पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को उनकी सजा समाप्त करते हुए रिहा करने के आदेश देश की सबसे बड़ी अदालत द्वारा दिए गए हैं। अदालत का मानना है कि 30 वर्ष की सजा के बाद राजीव गांधी के हत्यारों का आचरण जेल मैनुअल के हिसाब से उत्तम कहा जा सकता है। इसके बाद न्यायालय ने उन्हें रिहा करने के आदेश जारी किए हैं। इससे पहले भी भारत के महामहिम राष्ट्रपति के पास इन लोगों की दया याचिका विचारार्थ थी। राजीव गांधी की हत्या में शामिल नलिनी के आग्रह पर सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति से दया याचिका में फांसी की सजा को माफ किए जाने की अपील भी की थी। सोनिया गांधी ने यह भी कहा था कि वह नलिनी को राजीव गांधी की हत्या के लिए माफ करती हैं! इन सभी घटनाक्रमों को देखते हुए भारत की सबसे बड़ी अदालत ने पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों में से 6 को रिहा करने के आदेश दिए हैं। इस मामले में कुछ बरी भी हो चुके हैं। इसके बाद यह विषय एक बार फिर राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बन गया है। यहां सवाल यह उठाया जा रहा है कि क्या राजीव गांधी, श्रीमती सोनिया गांधी के पति के अलावा भी कुछ थे? क्या भारत के प्रधानमंत्री की हत्या हो जाने के बाद उसे पारिवारिक विषय बनाते हुए क्षमा कर देना उचित है?
मामले में शीर्ष अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त विशेष विवेकाधीन शक्तियों का इस्तेमाल किया है, लेकिन सवाल उठता है कि विवेकाधीन शक्तियों का इस्तेमाल उन मामलों में क्यों, जहां पहले से ही कानून मौजूद हैं। मेरी राय में ऐसी शक्तियों का इस्तेमाल उन मामलों में किया जाना चाहिए जहां कानून स्पष्ट नहीं है या मौजूदा कानून से न्याय प्रभावित हो रहा हो। पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या के दो दोषियों को मृत्युदंड दिया गया था, जिनकी सजा को शीर्ष अदालत के पांच न्यायाधीशों की पीठ ने आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया था, ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर एक ही अदालत की संविधान पीठों के फैसलों के बीच एकरूपता क्यों नहीं है।
हत्यारों में से 4 की सजा-ए-मौत को ‘सही’ आंका गया। अन्य 3 की सजा-ए-मौत को उम्रकैद में तबदील कर दिया गया। वर्ष 2000 में तमिलनाडु राज्यपाल ने, राज्य सरकार की अनुशंसा और सलाह पर नलिनी की सजा-ए-मौत को माफी देकर उम्रकैद कर दिया। 2014 में सर्वोच्च अदालत ने तीन अन्य की मौत की सजा कम करके उम्रकैद कर दी। दलील दी गई कि उनकी दया याचिकाओं पर केंद्र सरकार ने फैसला लेने में असाधारण देरी की। इस आधार पर उनकी सजा कम कर दी गई।
अंततरू मई, 2022 को शीर्ष अदालत ने एजी पेरारिवलन की उम्र कैद भी माफ करने की अनुमति दी और उसी आधार पर 6 शेष हत्यारों की सजा माफ करके रिहाई का फैसला सुना दिया गया। इस संदर्भ में तमिलनाडु सरकार ने जो भी प्रस्ताव पारित किए और कैदियों की मुक्ति का रास्ता तैयार किया, उसका विरोध किसी भी तमिल पार्टी ने नहीं किया। जो दल ह्यघोर राष्ट्रवादह्ण की चिल्ला-चिल्ला कर राजनीति करते रहे हैं, वे भी इस मुद्दे पर खामोश रहे। उन्हें अच्छी तरह पता था कि उस हत्याकांड के पीछे विदेशी आतंकी संगठन लिट्टे की साजिश थी।
बहरहाल अब तो श्रीलंका में ही लिट्टे का अस्तित्व खत्म है, लेकिन सोच कहां मरती है? यह विषय आखिरकार न्याय व्यवस्था को भविष्य के लिए किस प्रकार से प्रभावित करेगा देखना जरूरी है। यह सवाल भी अपने आप में सामयिक है कि कोई हत्या का अभियुक्त वह भी सहज हत्या का अभियुक्त न होते हुए प्रधानमंत्री की हत्या का अभियुक्त हो अपने आचरण के कारण सजा से मुक्त होने के की पात्रता रखता है? इन सवालों के उत्तर न केवल भारतीय राजनीतिक गलियारों में अपितु न्याय व्यवस्था की गलियों में भी मांगे जा रहे हैं।
भारत की न्याय व्यवस्था के संदर्भ में आज भी किसी प्रकार की आशंका का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता। इसके बाद भी अनेकों अवसरों में यह लगता है कि न्यायपालिका कुछ रचनात्मक प्रयोग करने का प्रयास कर रही है। पिछले कुछ समय से सरकार के निर्णयों की समीक्षा संबंधी विषयों को भी इसी संदर्भ के साथ जोड़कर देखा जा सकता है। ठीक उसी प्रकार से भारत के प्रधानमंत्री के हत्यारों को उनके आचरण के कारण समय से पहले रिहा करने का प्रसंग भी न्यायपालिका के नए प्रयोगों के रूप में देखा जा रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय सचमुच मानता है कि एक अवधि तक की सजा काटने के बाद किसी को जेल में नहीं रहना चाहिए, तो उसे फिर उसे ये पैमाना सब पर लागू करना चाहिए। पंजाब और कश्मीर में आतंकवाद के आरोप में जेल में रखे गए लोग हों या उत्तर-पूर्व की चरमपंथी गतिविधियों और नक्सली हिंसा में शामिल रहे लोग- क्या उनके जुर्म एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या से ज्यादा संगीन हैं? अगर ऐसे तमाम मामलों के लिए न्याय और सजा पर समान नजरिया सामने नहीं आता है, तो यही माना जाएगा कि राजनीतिक माहौल के हिसाब से कुछ मामलों को चुन कर उनमें राहत देने का नजरिया हावी हो गया है।
यह इस देश के भविष्य के लिए अच्छी बात नहीं होगी, अगर लोगों में न्यायिक फैसलों से ऐसी राय घर बनाने लगेगी। भारतीय न्यायपालिका ने खुद अपने फैसलों से भारतीय संविधान के मूल ढांचे की रक्षा की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली थी। मूल ढांच के साथ-साथ संविधान की मूल भावना भी अंतर्निहित है। यह भावना कानून के राज और सबसे समान बर्ताव का भरोसा जगाती है। क्या राजीव गांधी के हत्यारों को छोड़ने से यह भरोसा मजबूत हुआ है?
सामान्यतया आम व्यक्ति को न्याय पाने के लिए ही बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं, वहीं दूसरी तरफ एक हाईप्रोफाइल मामले में अपराधियों के प्रति न्याय की दया का प्रदर्शन भी देखने को मिलता है। आने वाले समय में न्याय व्यवस्था में इस प्रकार के प्रयोगों का कितना लाभ होता है और कितने अपराधी अपने आचरण को समय से पहले सुधार पाते हैं यह गंभीरता पूर्वक देखने का विषय होगा।
यदि न्याय व्यवस्था कोई गुणात्मक प्रयोग करना चाहती है तब हाई प्रोफाइल मामलों में और खासकर जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री जैसी हत्या शामिल हो वहां इन प्रयोगों में और अधिक सतर्कता की जरूरत है। अन्यथा हत्या के बाद आचरण सुधार के ड्रामे आम बात होने जैसी स्थिति हो सकती है। न्याय के फैसलों का तार्किक आधार ही होता है, न कि भावनात्मक।
वहीं यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि दंड का मतलब सुधारात्मक होता है न कि अपराध के मुकाबले का दंड देना। निश्चित तौर पर इस तरह के फैसले भविष्य में नजीर बनेंगे और कानून और फैसलों में एकरूपता की कमी का फायदा उठाकर अपराधी बाहर आएंगे। इससे अदालत के समक्ष समस्याएं तो बढ़ेंगी ही, अपराधियों का मनोबल भी बढ़ेगा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले भविष्य के लिए नजीर बनते हैं, इसलिए यह जरूरी है कि ये फैसले किसी न्यायाधीश के दृष्टिकोण और सोच पर आधारित होने के बजाय, स्थापित कानून पर आधारित हों।