एक बार एक जिज्ञासु विद्यार्थी गुरु के पास आया। पूरी विनम्रता के साथ उसने गुरु के समक्ष स्वयं को प्रस्तुत किया। उसकी विनम्रता से प्रभावित होकर गुरु ने उसे अपना शिष्यत्व प्रदान किया। विद्वान गुरु उस शिष्य को ज्ञान प्रदान करने लगे।
विद्यार्थी जल्दी से जल्दी ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहता था, इसलिए वह गुरु के बताए किसी भी पाठ पर बहुत ज्यादा समय नहीं खर्च करना चाहता था। वह गुरु से अपेक्षा करता था कि वह बहुत शीघ्रता के साथ उसे जल्दी-जल्दी ज्ञान प्रदान करें। गुरु शिष्य के इस अधैर्य को समझ गए।
वे शिष्य को एक बड़े से तालाब पर ले गए। उस तालाब पर बहुत सारे मछुआरे मछलियां पकड़ रहे थे। गुरु ने बताया, इन मछुआरों को विश्वास है कि इस तालाब में बड़ी-बड़ी मछलियां होंगी। उन्होंने अपने-अपने कांटो में मछलियों की रूचि के अनुरूप चारा लगा रखा है। गुरु ने आगे कहा कि, देखो! वह कितने धैर्य और शांत चित्त के साथ अपनी बंसी डालकर बैठे हैं।
अगर यह मछुआरे जल्दबाजी करें और बार-बार अपनी बंसी को पानी से निकाल लें तो क्या यह कभी मछलियां पकड़ पाएंगे? शिष्य ने कहा, बिल्कुल नहीं। गुरु ने समझाया, ठीक ऐसे ही एक जिज्ञासु विद्यार्थी को गुरु की बात पर विश्वास करके, श्रद्धा रूपी चारा लगाकर अभ्यास की वंशी को, अध्ययन रूपी जल में डालना होता है। फिर पूरे धैर्य के साथ ध्यानपूर्वक बैठकर साधना करनी होती है। तभी ज्ञानरूपी मछली मिलती है।
प्रस्तुति: डॉ. प्रशांत अग्निहोत्री