एक दिन महात्मा बुद्ध ने अपना अंतिम भोजन ग्रहण कर लिया। इस भोजन को उन्होंने कुंडा नामक एक लोहार से भेंट के रूप में प्राप्त किया था। लेकिन भोजन करने के बाद वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। कुंडा अपने आपको दोषी मानने लगा कि उसके भोजन से बुद्ध गंभीर रूप से बीमार हो गए हैं। बुद्ध तक यह बात पहुंची तो बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुंडा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है।
उन्होंने कहा कि यह भोजन तो अतुल्य है। भगवान बुद्ध जब मृत्यु शैया पर अंतिम सांसें गिन रहे थे, तभी पास से किसी के रोने की आवाज सुनाई दी। गौतम बुद्ध ने अपने नजदीक बैठे शिष्य आनंद से पूछा,’आनंद, यह कौन रो रहा है। आनंद ने कहा, भंते, भद्रक आपके अंतिम दर्शन के लिए आया है। बुद्ध ने कहा, तो उसको मेरे पास बुला लो।
बुद्ध के पास आते ही भद्रक फूट-फूट कर रोने लगा। उसने कहा, आप नहीं रहेंगे तो हमें ज्ञान का प्रकाश कौन दिखाएगा। बुद्ध ने भद्रक से कहा, भद्रक, प्रकाश तुम्हारे भीतर है, उसे बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है। जो अज्ञानी हैं, वह इसे देवालयों, तीर्थों, कंदराओं या गुफाओं में भटकते हुए खोजने का प्रयत्न करते हैं। वे सभी अंत में निराश होते हैं। इसके विपरीत मन, वाणी और कर्म से एकनिष्ठ होकर जो साधना में निरंतर लगे रहते हैं।
उनका अंत:करण स्वयं दीप्त हो उठता है। इसलिए भद्रक आप स्वंय दीपक बनो यही मेरा जीवन-दर्शन है। इसे मैं आजीवन प्रचारित करता रहा। भगवान बुद्ध का यह अंतिम उपदेश सुन कर भद्रक को समझ में आ गया कि अपना दीपक स्वयं बनने के लिए उसे क्या करना होगा। उसने उसी दिन से मन, वाणी, कर्म से एकनिष्ठ होकर साधना करने का मन बना लिया।