Monday, July 1, 2024
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कर्नाटक के जनादेश का मतलब?

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KRISHNA PRATAP SINGHकर्नाटक के मतदाताओं ने वहां के विधानसभा चुनाव में जो फैसला सुनाया है, स्वाभाविक ही, उसके कई विश्लेषण किए जाएंगे। लेकिन इस सिलसिले में सबसे मौजूं बात यह है कि भाजपा के हिंदुत्व की जो गुदगुदी कभी मतदाताओं के एक बड़े हिस्से को इस हद तक हंसाती थी कि वे अपने सारे दु:ख-दर्द भूलकर उसकी झोली में आ गिरते और हर तरह की एंटीइन्कम्बैंसी से अभय कर देते थे, अब वह उन्हें इतनी रुलाने लगी है कि वे उसकी बिना पर भी भाजपा को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं। उसकी सरकारों के नाकारापने के साथ तो एकदम से नहीं। इसलिए उन्होंने हिंदुत्व को अपने कुशासन व भ्रष्टाचार का कवच बनाने की उसकी कोशिशों को सिरे से नकार दिया है। यह लगभग वैसा ही है जैसे 2014 में देशवासियों ने खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली पार्टियों की इस उम्मीद को धराशायी कर दिया था कि वे उनकी तमाम मनमानियां सहकर भी सांप्रदायिक भाजपा को सत्ता में आने से रोके रखेंगे।

भाजपा के दुर्भाग्य से इस चुनाव में कांगे्रस भी किलर्स इन्स्टिंक्ट के साथ मैदान में उतरी-उसको जीवनमरण का प्रश्न मानकर। इसके बगैर उसके लिए वैसा संगठित प्रचार अभियान चलाना संभव ही नहीं था, जैसा उसने चलाया। इस अभियान में न उसकी प्रादेशिक या स्थानीय इकाइयां हाईकमान के भरोसे बैठी रहीं, न हाईकमान ने उन्हें अपना मोहताज समझने या सब-कुछ उन पर ही छोड़ देने की गलती दोहराई।

पार्टी की संरचनात्मक कमजोरियों के बावजूद दोनों ने ऐसा तालमेल प्रदर्शित किया कि कहना मुूश्किल था कि पार्टी के क्षत्रपों ने ज्यादा पसीना बहाया या हाईकमान ने। इसी बिना पर वह भाजपा से जैसे को तैसा की तर्ज पर निपटकर उसे चुनाव को अपने एजेडे अथवा नैरेटिव पर ले जाने से रोक और बेहतर साम दाम दंड भेद बरतते हुए सामाजिक समीकरणों को अपने अनुकूल कर चुनाव का नया एजेंडा निर्धारित कर पाई।

फिर तो उसने भाजपा की बनाई साम्प्रदायिकता की दीवार पर मतदाताओं के दु:ख-दर्दों के आईने लगाकर उसे ही उनके सामने ला खड़ा किया। प्रचार के आखिरी दिनों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कट्टर हिंदुत्व की राह पकड़कर बजरंगबली और बजरंगदल को एक करने की जो कोशिश की, वह भी इस आईने के सामने उनकी पार्टी और उनके खुद के निर्वसन हो जाने जैसी ही थी।

संभवत: प्रधानमंत्री को उम्मीद थी कि कांगे्रस, अपनी पुरानी आदत के अनुसार, इस निर्णायक क्षण में बजरंग दल पर प्रतिबंध के अपने वायदे कोे लेकर पहले थोडी कमजोर पड़ेगी, फिर रक्षात्मक होकर आत्मविश्वास गंवा देगी। लेकिन इस बार उसने उन्हें नाउम्मीद करते हुए दृढ़ता प्रदर्शित की और उनकी कलाई मरोड़कर जीत अपने नाम कर ली।

प्रधानमंत्री ने कथित रूप से उन्हें गालियां देने का मुद्दा उठाया और उनकी गिनती के आधार पर मतदाताओं पर इमोशनल अत्याचार की राह चले तो भी उसने यह कहकर नहले पर दहला जंड़ दिया कि कैसे प्रधानमंत्री हैं वे कि मतदाताओं के दु:ख-दर्द सुनने के बजाय उनके सामने अपना ही दुखड़ा रोते रहते हैं।

कांगे्रस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने तो बाद में उन्हें इसको लेकर भी भरपूर घेरा कि वे गुजरात में खुद को वहां का धरतीपुत्र बताकर वोट मांगते हैं और उन्हीं की तर्ज परखुद को कर्नाटक की धरती का पुत्र बताकर वोट मांगे। खड़गे के बेटे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे भाजपा उम्मीदवार द्वारा परिवारसहित उनके सफाये की बात कहने का आडियो लीक हुआ तो भी भाजपा से जवाब देते नहीं ही बना।

बहुत संभव है कि कुछ महानुभाव इन नतीजों को राज्य की राजनीतिक भ्रष्टाचार व खरीद-फरोख्त के माध्यम से सत्ता में आई भाजपा सरकार के प्रति ऐंटीइन्कम्बैंसी या सत्तादलों को वापसी न करने देने की मतदाताओं की दशकों पुरानी परम्परा का परिणाम भर बताकर खुश होना चाहें, लेकिन प्रधानमंत्री ने जिस तरह इस चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर समूचे प्रचार में अपने पद की गरिमा तक से समझौता किए रखा और मतदाताओं ने जिस तरह उनकी बातों की अनसुनी की, उसका साफ संदेश है कि भाजपा के ‘मोदी नाम केवलम’ वाले सुनहरे दिन बीत गए हैं।

अब मतदाता मोदी के नाम पर उनकी व उनकी पार्टी की सरकारों की मनमानियों और उनकी जाई महंगाई व भ्रष्टाचार वगैरह को सहकर भी उनके साथ बने रहने को तैयार नहीं हैं-हिन्दुत्व की बिना पर भी नहीं। इसलिए अब भाजपा को सोचना पडेगा कि अगर अब मोदी का करिश्मा उसकी जीत की गारंटी नहीं है और उनका अपने पद की गरिमा तक को दांव पर लगाना भी बेलज्जत सिद्ध हो रहा है तो उसकी और कौन-सी पूंजी है जो उसे जितायेगी?

खासकर जब उसका पुराना कैडर आधारित स्वरूप बदल चुका है, महानायकीय चमत्कार पर निर्भरता की बीमारी लाइलाज हो चली है और गरीब समर्थक छवि उद्योगपति समर्थक छवि में बदल गई है। दूसरे पहलू से देखें तो मतदाताओं ने भाजपा को ही नहीं प्रधानमंत्री के बजरंग दल और बजरंगबली को एक करके रख देने और भड़काने वाले अनर्थकारी व उग्र प्रचार की ओर से आंखें मूंदे रखने और उन पर प्रतीकात्मक कार्रवाई तक से परहेज रखने वाले चुनाव आयोग को भी हराया है।

उस मीडिया को भी, जो चुनाव कार्यक्रम की घोषणा होने से पहले से ही राज्य को हिजाब, अजान और लवजेहाद जैसे बांटने व मूल समस्याओं से ध्यान भटकाने वाले मुद्दों में उलझाये हुए था। इस हार ने भाजपा को न सिर्फ दक्षिण भारत के प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया है बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर भारत में त्रजहां 2019 में भाजपा चोटी पर रही थीत्न संभावित नुकसान की दक्षिण भारत में भरपाई के मंसूबों पर ग्रहण भी लगा दिया है।

अगर यह राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा का (जो भरपूर समर्थन के बीच 30 सितम्बर, 2022 से 15 अक्टूबर, 2022 तक राज्य में रही थी)नतीजा है, तो भाजपा को और चिंतित होने की जरूरत है। क्योंकि तब इसका मतलब है कि राहुल यात्रा में नफरत के बाजार में मुहब्बत की जो दुकान खोलने की बात कह रहे थे, उसे न सिर्फ ग्राहक मिलने लगे हैं, बल्कि वह उन्हें लाभ भी दिलाने लगी है। इतना ही नहीं, भ्रष्टाचार का जो मुद्दा अब तक भाजपा को चुनावों में जीत दिलाता आ रहा था, अब उसके गले की फांस बनने लगा है!

यकीनन, इन नतीजों को राहुल के ‘सच बोलने की कीमत चुकाने’ से भी जोड़ा जा सकता है। कांगे्रस के अंदर के असंतुष्टों और विपक्षी एकता के प्रयासों पर भी इसका असर होगा ही होगा। विपक्ष के जो दल अब तक कांगे्रस को सर्वथा कमजोर मानकर संभावित विपक्षी गठबंधन में उसकी निर्णायक भूमिका के आडे आ रहे थे, यहां तक कि कह रहे थे कि वह खुद को पीछे रखकर क्षेत्रीय दलों को आगे आने का मौका दे, अब अपने रवैये पर फिर से विचार करने को मजबूर होंगे।


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