Wednesday, July 3, 2024
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भाजपा की ‘पसमांदा’ पर नजर

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Samvad 48

05 11हिंदुत्व को केंद्र में रखकर राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी अब पसमांदा मुसलमानों को अपने साथ जोड़ना चाहती है। भाजपा की छवि हमेशा से ही मुस्लिम विरोधी रही है। वो पिछले आठ सालों से सत्ता में है, इस दौरान उसपर यह आरोप और गहरा होता गया है। इन आरोपों के पीछे ठोस वजूहात भी हैं जिनकी जड़ें उसके हिन्दुतत्व की मूल विचारधारा में निहित है। पिछले आठ सालों के भाजपा के शासन काल के दौरान मुसलमान लगातार हाशिये पर गए हैं और उनके खिलाफ डर व असुरक्षा का माहौल बना है। आज की तारीख में मोदी सरकार में कोई मंत्री मुस्लिम नहीं है और सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद उसका कोई सांसद या विधायक मुस्लिम नहीं है। ऐसे में पसमांदा मुसलमानों को लेकर भाजपा में उभरे इस स्नेह के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? ऐसा माना जाता है कि भारत के मुस्लिम समाज का 85 फीसदी हिस्सा पसमांदा है। ‘पसमांदा’ का अर्थ है ‘पीछे छूटे हुए’ या ‘दबाए गये लोग’। दरअसल पसमांदा शब्द का उपयोग मुसलमानों के बीच दलित और पिछड़े मुस्लिम समूहों के संबोधन के लिए किया जाता है।

ऐसा माना जाता है कि ज्यादातर पसमांदा मुसलमान हिंदू धर्म से कन्वर्ट होकर मुसलमान बने हैं, लेकिन वे अपनी जाति से पीछा नहीं छुड़ा सके हैं। इनमें से अधिकतर की सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति हिंदू दलितों एवं आदिवासियों के सामान या उनसे भी बदतर है। संख्या में अधिक होने के बावजूद पसमांदा मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी काफी कम है। पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा तक चुने गए कुल 400 मुस्लिम सांसदों में केवल 60 पसमांदा सांसद शामिल हैं।

इसी गैरबराबरी को ध्यान में रखते हुए पसमांदा मुस्लिम लंबे समय से अपनी सामाजिक-आर्थिक बेहतरी के लिए संघर्ष भी कर रहे हैं, आजादी से पहले अब्दुल कय्यूम अंसारी और मौलाना अली हुसैन असीम बिहारी जैसे लोगों द्वारा इसकी शुरूआत की गयी। मौजुदा दौर में पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर जैसे नेता इस मुहिम की अगुवाई कर रहे हैं जिन्होंने ‘अखिल भारतीय पसमांदा मुस्लिम महाज’ की स्थापना की है और ‘मसावात की जंग’ जैसी किताब लिख चुके हैं। इस सिलसिले में मसूद आलम फलाही की किताब ‘हिंदुस्तान में जात-पात और मुसलमान’ भी काबिले जिक्र है जो मुस्लिम समाज के अन्दर व्याप्त जातिगत ऊंच-नीच और भेदभाव का बहुत प्रभावी तरीके से खुलासा करती है।

देश की तकरीबन सभी राजनीतिक पार्टियों द्वारा पसमांदा मुसलमानों की अपेक्षा की गई है, लेकिन अब भाजपा जैसी हिंदुत्ववादी पार्टी ने इन्हें अपने साथ जोड़ने का इरादा जताया है। जुलाई 2022 में हैदराबाद में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मुस्लिम समुदाय के कमजोर और वंचित तबकों को भाजपा से जोड़ने की सलाह दी गई थी। दरअसल भाजपा हिंदू एकता के अपने विराट प्रोजेक्ट के तहत पहले ही ओबीसी के गैर-यादव जातियों और गैर जाटव दलितों के बीच अपना पैठ बना चुकी है, अब पसमांदा मुसलमानों को अपनी तरफ आकर्षित करके अपने सोशल इंजीनियरिंग को अभेद बना देना चाहती है।

इसकी कवायद लम्बे समय से चल रही है, 2014 में सत्ता में आने के बाद भाजपा द्वारा पहली बार एक पसमांदा मुस्लिम अब्दुल रशीद अंसारी को पार्टी के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक मोर्चा का अध्यक्ष बनाया गया। इससे पहले भाजपा अधिकतर शियाओं और कुछ हद तक बरेलवी मुसलामानों पर ही ज्यादा ध्यान देती थी। इसी प्रकार से उत्तर प्रदेश में दूसरी बार सत्ता हासिल करने के बाद इकलौते मुस्लिम मंत्री के रूप में दानिश अंसारी को जगह दी गयी जो एक पसमांदा मुसलमान हैं।

गौरतलब है कि देश के पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, झारखंड और असम में मुस्लिम आबादी 19.26 प्रतिशत से 34.22 प्रतिशत के बीच है, जाहिर हैं इनमें से अधिकतर पसमांदा मुस्लिम हैं। इन पांचों राज्यों में 190 से ज्यादा लोकसभा की सीटें आती हैं, इसके साथ ही दक्षिण भारत के राज्यों में भी पसमांदा मुस्लिमों की अच्छी तादाद है। इसी को ध्यान में रखते हुए भाजपा पसमांदा मुसलमानों को साधना चाहती है। इसके लिए भाजपा ने अपनी रणनीति पर अमल करना शुरू भी कर दिया है। पिछले दिनों संपन्न हुये मध्यप्रदेश नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा ने कुल 6671 पार्षद सीटों में से 380 सीटों पर मुस्लिमों को टिकट दिया था जिनमें से अधिकतर पसमांदा मुसलमान थे।

इनमें से भाजपा के 92 मुस्लिम उम्मीदवार अपनी जीत दर्ज कराने में कामयाब भी रहे हैं। अब भाजपा पूरे देश में पसमांदा मुसलमानों की बस्तियों में स्नेह यात्रा निकालने की योजना पर काम कर रही है।
भाजपा पसमांदा मुसलमानों तक अपनी पहुंच बनाकर एक तीर से कई निशाने लगाना चाहती है। सबसे पहला और बाहरी तौर पर दिखाई पड़ने वाला निशाना तो उनका वोट हासिल करना है, साथ ही मुस्लिम समुदाय के एक हिस्से के भाजपा से जुड़ने के और भी फायदे हैं इससे मुस्लिम वोटों का बिखराव होगा और समुदाय का एक हिस्सा चुनावों में जातिगत आधारों पर बंट कर वोट कर सकता है।

इस पहल के पीछे एक और छुपा मकसद हो सकता है जो संघ के लंबे समय की रणनीति का एक हिस्सा है। संघ प्रमुख मोहन भागवत लंबे समय से यह दोहराते रहे हैं कि भारत में रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं भले ही उनकी पूजा और इबादत का तरीका अलग हो। यहां संघ द्वारा ‘हिंदू’ को रहन-सहन के तरीके और संस्कृति के तौर पर परिभाषित किया जाता है। आजकल संघ और भाजपा के लोग यह कहते हुए भी दिखलाई पड़ते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों (खासकर पसमांदा मुसलामानों) के पूर्वज एक ही हैं।

पसमांदा आंदोलन का एक नारा है ‘हिंदू हो या मुसलमान पिछड़ा-पिछड़ा एक समान’। यह पसमांदा आंदोलन की मूल आत्मा है। यह नारा धार्मिक पहचान की जगह सभी समुदायों के सामाजिक या जातीय रूप से संगठित करने की वकालत करता है। यह एक प्रगतिशील नारा है लेकिन भाजपा और संघ इसका अपनी तरह से फायदा उठाना चाहते हैं। हालांकि उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं होगा।

पसमांदा आंदोलन के नेता आशंका जता रहे हैं कि अचानक पसमांदा समाज के लिए ‘स्नेह यात्रा’ निकालने के पीछे मकसद मुसलमानों को आपस में लड़ा कर तोड़ने जैसी सियासत तो नहीं है? वैसे पसमांदा मुसलामानों का विश्वास जीतना भी आसान नहीं होगा। मॉब लिंचिंग और पूरे समुदाय के खिलाफ नफरत का जो माहौल बनाया गया है, उससे पसमांदा मुस्लिम भी बड़े पैमाने पर प्रभावित रहे हैं। लेकिन अगर भाजपा पसमांदा मुसलमानों के लिए एक ठोस कार्यक्रम करती है तो इसके प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता है। यह ना केवल भाजपा बल्कि भारत में अल्पसंख्यक समुदाय राजनीति में एक बड़ा बदलाव ला सकता है।


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