शोले फिल्म के जेलर का मशहूर डायलाग है। आधे इधर जाओ, आधे उधर, बाकी मेरे पीछे आओ। अंत में, पीछे कोई नहीं बचता। यही हाल इस वक्त बिहार में जनता दल (यूनाइटेड) का है। नीतीश कुमार के समक्ष इस वक्त सबसे बड़ी दुविधा यही है कि 2025 तक अपनी पार्टी को कैसे बचाएं? कैसे मंडलवादी राजनीति की विरासत को आगे तक संभाल कर रख जाए। क्योंकि मंडलवादी राजनीतिक विरासतों की कमी बिहार में है नहीं। इधर लालू जी के सुपुत्र तेजस्वी है, उधर रामविलास जी के सुपुत्र चिराग, जो येन-केन-प्रकारेण मंडलवादी राजनीति की बैलगाड़ी खींच ही रहे हैं। तो, फिर जद (यू) के नेता, नीतीश जी के टायर्ड और रिटायर्ड होने के बाद किधर जाएंगे? क्या वे भी शोले के जेलर के सिपाहियों की तरह आधे इधर, आधे उधर हो जाएंगे? या फिर नीतीश जी ‘ठाकुर’ की भूमिका में आ कर कोई जय-वीरू खोज लाएंगे?
जद(यू) में इस वक्त ऐसे-ऐसे झा जी, सिंह जी, चौधरी जी मौजूद हैं, जो कब इधर से उधर हो जाए, कहा नहीं जा सकता। नीतीश कुमार एक परिपक्व राजनेता होते हुए भी मंडलवादी मूल्यों में यकीन करने वाले नेताओं की जगह वैसे नेताओं को आगे करते रहे हैं, जो दिल से भाजपाई, कर्म से कांग्रेसी हैं। जो दिल्ली में बैठ कर भाजपा के लिए बैटिंग तक कर सकते हैं। और अंत समय में पूरा का पूरा कुनबा ले कर कहीं भी उठा कर ले जा सकते हैं। इस वक्त जनता दल (यूनाइटेड) में द्वितीय पंक्ति के नेताओं का घोर अभाव है। ऐसा एक भी भरोसेमंद, नेता नहीं दिखता, जिसे नीतीश कुमार अपनी विरासत सौंप सकें। असल में ऐसा जद(यू) के वरिष्ठ नेताओं ने जानबूझ कर किया भी। किसी युवा को आगे बढ़ने नहीं दिया, पनपने नहीं दिया। प्रशांत किशोर जद(यू) के महासचिव तक बनाए गए, लेकिन कोइ उन्हें झेलने को तैयार नहीं हुआ। नीतीश जी स्वयं को बहुत ही चतुर मानते हो, लेकिन वे खुद से भी अधिक चतुर नेताओं के चक्रव्यूह में इस वक्त फंस चुके है। और ये सारे के सारे चतुर नेता जहाज डूबने के समय सबसे पहले भाग निकालेंगे। कमंडल शायद इनके लिए सबसे सुरक्षित स्थान भी होगा। ऐसे में नीतीश कुमार के पास क्या उपाय बच जाएगा?
नीतीश जी की समस्सया यही खत्म नहीं होती। कमंडलवादी नेताओं से घिरे होने के साथ ही वे ब्यूरोक्रेसी की गिरफ्त में भी है। जो गलती ओडिशा में नवीन बाबू ने की थी, खुद को आईएएस के हवाले कर दिया था और नतीजा सबने देखा। ठीक वैसे ही नीतीश कुमार की सरकार भी इस वक्त नौकरशाह ही चला रहे है। यह बात ब्यूरोक्रेसी को जानने-समझाने वाला हर आदमी जानता है कि आज बिहार नौकरशाहों के भरोसे ही चल रहा है। उसमें भी कुछ चुनिन्दा नौकरशाह पटना में नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द रहते हैं, वे जो कहते हैं, वहीं नीतीश कुमार करते है। नीतीश जी का २-४ नेताओं के अलावा अपने विधायकों तक से सीधा राबता नहीं हो पाता है। वो तो भला हो महिला सशक्तिकरण के नाम पर नीतीश कुमार के किए हुए कामों का, जिसके भरोसे आज तक इस पार्टी की उपस्थिति दिख जाती है, अन्यथा नीतीश कुमार की पार्टी संगठनात्मक स्तर पर आज बिहार की सबसे कमजोर पार्टी है। बहुत हद तक कांग्रेस की तरह।
जनता दल (यूनाइटेड) को बचाने और आगे बढाने का एक मात्र रास्ता नीतीश कुमार के पास, निशांत के रूप में है। कोई इसे परिवारवाद कहे या जो भी, सच्चाई यही है कि भारत की राजनीति में परिवार का बोलबाला है और परिवार पार्टी को एकजुट रखने में केंद्रीय ताकत की भूमिका निभाता है। भाजपा या कम्युनिस्ट पार्टियां इसके अपवाद जरूर है और इसके विशेष कारण भी है। भाजपा संघ परिवार से गाइड होती है और कम्युनिस्ट पार्टियां पोलित ब्यूरो से। एनी पार्टियां व्यक्ति केन्द्रित रही है। खास कर जितने भी क्षेत्रीय दल है, वे सब के सब, उत्तर से दक्षिण तक, परिवार केन्द्रित पार्टियां ही है। तल्ख हैं, मगर सच्चाई है। बिहार में तेजस्वी यादव, क्घिराग पासवान, सम्राट चौधरी जैसे युवा नेता इस वक्त अपने परिवार, अपने पिता की वजह से ही है। ऐसे में अगर नीतीश कुमार, निशांत कुमार को आगे ले कर आते हैं, उन्हें पार्टी की कमान सौंपते हैं, तो बहुत हद तक एक केन्द्रीय ताकत के रूप में निशांत कुमार पार्टी को शायद एकजुट रख पाएं। नीतीश कुमार ने आज तक जो काम किए है, उसकी विरासत भी सीधे निशांत को मिल जाएगी, लोग उनसे नीतीश कुमार के पुत्र होने के नाते कनेक्ट भी हो सकेंगे और उनकी छवि एक सीधे-साधे व्यक्ति की है, जिसका उन्हें और उनकी पार्टी को फायदा हो सकता है। सबसे बड़ी बात, अभी वे युवा है, पढ़े-लिखे हैं। पिता और वरिष्ठ नेताओं के मार्गदर्शन में वे तेजस्वी यादव और चिराग पासवान से अधिक स्वीकार्य चेहरा बनने की काबिलियत रखते हैं।
नीतीश कुमार की पार्टी में अगर लोग आधे इधर, आधे उधर भी होते हैं, तभी भी वैसी स्थिति में युवा निशांत एक पुरानी पार्टी को बिहार के युवाओं से जोड़ सकते हैं। आखिरकार, पिता के कर्म, सुकर्म का फल/लाभ पुत्र को तो मिलता ही है। और नीतीश कुमार पर चाहे जो आरोप लगे, उन्होंने बिहार को 90 के बिहार से निकाल कर 21वीं सदी के बिहार तक लाने की ईमानदार कोशिश तो जरूर की है। महिलाओं के उत्थान के लिए उन्होंने अद्भुत काम जरूर किए है। हालांकि, वे जो कर सकते थे, जो उनकी क्षमता थी, वे उतना नहीं कर पाए, क्योंकि अंतत:, वे भी ऐसे नेताओं से घिर कर रह गए, जो तन पर मंडलवादी चादर लपेटे हुए भीतर से कमंडलवादी बनियान पहने हुए हैं।