक अहमद व उसके भाई अशरफ की पुलिस हिरासत में हत्या अथवा उसके बेटे असद के ‘एन्काउंटर’ भर की ही नहीं है।

क्योंकि अदालतों को दरकिनार कर तुरत-फुरत न्याय के प्रति झुकाव के लिहाज से देखें तो वह कोई अभूतपूर्व घटना नहीं है। याद कीजिए, 27 नवम्बर, 2019 को हैदराबाद में एक महिला वेटरनरी डॉक्टर से वहशत हुई तो भी एकबारगी सारा बखेड़ा खत्म कर देने की राह चलकर तेलंगाना पुलिस ने चार आरोपियों को पकड़कर एन्काउंटर में मार डाला था।

जैसे अब कई लोग अतीक, उसके भाई और बेटे को ‘करनी का फल’ मिल जाने से कुछ ज्यादा ही खुश हैं, उक्त एनकाउंटर के लिए हैदराबाद पुलिस को भी चौतरफा वाहवाही मिली थी। जैसे उत्तर प्रदेश के जलशक्तिमंत्री स्वतंत्रदेव सिंह ने अतीककांड के फौरन बाद ट्वीट किया कि पाप और पुण्य का हिसाब इसी जन्म में होता है, तेलंगाना के कानून मंत्री इंद्रकरण रेड्डी ने भी कहा था कि कानूनी प्रक्रिया से पहले ही भगवान ने आरोपियों को सजा दे दी।

यह तब था, जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जस्टिस सिपुरकर की अध्यक्षता में गठित पैनल ने जनवरी, 2022 में दी गई अपनी रिपोर्ट में उक्त एन्काउंटर को फर्जी पाया था और उसमें शामिल पुलिसकर्मियों पर हत्या का मुकदमा चलाने की सिफारिश की थी।

कौन जाने कल अतीक, उसके भाई और बेटे के मामले की जांच में भी ऐसा ही कोई निष्कर्ष सामने आ जाये! लेकिन उससे अभी तुरत-फुरत न्याय पाने से आह्लादित लोगों को शायद ही कोई फर्क पड़े।

यह फर्क न पड़ने का एक ही कारण है: ‘तारीख पर तारीख’ वाली न्याय प्रणाली ने आम लोगों की न्याय तक पहुंच मुश्किल बनाकर उसे एक परिकल्पित शब्द भर बना डाला है-ऐसा फल, जिसकी कल्पना भर की जा सकती है, उसे पाया नहीं जा सकता।

इसके उलट न्याय प्रणाली को लेकर किसी माफिया, गुंडे, कातिल या बलात्कारी का लहजा शायद की कभी शिकायती होता हो। क्योंकि अदालतों में लिखा भले रहता हो कि वादी का हित सर्वोच्च है, इस न्यायिक अवधारणा का, कि ‘सौ गुनाहगार छूट जाएं, किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए’, लाभ वादी से ज्यादा फसादी को ही मिलता है।

इसके चलते कानून हाथ में लेकर अपराधियों से मौके पर ही हिसाब बराबर कर लेने का ‘लालच’ अब इतना बढ गया है कि उसके कारण अपराधी को दंडित करने में न्याय के लोकतांत्रिक तकाजे पूरे न भी हों तो लोग परवाह नहीं करते।

जघन्य अपराधों में ‘फांसी दो, फांसी दो’ की जो मांग उठने लगती है, वह भी इसी कारण कि अपनी दूषित चेतना के बंदी लोग समझ नहीं कर पाते कि किसी अपराध की जघन्यता के आधार पर उसके असंदिग्ध रूप से साबित हुए बिना अभियुक्त को दंडित करने की परम्परा डाली गयी तो आगे राज्य और उसकी एजेंसियों त्रजिनके कर्तव्यपालन की राह कर्तग्वयहीनता, भ्रष्टाचार व साम्प्रदायिकता आदि जाने कितने कांटों से भरी पड़ी हैत्न द्वारा उसका दुरुपयोग कितनी विषम स्थिति पैदा कर देगा!

फिर तो क्या पता, सरकारी न्याय भी उन खाप पंचायतों के न्याय जैसा हो जाए, जो इक्कीसवीं सदी में भी किसी युवा जोडे के प्रेम विवाह का दंड उसे सूली पर लटकाकर देतीं और फरमान जारी करती हैं कि युवतियां मोबाइल इस्तेमाल न करें।

यह भी हो सकता है कि वह नक्सलवादियों द्वारा जंगलों में ‘जन अदालतें’ लगाकर दिए जाने वाले सर्वथा बेदिल न्याय जैसा हो जाए। गौरतलब है कि ऐसी न्यायिक अंितयों की हमारे अतीत में कोई कमी नहीं रही है।

एक कथा है कि एक बार एक राजा ने अपनी सारी प्रजा के लिए सच बोलना अनिवार्य करने का आदेश जारी कर उसके उल्लंघन पर मृत्युदंड देने का एलान कर दिया। राज्य की सीमाओं पर चैकियां बनवाकर उनमें अधिकारी भी तैनात कर दिए, जो किसी के सत्यवादी होने को लेकर आश्वस्त होने के बाद ही राज्य में प्रवेश दें।

मंत्री ने राजा के आदेश पर यह कहकर एतराज जताया कि आमतौर पर सच के कई कोण होते हैं और जरूरी नहीं कि जो बात एक पक्ष के लिए सच हो, दूसरे पक्ष के लिए भी हो, तो राजा से उसे भी सच न बोलने का कुसूरवार करार देकर राज्य से निर्वासित कर दिया। यह कहकर कि मंत्री होने के नाते वह उसके साथ इतनी रियायत बरत रहा है कि मृत्युदंड नहीं दे रहा।

लेकिन अगले दिन मंत्री एक सीमा चौकी पर राज्य में प्रवेश चाहने वालों की पांत में सबसे आगे आ खड़ा हुआ। चकित अधिकारियों ने कहा, ‘अरे मंत्री जी, अभी कल ही आपको प्राणदान मिला और आज फिर अपने प्राण संकट में डालने आ गए! आखिर चाहते क्या है?’ मंत्री ने छूटते ही कहा, ‘फांसी पर लटकना चाहता हूं।’

अधिकारी चकराकर रह गये। यों तो, मंत्री ने झूठ बोला, जिसकी सजा फांसी है। लेकिन फांसी पर लटका दें तो उसकी बात सच हो जाती है, जिसके लिए कोई दंड ही नहीं है। वे देर तक कोई फैसला नहीं कर पाए तो बात राजा तक पहुंचाई। गनीमत थी कि राजा को अपने आदेश के अनर्थ का अहसास हो गया, उसने मंत्री से माफी मांगी और आदेश वापस ले लिया।

लेकिन अफसोस कि लेटलतीफ अदालतों के चलते कई बार न्याय के न्याय ही न रह जाने की आड़ में ‘तुरत-फुरत न्याय’ की पैरोकार हो चली सरकारें इतना समझने भर को भी विवेक नहीं बचा पाई हैं कि लोकतंत्र में न्याय होना ही पर्याप्त नहीं माना जाता, न्याय को होता हुआ दिखना भी जरूरी माना जाता है।

कोई जो उनसे कम से कम इसके लिए खेद व्यक्त करवा सके कि वे न्याय करने चलती हैं तो भी ‘अपना-पराया’ करने लगती हंै और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा ‘जयद्रथ वध’ में दी गई यह सीख भूल जाती हैं कि ‘न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है’।


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