पिछले दिनों पटियाला में खालिस्तान मुद्दे को फिर से जिंदा करने का प्रयास किया गया। अतीत में भी खालिस्तान के मुद्दे पर पंजाब सुलग और अशांत हो चुका है। जमीनी सच्चाई यह है कि खालिस्तान आज इतिहास के पन्नों का हिस्सा बन चुका है। वर्तमान में उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। ऐसे में अहम प्रश्न यह है कि पटियाला में हिंदू और सिख-निहंग चेहरे एक-दूसरे के विरोध में आमने-सामने क्यों आए? आखिरकार खालिस्तान का मुद्दा किन हालातों में वहां उठा? विचारणीय यह है कि पंजाब में हिंदुओं और सिखों के बीच टकराव तब भी नहीं हुआ था, जब खालिस्तान की मांग उग्र थी और आतंकवाद का दौर था। पंजाबवासी कभी भी सांप्रदायिक नहीं रहे। खालिस्तान ने जो घाव दिए थे, उन्हें भरे हुए काफी समय हो चुका है। पंजाब में खालिस्तान किसी को भी नहीं चाहिए। ऐसे मेंपंजाब की हालिया घटनाओं से जो संकेत मिलता है उसे शुभ नहीं कहा जा सकता।
पटियाला के घटनाक्रम पर नजर दौड़ाएं तो पंजाब में सक्रिय शिवसेना (बाल ठाकरे) ने खालिस्तान विरोधी मार्च निकालने की योजना बनाई थी। पंजाब में कई तरह की शिवसेनाएं हैं-शिवसेना समाजवादी, शिवसेना राष्ट्रवादी, शिवसेना हिंदू भैया, शिवसेना अखंड भारत। इनका महाराष्ट्र वाली शिवसेना से कोई सरोकार नहीं है, यह पार्टी के राज्यसभा सांसद एवं मुख्य प्रवक्ता संजय राउत ने स्पष्ट किया है। शुरुआती जांच में 32 सिख और 8 हिंदू संगठनों के नेताओं की भूमिका सामने आई है। धरपकड़ की जा रही है।
हिंसा का मास्टरमाइंड वजिंदर सिंह परवाना को कहा जा रहा है। मुख्यमंत्री मामले में सक्रियता दिखा रहे हैं, लेकिन अफसोस इस बात का है कि अगर पंजाब सरकार के पास इस बाबत कोई खुफिया रिपोर्ट पहले से थी, तो उस पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया।
खालिस्तान आंदोलन ने पंजाब को बहुत नुकसान पहुंचाया है। पंजाब का आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचा खालिस्तान आंदोलन ने छिन्न-भिन्न करने का काम किया था। खाड़कुओं ने पंजाब के कई प्रतिष्ठित पत्रकारों, कलाकारों, प्रबुद्धजनों के साथ आम लोगों को खालिस्तान के नाम पर बर्बरता पूर्वक मारा।
चुन-चुन का हिंदुओं का निशाना बनाया गया। खाडुकओं के आंतक से डरकर पंजाब से हिंदू आबादी का बड़ा हिस्सा हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, हिमाचल और देश के अन्य राज्यों में शरण लेने और बसने को विवश हुआ। हजारों बेकसूरों को खाडुकओं ने मार डाला।
पंजाब सीमावर्ती राज्य है। पंजाब की सीमा पाकिस्तान से जुड़ी है। पंजाब ने लंबे समय तक राजनीतिक उठापटक और उथल-पुथल भरा माहौल देखा है। बीते मार्च में हुए विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने सत्ता संभाली है। आप के सत्ता संभालने के एक महीने के भीतर ही पंजाब में खालिस्तान आंदोलन करवट लेता दिख रहा है। पटियाला में जो कुछ भी घटित हुआ वो पंजाब और देश के लिए किसी भी लिहाज से ठीक नहीं कहा जा सकता। ऐसे माहौल में पंजाब की नई सरकार की अग्निपरीक्षा है। पंजाब सीमावर्ती प्रदेश है।
चीन और पाकिस्तान की सीमापार से निगाहें हमारे पंजाब पर रहेंगी। ऐसे में पंजाब से जुड़ा छोटे से छोटा मामला भी संवेदनशील और गंभीर प्रवृत्ति का है। सवाल यह भी है कि क्या कनाडा और लंदन में बसी खालिस्तानी ताकतों ने कोई साजिश रची थी? यदि ऐसा कोई सुराग मिलता है, तो भारत सरकार का अगल कदम क्या होगा। मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान ने त्वरित कार्रवाई कर सभी पक्षों की जिम्मेदारी तय करने की पहल की है, लेकिन इतना ही काफी नहीं है।
ये गंभीर प्रवृत्ति का मामला है। किसान आंदोलन के समय भी कुछ हिंसक घटनाएं प्रकाश में आई थीं, उस समय भी इन घटनाओं के पीछे विदेशों में बैठे खालिस्तान संगठनों की भूमिका चर्चा में रही थी।
भिंडरावाले की तस्वीर वाली टी-शर्ट, खालिस्तानी साहित्य और अन्य सामान सिख धर्म के सबसे पवित्र स्थल श्री हरमिंदर साहिब एवं भारत के विभिन्न गुरुद्वारे के आसपास के बाजारों में बेचे जा रहे हैं। भारत के कई गुरुद्वारों में सिखों के ऐतिहासिक शहीदों के साथ भिंडरावाले की तस्वीरों को भी शामिल किया गया है। भारत के लिए सबसे चिंता की बात ये है कि हाल के सालों में कई खालिस्तानी हमले हुए हैं, जिन्हें सुरक्षाबलों ने रोका है। ये खुला तथ्य है कि पाकिस्तान लंबे समय से खालिस्तानी समूहों को मजबूत कर रहा है और पनाह भी दे रहा है।
इन खालिस्तानी समूहों के साथ मिलकर पाकिस्तान के साजिश रचने का उद्देश्य भी साफ है। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई हमेशा से ही भारत विरोधी कश्मीरी अलगाववादी समूहों का साथ देती रही है। अनेक सबूतों के अनुसार इस्लामी आतंकवादी समूह लश्कर-ए-तैयबा और पाकिस्तान में रहने वाले खालिस्तानी कार्यकर्ताओं के बीच साठगांठ जारी है।
वास्तव में इस देश का इतिहास रहा है कि हम समस्या पर हावी होने के बाद उसे फिर से उग्र रूप धारण करने देते हैं। नागालैंड में ऐसा ही हुआ। शिलांग समझौते के बाद सरकार के नरम पड़ने के कारण नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आॅफ नागालैंड की स्थापना हुई और इस संगठन ने अलगाववादी मांगों को फिर से हवा दी।
कश्मीर के मामले में यदि भारत सरकार ने दूरदर्शिता दिखाई होती तो 1972 में शिमला समझौते के दौरान समस्या का स्थायी समाधान हो जाता, परंतु इंदिरा गांधी ने मौका गंवा दिया। आज सवाल यह है कि पंजाब समस्या, जिसका समाधान हमने इतनी कुर्बानियों के बाद ढूंढ़ लिया था, क्या फिर से ज्वलंत हो जाएगी। क्या पंजाब में फिर से आतंक का माहौल बनेगा?