पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने बीजेपी की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के बारे में जो टिप्पणियां कीं उनके बाद टीवी चैनलों पर आयोजित की जाने वाली बहसों की सार्थकता पर नए सिरे से विमर्श शुरू हो गया है। वास्तव में जिस चैनल पर नूपुर ने बयान दिया उसकी भी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए थी। कहा जाता है इस बहस में मुस्लिम पॉलिटिकल काउंसिल आॅफ इंडिया के अध्यक्ष तसलीम रहमानी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में इस्लामिक स्टडीज डिपार्टमेंट के प्रोफेसर जुनैद हारिस भी हिस्सा ले रहे थे। टीवी डिबेट के दौरान रहमानी और नूपुर शर्मा के बीच बहस काफी तीखी हो गई। बहस के दौरान बीजेपी प्रवक्ता ने यह भी कहा कि लोग लगातार हिंदू धर्म का मजाक उड़ा रहे हैं और अगर यही स्थिति बनी रही तो वह भी दूसरे धर्मों का मजाक उड़ा सकती हैं। बहस में बैठे मौलाना के उकसाने पर शर्मा आपा खो बैठीं और उन्होंने भी उसी शैली में जवाब दिया। नुपूर के बयान से भारत सहित अनेक इस्लामी देशों में बवाल मच गया। मामले की गंभीरता को देखते हुए बीजेपी ने अपनी राष्ट्रीय प्रवक्ता नूपुर को पार्टी से निलम्बित कर दिया। वहीं उनके समर्थन में आये दिल्ली भाजपा के प्रवक्ता नवीन जिंदल को पार्टी से निष्कासित कर दिया। मुस्लिम देशों की नाराजगी दूर करने के लिए उठाए गए कूटनीतिक कदमों का माकूल असर हुआ और कुछ ही दिनों में उनका गुस्सा ठंडा पड़ गया। लेकिन हमारे देश में राजनीतिक कारणों से विरोध की चिंगारी भड़काई जाती रही।
कानपुर के साथ ही देश के अनेक शहरों में जुमे की नमाज के जो हुआ, उसकी वजह से उत्तेजना और बढ़ी। बकौल सर्वोच्च न्यायालय इस सबका कारण नूपुर का वह बयान था। सुप्रीम कोर्ट ने उनको टीवी पर आकर माफी मांगने की नसीहत भी दी और उनकी गिरफ्तारी न होने पर भी ऐतराज जताया। लेकिन उसकी इस आपत्ति पर लोगों का ज्यादा ध्यान नहीं गया कि जब ज्ञानवापी मस्जिद का प्रकरण अदालत में लंबित था तब टीवी चैनल ने उस पर बहस क्यों करवाई? नूपुर के वकील के ये कहने पर कि उन्हें बहस के दौरान उकसाया गया तो जज साहब ने कहा कि उनको टीवी एंकर के विरुद्ध शिकायत दर्ज करानी चाहिए थी। न्यायालय की टिप्पणी के बाद टीवी चैनलों की कार्यप्रणाली पर विचार करने की जरूरत है। बीते काफी समय से ये देखा जा रहा है कि समाचार चैनलों की दर्शक संख्या में तेजी से कमी आती जा रही है और ये भी कि उनके द्वारा आयोजित बहस की प्रमाणिकता को लेकर संदेह बढ़ता जा रहा है।
आजकल हमारे चैनलों पर हर बहस में पार्टी-प्रवक्ताओं को बिठा दिया जाता है। वे मूल विषय पर तर्क-वितर्क करने की बजाय एक-दूसरे पर बेलगाम प्रहार करते हैं। उनके मुंह में जो भी आ जाता है, उसे वे बेझिझक उगल देते हैं। अप्रैल 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि आपराधिक मुकदमों से संबंधित मामलों पर टीवी चैनलों पर बहस होना ‘आपराधिक न्याय में हस्तक्षेप’ है। जस्टिस यूयू ललित और पीएस नरसिम्हा की बेंच ने कहा अपराध से संबंधित सभी मामले और कोई भी विशेष बात जो सबूत हो सकती है, ये कानून की अदालत द्वारा निपटाया जाना चाहिए, न कि टीवी चैनल के माध्यम से। दरअसल हमारे टीवी न्यूज को एक बीमारी हो गई है। और वो बीमारी ये है उसके न्यूज एंकर खुद ही खुद को खुदा समझने लगे हैं। कई बार हम देखते हैं कि मामले की सुनवाई कोर्ट में शुरू ही नहीं होती है कि हमारे न्यूज एंकर खुद ही जज बनकर फैसला तक सुना देते हैं। टीवी न्यूज एंकरों की एक नहीं ऐसी सैकड़ों ऐसी मिसालें हैं जो ये बताने के लिए काफी हैं कि आज हम न्यूज के बजाए नौटंकी कर रहे हैं।
ये भी आम चर्चा है कि मुख्य रूप से हिंदू-मुस्लिम से जुड़े किसी भी विषय पर जिन मेहमानों को बुलाया जाता है उन्हें उसके लिए पैसे दिए जाने के साथ ही पूरी बहस की पटकथा पहले तय कर ली जाती है। जो लोग टीवी के परदे पर एक दूसरे पर हमला करने तक का दिखावा करते हैं। वे बहस खत्म होने के बाद एक साथ बैठकर चाय पीते और अक्सर एक ही वाहन से जाते हुए दिखाई देते हैं। सच्चाई जो भी हो लेकिन तकनीक के कंधों पर बैठकर आई टीवी पत्रकारिता ने बहस और विमर्श दोनों को जिस तरह बाजारू बना दिया उसके कारण यह माध्यम अपनी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता दोनों गंवाता जा रहा है।
हमारा टीवी मीडिया भी इंस्टैंट के आग्रह के चलते ‘पॉप’ विश्लेषण की बहस संस्कृति को प्रोत्साहित कर रहा है, जहां आपको कोई न कोई पक्ष लेने के लिए बाध्य कर दिया जाता है। आमतौर पर इन बहसों में पूछे जाने वाले सवाल अतिवादी विचारों को प्रोत्साहित करते हैं। सूक्ष्म विश्लेषण करने वाले संयत स्वरों को नीरस करार दे दिया जाता है, जबकि कर्कश लफ्फाजियों को ऊंची ‘एंटरटेनमेंट वैल्यू’ प्रदान करने वाली मान लिया जाता है। नुपूर शर्मा के प्रकरण में कुल मिलाकर जो निष्कर्ष सामने आ रहा है उसके अनुसार टीवी चैनलों का विशुद्ध व्यवसायिक रवैया देश में अनेक विवादों का कारण बनता रहा है। उस दृष्टि से देखें तो दूरदर्शन और लोकसभा टीवी पर होने वाली चर्चाओं में कहीं ज्यादा गंभीर और तथ्यात्मक बातें सुनने मिलती हैं। लेकिन निजी चैनल विशुद्ध व्यवसायिक दृष्टिकोण से बहस आदि का आयोजन करवाते हैं। उनका मुख्य उद्देश्य दर्शकों को व्यर्थ की बातों में उलझाकर ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन बटोरना है जिसके लिए सनसनी फैलाना आवश्यक होता है। संदर्भित प्रकरण के पीछे भी यही वजह समझ में आती है।
निश्चित ही मीडिया इस खेल के लिए एक सरल मंच मुहैया कराता है, लेकिन टीवी स्टूडियो कोई ऐसा चुंबकीय क्षेत्र नहीं होता, जो हमारे उच्चतर विवेक का हरण कर लेता हो। आखिर हमारे नेता ही सार्वजनिक विमर्शों को अधिक समृद्ध बनाने की अपनी जिम्मेदारी क्यों नहीं समझते? हमें तर्कप्रिय होना चाहिए, लेकिन अभियोगप्रिय नहीं। हमें खुले विचारों का होना चाहिए, असहिष्णु नहीं। सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने जितनी लताड़ नूपुर को लगाई उससे ज्यादा जरूरी उस चैनल के प्रति भी थी, जिसने इस बवाल की जमीन तैयार की। अच्छा होगा कि टीवी चैनल आपसी प्रतिस्पर्धा के बावजूद इस तरह के विवादों को रोकने के बारे में आत्मानुशासन का उदाहरण पेश करें, क्योंकि सरकार इस बारे में कड़ाई करेगी तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन और असहिष्णुता का रोना शुरू हो जाएगा। वहीं राजनीतिक दलों और नेताओं, विशेष तौर पर सत्ता में बैठे लोगों का ये दायित्व बनता है कि वे इलेक्ट्रानिक मीडिया को अतिरिक्त महत्व देना बंद करें। जो दिखता है वह बिकता है, वाली धारणा को त्यागकर जो दिखाया जाए वह प्रामाणिक हो, वाली मानसिकता विकसित करनी होगी।