- पश्चिमी यूपी में बदल सकते हैं राजनीतिक समीकरण
जनवाणी संवाददाता |
मेरठ: पश्चिमी यूपी की सियासत करवट बदलते हुए दिख रही हैं। दरअसल, रालोद सुप्रीमो जयंत चौधरी पलटी मारने की जुगत में जुट गए हैं। ये सुनकर आप हैरत में पड़ सकते हैं, लेकिन ये राजनीति हैं, इसमें कौन-कब पलटी मार ले कुछ कहा नहीं जा सकता? बिहार में नीतिश कुमार इसका एक छोटा सा उदाहरण हैं। फिर जयंत चौधरी कहां पीछे रहने वाले हैं। सपा-रालोद के बीच कुछ सीटों को लेकर मतभेद सामने आ रहे हैं, जिसको लेकर अब जयंत चौधरी की भाजपा के शीर्ष नेताओं से नजदीकियां बढ़ गई हैं।
भाजपा के एक बड़े नेता से भी जयंत की मुलाकात सुर्खियां बन गई हैं। पश्चिमी यूपी में मुजफ्फरनगर दंगे के बाद रालोद पार्टी हाशिये पर आ गई थी, लेकिन चौधरी अजित सिंह ने मुजफ्फरनगर से सद्भावना संदेश अभियान शुरू किया, जिसके बाद पार्टी के साथ बड़ी तादाद में मुस्लिमों का रालोद के प्रति फिर से रुझान हो गया था। हालांकि मुस्लिम खुलकर पूरी तरह से रालोद के साथ नहीं आये थे, लेकिन इसी बीच सपा के साथ गठबंधन करने से रालोद को लाभ मिला। 2019 के लोकसभा चुनाव में रालोद अपना कोई खाता नहीं खोल पाया,
लेकिन अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाबी हासिल कर ली थी। चौधरी अजित सिंह ने जो पार्टी का अस्तित्व फिर खड़ा किया था, उस पर जयंत चौधरी पानी फेरने का काम कर रहे हैं। पश्चिमी यूपी में जाट और मुस्लिमों का जो गठजोड़ फिर से बनता दिख रहा था, उसको भी जयंत चौधरी की पलटी मारने की खबरों से बड़ा झटका लगेगा। मुस्लिम वोटर फिर से रालोद से किनारा कर लेगा और जयंत के इस आत्मघाती कदम से भले ही जयंत को सत्ता लोलुपता तो हासिल हो जाएगी, लेकिन उसका परंपरागत वोट बैंक उससे छिटक जाएगा।
पिछले 15 दिन से जयंत चौधरी अपनी पार्टी के नेताओं से भी नहीं मिल रहे हैं। किसी से बात भी नहीं कर रहे हैं। अचानक उनका रवैया बदल गया हैं। इसकी वजह भाजपा से बढ़ती नजदीकियां भी मानी जा रही हैं। चार सीटों का आॅफर भाजपा की तरफ से जयंत को मिला हैं। ऐसा पार्टी सूत्रों का कहना हैं। बागपत, मथुरा, अमरोहा और कैराना ये चार सीटें ऐसी है, जो जयंत चौधरी को भाजपा देने पर सहमत हैं।
हाल ही में जयंत चौधरी बागपत दौरे पर गए थे, जहां उन्होंने कहा था कि भाजपा में जाने का सवाल ही नहीं उठता। पार्टी में अंतिम निर्णय भी उनका ही होता हैं। ऐसे में यदि जयंत चौधरी का भाजपा में जाने के निर्णय पर सवाल उठाना चाहे तो जवाबदेही किसकी?
मुजफ्फरनगर सीट बनी मंूछ का सवाल
दरअसल, मुजफ्फरनगर की जाट बाहुल्य सीट पर अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए अखिलेश यादव में खासी छटपटाहट थी। तभी यहां से सपा सुप्रीमो ने हरेन्द्र मलिक का नाम फाइनल करके अपना वर्चस्व दिखाना चाहते थे, जबकि रालोद सुप्रीमो जयंत चौधरी अपने प्रत्याशी को चुनाव मैदान में उतारने की जिद पर अड़े थे। क्योंकि अजित सिंह की मुजफ्फरनगर लोकसभा क्षेत्र से मात्र छह हजार मतों के अंतर से ही 2019 के चुनाव में पराजय हुई थी।
मुजफ्फरनगर में अपनी इस टीस की भरपाई करने के लिए जाटों के साथ मुस्लिम भी संगठित थे, लेकिन जयंत चौधरी ऐसे में भाजपा में अपनी आमद करते हैं तो इसका खामियाजा निश्चित तौर पर उनको ही भविष्य में भुगताना पड़ सकता हैं। सिंबल रालोद का, प्रत्याशी सपा का। ऐसा प्रयोग पहले भी अखिलेश यादव कर चुके हैं। लोकसभा चुनाव में भी इस तरह का प्रयोग करना चाहते थे। यही से सपा-रालोद के बीच खटास पैदा हुई।