Thursday, January 23, 2025
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सामयिक: लोकतंत्र से खेल रहा है कोरोना!


कृष्ण प्रताप सिंह
कृष्ण प्रताप सिंह
मशहूर इतिहासकार और दार्शनिक युवाल नोहा हरारी ने कोरोनाकाल की शुरुआत में ही चेता दिया था कि यह वायरस लोगों की जान या सेहत से ही नहीं, उनके देशों के लोकतंत्र से भी खेलेगा, क्योंकि उससे निपटने के बहाने उनकी सरकारें अपने आपको ‘सर्वशक्तिमान’ बनाने के लिए नए-नए रास्ते अपनाएंगी। अभी हम इस चेतावनी को हकीकत में बदलते देख ही रहे थे कि संयुक्तराष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने यह बताकर इस संबंधी चिन्ताओं को कई गुनी कर डाला है कि कोरोना के साथ नस्लवाद, घृणा और भेदभाव भी बढ़ते जा रहे हैं।
धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ धर्म या विश्वास के आधार पर घृणा व भेदभाव के कई परेशानकुन उदाहरणों का जिक्र करते हुए हरारी की ही तरह उन्होंने भी चेताया है कि ऐसा ही रहा तो समावेशी, समृद्ध, सहिष्णु व शांतिपूर्ण समाज निर्माण के हमारे उद्देश्य को गहरा विश्वव्यापी धक्का लगेगा। इस धक्के से बचने के लिए उन्होंने समस्या के मूलभूत कारणों पर ध्यान देने का आह्वान किया है।
इन दोनों महानुभावों की चेतावनियों के आईने में अपने देश की स्थिति पर नजर डालें तो चिंताएं घटतीं नहीं बल्कि बढ़ती ही हैं। हमारे यहां, जैसा कि दार्शनिक हरारी को अंदेशा था, कोरोनाकाल शुरू होते ही बजट सत्र को बीच में ही खत्मकर संसद को पूरी तरह ठप कर दिया गया। देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था के रूप में वह तभी से मौन है और संकट के वक्त देश को संभालने व स्थितियों को सामान्य करने के लिए नीतियां बनाने का दायित्व नहीं निभा पा रही। यह काम पूरी तरह कार्यपालिका कहें या नौकरशाही के हवाले कर दिया गया है।
इस तरह लोकतंत्र को बुरी तरह सिकोड़ दिए जाने का सबसे बड़ा कुफल यह है कि सरकार लॉकडाउन की विफलता व अर्थव्यवस्था की बदहाली के साथ लाखों दिहाड़ी व प्रवासी मजदूरों के रातों-रात बेरोजगार होने, जीवनयापन की सहूलियतों के अभाव में सड़क पर आने और हादसों के शिकार होने से लेकर ताली व थाली बजाने जैसे अविचारित फैसलों पर लानत मलामत से बच गई और ‘सुरक्षित’ महसूस कर रही है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव जिन घृणाओं और भेदभावों की बात कर रहे हैं, उनकी बात करें तो उन्हें तो इस देश में तभी बेलगाम कर दिया गया था, जब विश्व स्वास्थ्य संगठन की लाख मनाही के बावजूद ‘फिजिकल डिस्टेंसिंग’ को ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ के तौर पर बरता गया। यहां तक कि प्रधानमंत्री देश के नाम संबोधनों में भी फिजिकल के बजाय सोशल डिस्टेंसिंग का ही रट्टा मारते रहे। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हिदायत दी थी कि कोरोना वायरस के संक्रमण के आंकड़ों को सांप्रदायिक आधार पर जारी न किया जाए और न ही किसी समुदाय या संप्रदाय को दोषी ठहराया जाए, क्योंकि यह वायरस जाति, धर्म या संप्रदाय नहीं देखता। लेकिन इस देश में सरकार प्रायोजित यह झूठी खबर अरसे तक प्रचार माध्यमों में छाई रही कि तब्लीगी जमात के लोगों के कारण ही देश में कोरोना का संक्रमण बेकाबू हो रहा है। उन दिनों देश के कई हिस्सों में तब्लीगी जमात से सम्बद्ध देशी-विदेशी नागरिकों की धर-पकड़ के बीच ये माध्यम अपनी सुर्खियों में लगातार यही बताते रहे थे कि किस दिन जमात के कितने सदस्य पॉजिटिव निकले, और उनके संपर्क में आए कितने और लोग संक्रमित हो गए। न्यूज चैनलों पर तो कोरोना से ज्यादा खबरें ‘तब्लीगी जमात के कोरोना कनेक्शन’ की हुआ करती थीं। इसकी भी कि क्वारंटीन सेंटरों में किस तरह तब्लीगी जमात के लोग कहीं मांसाहारी खाना मांग रहे है, कहीं खुले में शौच कर रहे हैं तो कहीं मेडिकल स्टाफ से अशोभनीय हरकतें कर रहे हैं।
महामारी के घोर संप्रदायीकरण पर आमादा सरकार-मीडिया गठजोड़ ने अपने इस तरह के प्रोपागैंडा से सीएए के कारण पहले से ही डरे-सहमे अल्पसंख्यकों की जिंदगी में जहर घोलकर उसे किस कदर और दुश्वार कर दिया, इसे इस बात से समझ सकते हैं कि कहीं उनका सामाजिक बहिष्कार शुरू कर दिया गया तो कहीं आर्थिक बहिष्कार होने लगा। नौबत यहां तक आ गई कि कई जगहों पर स्वयंभू स्वयंसेवक अपने मुहल्लों में सब्जी बेचने वालों के आधारकार्ड चेक करके उन्हें ‘पासपोर्ट’ देने या रद करने लगे।
देश की सरकार की नाक के नीचे यह सब होता रहा और वह इसकी मौन स्वीकृति के बीच खुशी-खुशी तब्लीगी जमात का तमाशा बनते देखती रही तो उसके साइड इफेक्ट के तौर पर इंसान इंसान के बीच महामारी से ज्यादा भय और अविश्वास की दीवारें खड़ी होने लगीं। राज्य सरकारों ने भी गैरजिम्मेदार व संवेदनारहित होकर अजीबो गरीब कदम उठाने शुरू कर दिए। दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार ने ‘बाहरियों’ के लिए अपने नियंत्रण वाले सरकारी अस्पतालों के साथ-साथ प्राइवेट अस्पतालों के दरवाजे भी इस तरह बंद कर दिए जैसे ये बाहरी किसी और देश के नागरिक हों। इतना ही नहीं, प्रवासी मजदूरी की आवाजाही के मुद्दे पर कई राज्यों की सीमाओं को अलग -अलग देशों की सरहदों जैसी बना दिया गया। कई राज्यों की सीमाओं पर सड़कों पर गड्ढे खोद दिए गए तो कहीं सड़क पर रातों-रात दीवार खड़ी कर दी गई। इस दौरान सबसे अफसोस की बात थी कि जहां प्रधानमंत्री से अभीष्ट था कि वे अपनी सरकार के साथ ही राज्यों की सरकारों को भी ऐसे ओछेपन से बाज आने को कहेंगे और आम लोगों को जीवन की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त कर विश्वास का माहौल बनायेंगे, वे बार-बार महामारी को दूसरे विश्वयुद्ध से भी बड़ी त्रासदी बताते रहे, जिससे लोगों में ऐसा मृत्यु भय फैला, जिसने मारकता में ‘जाति आधारित शुद्धता खोने’ के तथाकथित उच्च जातियों के भय से भी कहीं ज्यादा गर्हित सामाजिक घृणा को जन्म दे दिया। क्या आश्चर्य कि ऐसे अमानवीय वातावरण में कई कोरोना संदिग्धों ने उनका टेस्ट पॉजिटिव आते ही आत्महत्या कर ली।
लोकतंत्र को सिकोड़ने और भेदभाव बढ़ाने वाले हालात अभी भी कुछ खास नहीं बदले हैं। भले ही उनके रूप थोड़े बदल गए हों। कोरोना का प्रकोप भी अभी बढ़ता ही जा रहा है, लेकिन चंूकि उसका मुकाबला उस मानवबुद्धि से है, जो अपनी अब तक की यात्रा में हार मानना नहीं सीख पाई है, इसलिए यह विश्वास करने के कारण है कि कोरोना को आज नहीं तो कल अपना बोरिया-बिस्तर समेट ही लेना होगा। लेकिन उसके बहाने सत्ताधीशों ने जो हालात पैदा कर दिए हैं, उनके मद्देनजर हमें अभी से फिक्रमन्द होना होगा कि कहीं जाते-जाते कोरोना अपने साथ हमारे लोकतंत्र व समावेशी, समृद्ध, सहिष्णु व शांतिपूर्ण समाज जैसे सुख स्वप्नों को भी समेट ले गया तो क्या होगा? ऐसा न हो, इसके लिए वैसी परिस्थितियों का निर्माण आवश्यक है, जिनमें सत्ताधीशों के लिए युवाल नोहा हरारी और एंतोनियो गुतारेस की चेतावनियों को हकीकत में बदलना संभव न हो सके।

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